गाँधी की डाक्टरी और देशज भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था

प्रो. रितु प्रिया*

गाँधी जी की अपने लिये पहली पसंद थी डाक्टर बनना लेकिन चूंकि मेडिकल की पढ़ाई में जीवों को मारकर काटना होता था, इसीलिए उन्होंने इंग्लैंड जाकर कानून पढ़ा और बैरिस्टर बने। डाक्टरी ना पढ़ने के बावजूद उन्होंने अपने जीवन के प्रयोगों में स्वास्थ्य को अपने जीवन का एक केन्द्र बिन्दु बनाया। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी और जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उन्होंने कई ज्ञान-पद्धतियों से सीखा और उनका उपयोग किया। सामाजिक और राजनैतिक उपक्रमों को भी उन्होंने समाज के घाव भरने और स्वस्थ समाज बनाने की नज़र से किया। लगता है कि एक तरह का सेवा भाव उनकी प्रकृति में निहित था। इसलिये मेरा मानना है कि गाँधी जी को हम समाज के एक डॉक्टर के रूप में देख सकते हैं। हालांकि इस लेख को हम स्वास्थ्य तक ही सीमित रखेंगे।

खान-पान से लेकर हमारी दिनचर्या कैसी हो, इस पर तो गांधी जी ने ध्यान दिया ही है, साथ ही उन्होंने यह बात भी सामने रखी कि स्वास्थ्य के लिहाज़ से समाज के क्या मूल्य होने चाहिये? वह प्राकृतिक चिकित्सा के भी मुरीद थे और एक चिकित्सक के तौर पर वे पहले खुद पर प्रयोग कर बाद में प्राकृतिक चिकित्सा का अन्य इच्छुक लोगों पर का इस्तेमाल करते थे। उन्होंने कोढ़ की बीमारी से ग्रस्त श्री परचूरे शास्त्री को अपने आश्रम में रख कर खुद उनकी मरहम-पट्टी करने का काम किया। यह डाक्टरों के सामने इस बात का उदाहरण भी था कि डॉक्टर केवल एक ज्ञानी एक्सपर्ट ही नहीं होता, एक प्रेम से देखभाल करने वाली नर्स भी होता है। इस तरह वह राजनीति में कार्यरत लोगों व डॉक्टर दोनों को यह दृष्टि देते हैं कि समग्र देखभाल उनकी ज़िम्मेदारी है।

देशज दृष्टि में हर व्यक्ति की विशेष प्रकृति के अनुरूप चिकित्सा दी जाती है और साथ ही इसमें स्थान और काल का ध्यान रखा जाता है। देशज दृष्टि में ये समझ भी है कि विभिन्न प्रकार के कष्ट – मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक और भौतिक – ये सब किसी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं और इसलिये समग्र दृष्टि से ही हल किये जा सकते हैं। गाँधी जी ने ऐसे देशज विचारों को बखूबी उपयोग किया।

क्या इसका मतलब यह है कि वह आधुनिक विज्ञान विरोधी थे? दकियानूसी थे? ब्रह्मचर्य के पालन के अलावा वह इलाज के लिये उपवास करते थे और सादे खान-पान का उपयोग करते थे तो क्या वह स्वतंत्र उन्मुक्त जीवन के खिलाफ थे? नहीं, हम ऐसा नहीं मान सकते क्योंकि वह हर समस्या के मूल में जा कर, तार्किक सोच से निष्कर्ष निकालते थे और प्रयोग की कसौटी पर खरा उतरने पर ही किसी उपाय का प्रचार करते थे।

आज के डाक्टरी विज्ञान की नजर से देखें तो उनके बहुत से नुस्खे अब “हेल्दी लाइफस्टाइल” के नाम पर दुनिया भर में माने जा रहे हैं। पब्लिक हेल्थ की नजर से स्वच्छता, पोषण, खान-पान, दिनचर्या सभी महत्वपूर्ण माने जाने लगे हैं।

चिकित्सा और स्वास्थ्य व्यवस्था

आधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की जो मूल सोच अस्पताल और डॉक्टर के रूप में मेडिकल केन्द्रित बन गई है, उसका आरोग्य के मूल आधार से रिश्ता कट गया है। उसका खामियाज़ा हम कई तरह से भुगत रहे हैं। अगर अमेरिकन मेडिकल सिस्टम के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि अमेरिका में तीन सबसे बड़े मृत्यु के कारण हैं दिल की बीमारी, कैंसर और डॉक्टर-जनित बीमारियां। हम ऐसी ही व्यवस्था को अपने यहां क्यों बढ़ावा देना चाहते हैं जो लोगों की मौत का कारण बन रहा है। साथ ही ऐसी व्यवस्था में जनता का पैसा क्यों लगा रहे हैं? इसका यह मतलब नहीं कि हम सार्वजनिक  स्वास्थ्य प्रणाली या ‘पब्लिक हैल्थ सिस्टम’ खड़ा ना करें।

हमें पब्लिक हैल्थ सिस्टम चाहिये जो नीचे से ऊपर की ओर जाता हो। नीचे का मतलब है कि सिस्टम का केन्द्र व्यक्ति, परिवार और समुदाय पर रहे। इस केन्द्र बिन्दु से देखें तो हॉस्पिटल तो हाशिए पर दिखते हैं। अगर हम अपने ही घर का सोचें तो जब परिवार में कोई बीमार होता है तो सबसे पहले हम मरीज़ का घरेलू इलाज करते हैं और अपने अगल-बगल के बूढ़े-बुजुर्गों से नुस्खे पूछकर उन्हें अपनाते हैं। उसके बाद हम कहीं आगे जाने की सोचते हैं और अस्पताल तो बाद में जाया जाता है। तो अस्पताल हाशिए पर हैं और हम केन्द्र में। आज की स्वास्थ्य व्यवस्था में इसके बजाय अस्पताल केन्द्र पर है और हम सब हाशिए पर हो जाते हैं। ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था को बदलने का एक विचार है जो गांधी जी हमें बहुत स्पष्ट रूप से देते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) द्वारा 1978 से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary Health Centre – PHC) पर ज़ोर दिया गया है। इसकी परिकल्पना के समय व्यक्ति, परिवार और समुदाय को केन्द्र में रखा गया था। यह ग्राम आधारित स्वास्थ्य का ढांचा है जिसमें प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र आते हैं। गाँधी जी की दृष्टि भी ग्राम आधारित स्वास्थ्य सेवाओं की मज़बूती की पक्षधर थी। एक ऐसी व्यवस्था जिसके संचालन, निगरानी और अनुपालन में समाज की भी भागीदारी हो। इसी से व्यवस्था ज़िम्मेदार और मनुष्य की जरूरतों के प्रति संवेदनशील बनती है।

इसमें चिकित्सा का देशज ज्ञान हमारी बहुत मदद कर सकता है क्योंकि उसके अनेक रूप हैं। भारत में इलाज की आठ मान्यता प्राप्त पद्धतियां हैं। आधुनिक डाक्टरी पद्धति के अलावा सात अन्य मान्यता प्राप्त पद्धतियां हैं – आयुर्वेद, योग, नेचरोपैथी, यूनानी, सिद्ध, तिब्बती चिकित्सा और होम्योपैथी। इसके अलावा हर क्षेत्र की अपनी देशज इलाज की स्थानीय परम्पराएँ व इनके चिकित्सक हैं। सिर्फ यही नहीं, भारतीय समाज ने विभिन्न मान्यताओं के आधार पर इलाज के घरेलू नुस्खे भी खोजे हैं। इन्हें अपनाने के लिए ज्यादा खर्च की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि ये हमारे आसपास ही मिलते हैं। हल्दी एक बेहद प्रचलित औषधि है। इसके बारे में पौराणिक पुस्तकों में भी लिखा गया है। हमारे समाज ने इसे अपने रोज़मर्रा के खान-पान और व्यवहार में इस्तेमाल के लिये अपनाया है। ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो हम अपने खान-पान और व्यवहार में इस्तेमाल करते हैं। ये चीज़ें प्रकृति से ही मिलती हैं। इसके साथ ही जीवन में अनुशासन और नियमित व्यायाम स्वास्थ्य की देशज दृष्टि का अहम अंग है। महात्मा गाँधी इन सभी अंगों के आपसी तालमेल पर ज़ोर दिया करते थे। पर आज जब हम आधुनिक चिकित्सा पद्धति को मूल ज्ञान मानने लगे हैं तो समाज के नज़रिये में ये हाशिये पर दिखते हैं।

गाँधी जी ने आयुर्वेद और यूनानी के बजाय प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति की वकालत की। उनकी इस सोच के पीछे समाज के हर व्यक्ति के सशक्तीकरण व गरिमा को बढ़ाने की बात थी। आयुर्वेद और यूनानी भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियां जरूर हैं लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत के बाद इन चिकित्सा पद्धतियों का खास विकास नहीं हुआ था और गांधी जी वैद्य. हकीमों से नाराज़ थे कि वह अपने विज्ञान को आगे नहीं बढ़ा रहे बल्कि केवल प्राचीनता की दुहाई देकर अपनी राजनीति कर रहे हैं। नेचरोपैथी यानि प्राकृतिक चिकित्सा इंसान को उसके पर्यावरण, खान-पान, आचार-व्यवहार से तो जोड़ती ही है, साथ ही ये शरीर को निरोगी रखने का एक किफायती और सुलभ साधन भी है।

गाँधी जी के लिए तो स्वास्थ्य एक औज़ार की तरह था। पर्यावरण, आजीविका और स्वस्थ शरीर इसके तीन अंग थे और अच्छे स्वास्थ्य के लिए गांधी जी राम नाम को भी अहम मानते थे। वे बीमारी के इलाज के लिए समस्या की जड़ में जाकर कारण ढूंढते थे। इसलिये वह कैमिस्ट्री में भी बहुत रुचि रखते थे। गाँधी जी मानते थे कि प्राकृतिक चिकित्सा बेहतर है क्योंकि यह बीमारी को उसकी जड़ से खत्म कर शरीर को मज़बूत बना देती है। इस बात का अहसास शायद गाँधी जी को उनके बचपन की स्वास्थ्य संबंधी आदतों व संस्कारों से हुआ है। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में पुस्तकों को पढ़कर अपनी खान-पान और व्यवहार संबंधी आदतों में काफी बदलाव किये। ये सभी बदलाव उन्होंने खुद पर प्रयोगों की कामयाबी के आधार पर किये।

यूरोप और अमेरिका में अब लोगों का रुझान तेजी से परंपरागत देशी चिकित्सा पद्धतियों की तरफ मुड़ रहा है। इसकी वजह है डाक्टरी इलाज से उनका असंतोष और उन देशों के लिये भी स्वास्थ्य व्यवस्था के खर्चे उठाना महंगा हो रहा है। ठीक इसी के समानांतर भारत में भी दोनों प्रवाह  अलग-अलग चल रहे हैं। एक तरफ आधुनिक तकनीकों से लैस इलाज की एलोपैथिक पद्धति से डॉक्टर व अस्पतालों का वर्चस्व बना हुआ है और दूसरी ओर परंपरागत देशी इलाज पद्धतियों और देशज ज्ञान की ओर भरोसा लौट रहा है।

आज पश्चिमी देश दिल की बीमारी, कैंसर और एड्स से जूझ रहे हैं। लेकिन भारत में अभी भी सबसे ज्यादा मौतें मलेरिया, टीबी, निमोनिया, डायरिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों से होती हैं। बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले में चमकी बुखार से बच्चे मर जाते हैं। चमकी बुखार की वजह को लेकर अभी तक कोई स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका है। लेकिन यह तो तकरीबन साफ हो चुका है कि कुपोषण और हीटस्ट्रोक इसकी प्रमुख वजह है। कुपोषण के कारण बच्चों के शरीर में ग्लूकोज़ की कमी हो जाती है और जून के महीने में गर्मी और उमस उनके शरीर में ‘हीटस्ट्रोक’ का कारण बन जाती है। है।

इस समय आप देखें तो देश में स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी सोच बीमे पर आकर केन्द्रित हो गई है। सरकार खुद लोगों, खासकर वंचित वर्ग के लिए बीमे का इंतजाम कर रही है ताकि उन्हें मुफ्त में एक निश्चित धनराशि तक इलाज की सुविधा दी जा सके। लेकिन ज़रा सोचें कि इस पूरी व्यवस्था में बीमारियों से बचाव का वह रास्ता कहां है जो गांधी जी ने दिखाया था।

आज देश में सात लाख से ज्यादा डॉक्टर सेवाएं दे रहे हैं। लेकिन यह भी देखें कि देश के गांव-गांव में 10 लाख से अधिक ‘लोक चिकित्सक’ भी हैं जिन्हें देशज ज्ञान की बदौलत कुछ बीमारियों के इलाज का सदियों पुराना परंपरागत अनुभव है। इन चिकित्सकों की सरकार सहायता नहीं कर रही है। इनका पद्धति स्थानीय वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों और परंपरागत आहार उपचार विधि पर निर्भर होती है। इसमें आचार-विचार के वही नियम हैं जिन्हें गांधीजी मान्यता देते रहे हैं। अगर सरकार इन्हें भी प्रशिक्षित कर स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे में मान्यता दे तो समाज को बीमारियों से बचाव में सक्षम बनाया जा सकता है।

