जॉर्ज फर्नांडीस के मायने

विजय प्रताप*

आज सुबह सवेरे श्री जार्ज फर्नांडीस के न रहने से भारतीय राजनीति में समाजवादी संगठन की राष्ट्रीय पहचान का एक दौर पूरा हुआ। अब आने वाली पीढ़ी 1934 में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की विरासत को किस रूप में पुनः अवतरित करेगी, यह प्रश्न भविष्य के गर्भ में छिपा है।

3 जून 1930 को जन्मे श्री जार्ज फर्नांडीस का समग्र मूल्यांकन एक बहुत कठिन चुनौती है। उनके आलोचक जिस वाकये को सबसे ज़्यादा उद्धृत करते रहे हैं वो ये है कि उन्होंने 12 जुलाई 1979 को लोकसभा में मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध बोलते हुए जनता पार्टी का पक्ष जोरदार तरीके से रखा और फिर अगले ही दिन वह चरणसिंह-नीत लोकदल के पाले में चले गये।

इतिहास में नेपथ्य की गतिविधियाँ अपने ढंग और समय से ही दर्ज होती हैं। जार्ज फर्नांडीस की जो सार्वजनिक हैसियत बनी, उसके मूल में निश्चित तौर पर उनका ईमानदार, प्रतिबद्ध, मेहनती, बहादुर और जोखिम लेने के लिए सदा तत्पर और कल्पनाशील मजदूर नेता होना था। हालांकि शायद उतना होना काफी ना होता यदि उन्हें लिमये दंपति का स्नेह-पूर्ण मार्गदर्शन और सान्निध्य ना मिला होता।

श्रीमती चम्पा लिमये का मातृत्व भरा प्यार एवं समाजवादी आन्दोलन के संत पुरुष श्री मधु लिमये द्वारा उनको योजना-पूर्वक मौका देना और उन्हें नेतृत्व की ज़िम्मेवारी मिले, उसमें श्री मधु लिमये की महत्वपूर्ण भूमिका थी। चाहे वह मुंबई के बडे मजदूर नेता श्री डिमैलो के उत्तराधिकारी बनने की बात हो या पार्टी संगठन में समय-समय पर मिली अगुवा भूमिका की ज़िम्मेवारियाँ हों, सभी में श्री मधु लिमये केन्द्र में दीखते हैं।  

1979 में जनता पार्टी के बंटवारे के समय शायद पहली बार उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन में स्वतंत्र रूप से श्री मोरारजी देसाई के साथ खड़ा होना तय किया लेकिन श्री मधु लिमये ने भावनात्मक और राजनैतिक दबाव से उनका यह फैसला पलटवा दिया।

चूंकि सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार के बचाव में दिया गया भाषण असाधारण कोटि का था, इसलिए अपने ही दिये तर्कों के खिलाफ लोकदल में शामिल होने से उनकी काफी जग-हंसाई हुई।

जार्ज साहब के इस फैसले के खिलाफ उनके आवास के बाहर उनके मुख्य चुनाव प्रतिनिधि और समाजवादी विचारक श्री सच्चिदानंद, साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा, सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री श्री जीत पाल सिंह ओबरॉय, सुप्रसिद्ध मानवाधिकारवादी चिन्तक एवम् राजनीति-शास्त्री श्री रजनी कोठारी एवम् समाजशास्त्री श्री धीरूभाई सेठ, श्री जगदीश स्वामीनाथन जैसे विश्वविख्यात पेंटर, इतिहासकार श्री सुरेश शर्मा और दिल्ली प्रदेश युवा जनता के अनेक पदाधिकारी धरने पर बैठे थे।

युवा कार्यकर्ताओं सहित उपरोक्त सभी लोग श्री जार्ज फर्नांडीस को कई मायनों में अपना हीरो मानते थे| विडम्बना है कि श्री जार्ज फर्नांडीस जीवन में पहली बार अपने ही प्रशंसकों के बीच कड़ी आलोचना का केन्द्र बने। अपने कारण नहीं, अपितु अपने राजनैतिक गुरु के कारण।

सहकर्मियों, उनके प्रशंसकों, कार्यकर्ताओं एवं सहयोगियों को दूसरा बड़ा झटका तब लगा जब जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में समता पार्टी एन.डी.ए. का हिस्सा बनी। इस कदम का समाजवादी के नाते कोई बचाव नहीं है। आमतौर पर वामपंथी रुझान वाले इसे केवल श्री जार्ज फर्नांडीस का शुद्ध अवसरवाद मानते हैं|

लेकिन इस बारे में मेरा मानना है कि जहां एक तरफ ये बात सही है कि परिस्थिति के दबाव में अपनी जगह अंगद भाव से न टिकना राजनैतिक रूप से अक्षम्य भूल तो है, वहीं किसी भी ऐसी घटना के मूल्यांकन के समय अन्य पहलुओं को भी नज़र-अंदाज़ नहीं करना चाहिये।

जिन दिनों श्री फर्नांडीस समता पार्टी बना कर जनता दल से अलग हुए, उन दिनों जनता दल में श्री लालू प्रसाद की तूती बोलती थी। पार्टी में श्री फर्नांडीस के खिलाफ श्री लालू प्रसाद और शरद यादव जिस प्रकार गठजोड़ बना कर काम कर रहे थे, उसे नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता।

1995 में बिहार में समता पार्टी को करारी शिकस्त मिली एवं पार्टी ने फिर से जनता दल एवं वामपंथी गठबंधन से रिश्ता बनाने के लिए श्री फर्नांडीस, डॉ. शम्भु शरण एवं डॉ. हरि किशोर सिंह आदि की टीम ने सभी नेताओं से व्यक्तिगत स्तर पर राजनैतिक संवाद किया। लेकिन उस समय लालू जी की हरी झंडी के बिना कोई उनसे बात करने को तैयार नहीं था।

दूसरी ओर 7 अगस्त, 1990 के बाद से ‘सामाजिक न्याय’ और ‘पहचान’ के मुद्दे मुख्य हो गये थे। ