क्या कहते हैं महात्मा गांधी अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शक के बारे में?

​श्रीमद राजचन्द्र जयंती पर विशेष

गांधी जी की आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक श्रीमद राजचन्द्र (रायचंद भाई) का ज़िक्र विस्तार से आता है लेकिन इसके बावजूद बहुत से लोगों को उनके बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। इसी कमी को दूर करती सुज्ञान मोदी की पुस्तक ‘महात्मा के महात्मा’ की समीक्षा आप इसी वेब पोर्टल पर यहाँ पढ़ सकते हैं। इसी लेख में आपको उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी भी मिल जाएगी। आज श्रीमद की जयंती है और इस अवसर पर हम गांधी जी द्वारा श्रीमद पर दिये गए एक भाषण के संपादित अंश दे रहे हैं जो उपरोक्त पुस्तक में उपलब्ध है और हमें सुज्ञान मोदी जी ने भेजा है। एक रुचिकर तथ्य यह कि यहाँ उद्धृत किया जा रहा गांधी जी का यह भाषण पूरे 100 वर्ष पहले दिया गया था।

जिस पुरुष के स्मरणार्थ हम यहाँ आये हैं उसके हम पुजारी है। मैं उसका पुजारी हूँ। टीकाकार किसी भी दिन पुजारी नहीं हो सकता। इसलिए जिन के मन में टीका का भाव है उनके लिए यह प्रसंग नहीं है। टीकाकार भी शंका-समाधान के लिए नम्र बनकर भले आयें, लेकिन अगर उनका इरादा अपनी  शंका को पोषित करने का हो तो सभ्यता का यह तकाज़ा है कि आज उनका यहाँ कोई काम नहीं है। जगत् में सबको स्वतंत्रता होनी चाहिए। यह सच है कि टीकाकार को जगत में स्थान होना चाहिए, लेकिन भक्त के—पुजारी के—लिए भी ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ टीकाकार न हो और वह अपना कार्य निर्विघ्न सम्पन्न कर सके। इसलिए मैं यह मान लेता हूँ कि आज वही लोग यहाँ आये हैं जिनके मन में कविश्री (श्रीमद राजचन्द्र जी) के प्रति प्रेमभाव है और जो उनके भक्त हैं। ऐसे श्रद्धालुओं को ही मैं कहना चाहता हूँ कि आज के प्रसंग का दूने उत्साह से स्वागत किया जाना चाहिए।

​जिनका पुण्य-स्मरण करने के लिए हम यहाँ इकट्ठे हुए हैं वे दयाधर्म की मूर्ति थे। उन्होंने दयाधर्म को जान लिया था और अपने जीवन में उसका विकास किया था। इस समय हिन्दुस्तान में हम जो काम कर रहे हैं उसमें भी दयाधर्म ही निहित है। यह काम हम रोष से प्रेरित होकर नहीं कर रहे हैं। वस्तुस्थिति ऐसी आ पड़ी है कि हमें रोष के ज़बरदस्त कारण मिले हैं, हमें अत्यन्त आघात पहुँचा है। उस समय भी हमें इस बात का विचार रहा है कि आघात पहुँचाने वाले के साथ हम कैसा व्यवहार करें जिससे उसको आघात न पहुँचे, बल्कि हम कुछ-न-कुछ उसका भला ही करें।

​मैं अनेक बार कह चुका हूँ कि मैंने बहुत सारे व्यक्तियों के जीवन से बहुत-कुछ ग्रहण किया है। लेकिन सबसे अधिक अगर मैंने किसी के जीवन से ग्रहण किया है तो वह कविश्री के जीवन से ही किया है। दयाधर्म भी मैंने उनके जीवन से सीखा है। ऐसा एक भी कार्य नहीं हो सकता जिससे किसी को भी आघात न पहुँचता हो, लेकिन यह आघात दया से प्रेरित होना चाहिए।

​रायचंद भाई ने दयाधर्म का बहुत ही सुन्दर मापदण्ड प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि हम सामान्य मामलों में किसी को व्यर्थ नाराज न करें, दयाधर्म का नाम लेकर दूसरों को छोटी-छोटी बात में टोकने न बैठ जायें, दयाधर्म के इस सामान्य नियम को अगर हम समझ लें तो ऐसी अनेक बातें, जो हमारी समझ में पूरी तरह नहीं आती हम लोक-लज्जावश ही करने लग जाएँ। खादी किसलिए पहनी जाए यह बात मुझे समझ में न आये और मुझे झीनी मलमल अच्छी लगती हो तो भी जिस समाज में मैं रहता हूँ, वहाँ सब खादी पहनते हैं और खादी पहनने में कुछ बुरा नहीं है, कोई अधर्म नहीं है ऐसा समझकर मैं वही करूंगा जो उस समाज में होता है। यह सरल नियम मुझे रायचंदभाई ने ही सिखाया।

​बड़े लोग छोटी बातों में मतभेद नहीं रखते हैं। छोटी-छोटी बातों में जो दया धर्म का बहाना करके मतभेद रखता है, और आत्मा की आवाज़ की बात करता है, उससे मैं कहता हूँ कि उस आत्मा की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती या फिर पशु की तरह उसकी आत्मा सुप्त है। अधिकतर मनुष्यों की आत्मा सम्पूर्ण रूप से जाग्रत हो सकती है। अगर हम निन्यानवे अवसरों पर दुनिया के साथ चलते हों तो सौवें अवसर पर उससे कह सकते हैं कि वह सही नहीं है। जन्म के साथ ही जो दुनिया के साथ वैर बांध लेता है, वह प्रेम कैसे कर सकता है?

​अधिकांश अवसरों पर तो हमें ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए मानो हम जड़ हों। शुद्ध जड़ और चैतन्य में भेद नहीं के बराबर है। सारा जगत जड़ रूप में ही दिखाई देता है, आत्मा तो कभी-कभी ही चमकती है। अलौकिक पुरुष का व्यवहार ऐसा ही होता है और मैंने देखा है कि ऐसा ही व्यवहार रायचंदभाई का था।

​वे अगर आज जीवित होते तो इस समय जो प्रवृत्ति चल रही है उसको उन्होंने जरूर आशीर्वाद दिया होता। इस वस्तु में धर्म है। जिसकी आत्मा में दयाधर्म वास करता है वह इस में पड़े बिना रह ही नहीं सकता। इसमें से राजनैतिक, आर्थिक आदि विषयों के परिणाम तो सुन्दर आयेंगे ही, लेकिन सबसे सुन्दर परिणाम तो यह होगा कि इस प्रवृत्ति से बहुत सारे लोगों का उद्धार हो जाएगा, बहुत सारे मोक्ष के योग्य बन जाएंगे। अगर साल के अंत में हमें ऐसा अनुभव न हो तो मेरे लिए जीना दूभर हो जाएगा।

​वे बहुत बार कहा करते थे कि अगर कोई मुझे चारों ओर से बरछी भोंके तो मैं उसे सह सकता हूँ, लेकिन जगत में जो झूठ, पाखण्ड और अत्याचार चल रहा है, धर्म के नाम पर जो अधर्म किया जा रहा है उसकी बरछी सहन नहीं होती। अत्याचारों पर उन्हें रोष आता था और मैंने उन्हें अनेक बार क्रोधित होते हुए देखा है। उनके लिए सारा जगत् उनका सगा था। अपने भाई अथवा बहन को मरते देख हमें जो क्लेश होता है, उतना ही क्लेश उन्हें जगत में दुःख और मृत्यु को देख कर होता था। अगर कोई कहता कि लोग अपने पाप के कारण दुःख पा रहे हैं, तो वे कहतेः लेकिन उन्हें पाप करना क्यों पड़ा? जब पुण्य को सरल मार्ग नहीं मिलता और बड़ी-बड़ी खाइयों और पर्वतों को लाँघना पड़ता है, तब उसे हम कलिकाल कहते हैं। उस समय जगत में पुण्य बहुत नहीं दिखाई देता, स्थान-स्थान पर पाप ही दिखाई देता है। पुण्य के नाम पर पाप चल पड़ता है। वैसी स्थिति में अगर हम दया धर्म का पालन करना चाहें तो हमारी आत्मा क्लेश से विकल होनी ही चाहिए। हमें ऐसा लगेगा कि ऐसा स्थिति में जीवित रहने की अपेक्षा तो देह जर्जरित हो जाए अथवा उसका अवसान हो जाए, यही ज्यादा अच्छा है।

​रायचंदभाई का इतनी कम उम्र में देहावसान हो गया, इसका कारण भी मुझे यही लगता है। यह सच है कि वे बीमार थे, लेकिन जगत के ताप का जो कष्ट उन्हें था वह उनके लिए असह्य था। अगर उन्हें केवल शारीरिक कष्ट ही होता तो वे जरूर उस पर विजय पा लेते। लेकिन उन्हें लगा कि ऐसे विषम काल में आत्मदर्शन कैसे हो सकता है? यह उनके दयाधर्म का सूचक है।

​यद्यपि खटमल आदि जन्तुओं को नष्ट नहीं करना चाहिए तथापि उनको न मारने तक ही दयाधर्म सीमित नहीं है। उन्हें न मारना धर्म की पहली सीढ़ी-भर है। किसी समय लोगों में ऐसी मान्यता रही होगी कि मनुष्य को बचाने की खातिर किसी भी जन्तु की हत्या करना पाप नहीं है; उस समय कोई साधु खड़ा हुआ होगा और उसने जन्तुओं की रक्षा पर अधिक ज़ोर दिया होगा। इस साधु ने कहा होगा कि ‘मूर्ख! इस क्षणभंगुर देह की खातिर जन्तुओं का नाश न कर। बल्कि तेरे मन में इस बात की आतुरता होनी चाहिए कि यह देह कल नष्ट होता हो तो आज ही नष्ट हो जाये।” और इसी से अहिंसा का जन्म हुआ होगा। लेकिन जो खटमल को तो नहीं मारता परन्तु अपनी स्त्री और पुत्र पर हाथ उठाता है वह व्यक्ति न तो जैन है, न हिन्दू है और न वैष्णव ही है; वह तो शून्य है।

(16 नवंबर, 1921 को अहमदाबाद में राजचंद्र जयन्ती के अवसर पर गांधीजी द्वारा दिए गए भाषण का संपादित अंश)

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