निरोग्य की व्यवस्था की संभावनायें

बड़े अस्पताल, इलाज की आधुनिक तकनीक और डॉक्टरों, नर्सों, तकनीशियनों के रूप में एक भारी-भरकम व्यवस्था भी लोगों को इलाज की मुकम्मल सुविधा नहीं दे पा रही है। यह समस्या केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में है। डॉक्टरों के गलत इलाज से मरने वालों की संख्या जिस कदर बढ़ रही है, उसने ‘डीमेडिकलाइज़ेशन’ की अवधारणा को जन्म दिया है। हालांकि यह सोच 1970 के दशक में ही सामने आ गई थी लेकिन तब तक इसकी वजह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याएं थीं। अब हमारा समाज आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था से विश्वास का रिश्ता खोता जा रहा है। ऐसे में ज़रूरत है गांधीजी के विचार और देशज दृष्टि को जमीन पर अमल में लाने की और इस सोच को ही केन्द्र में रखकर व्यवस्था को फिर दुरुस्त करने की। इसके लिये अनेक कदम लिये जा सकते हैं जिनमें से दो महत्वपूर्ण उदाहरण यहां दे रही हूँ।

क्वालिटी काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने लोक चिकित्सकों के लिए एक स्वैच्छिक सर्टिफिकेशन प्रोग्राम चलाया है। अगर राज्य यह प्रोग्राम अपनायें और आगे बढ़ायें तो लोक चिकित्सकों की सेवाएँ और उनकी क्वालिटी क्या है, वे क्या कर रहे हैं, यह जानकारी भी मिलेगी और इसे आगे बढ़ाने के लिए और क्या योगदान दिया जा सकता है, इसकी जानकारी भी हमारे पास आएगी। इससे कम से कम 10 लाख परंपरागत चिकित्सक जो गांव-गांव में फैले हैं उनको बढ़ावा मिल सकता है। इसे और आगे बढ़ाने के संस्थागत रूप के लिये हर जिले में स्थानीय परंपरागत ज्ञान केन्द्र बनाए जायें जो ‘रिसोर्स सेंटर’ के रूप में विकसित किये जायें। कई ऐसे एनजीओ और सिविल सोसायटी आर्गेनाइजेशन हैं जो देश में कई जगहों पर ऐसे काम कर रहे हैं। उनके उदाहरणों से भी सीखा जा सकता है और उन्हें सरकारी सहायता मिले तो बात आगे बढ़ सकती है।

विकास की हर नीति स्वास्थ्य को केन्द्र में रखकर बनायी जाये तो गाँधी जी के विचार के सब से करीब पहुंचा जा सकेगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नारा आजकल चल रहा है और यूरोपीय देश इसे खासतौर पर अपना रहे हैं – वह है ‘हैल्थ  इन ऑल पालिसीज़’। इसका मतलब यह कि अगर इंडस्ट्रियल पालिसी बननी है तो उसमें हेल्थ का क्या स्वरूप हो सकता है, ऐसी क्या इंडस्ट्री लगे जिससे हेल्थ को बढ़ावा मिले और ऐसा क्या नहीं किया जाना चाहिए जिससे लोगों का स्वास्थ्य खराब हो। इसके लिए इंडस्ट्री मंत्रालय में कम से कम एक नोडल अधिकारी हो जो स्वास्थ्य की नजर से इंडस्ट्री का काम देखे। ऐसे ही कृषि मंत्रालय में इस बात पर विचार हो कि क्या खेती की जाए, क्या उपजाया जाए जिससे कुपोषण खत्म हो। क्या तकनीक इस्तेमाल की जाए कि स्वास्थ्य आगे बढ़े और ऐसी तकनीक उपयोग में न लाई जाए जिससे स्वास्थ्य का ह्रास हो। इसी प्रकार हर मिनिस्ट्री में यह संभव है। कई देश इसे शुरू कर रहे हैं। मुझे लगता है कि अगर कुछ राज्य इसे शुरू करें और खासकर बिहार जैसा राज्य इसकी अगुवाई करे तो यह देश के पैमाने पर एक बड़ा उदाहरण हो सकता है। इन सबके चलते अगर स्वास्थ्य और निरोगी काया को विकास का केन्द्र बनाया जाए तो ही हम गाँधी जी के स्वास्थ्य संबंधी विचारों को जमीन पर लागू कर सकेंगे।

*प्रो. रितु प्रिया सेंटर ऑफ़ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और हेल्थ स्वराज संवाद, (हरित स्वराज) की संयोजक हैं। उपरोक्त लेख पिछले वर्ष गांधी जयंती पर बिहार सरकार और आई टी एम यूनिवर्सिटी के द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित ‘गांधी विचार समागम’ में प्रस्तुत किए गए दो आलेखों पर आधारित है।

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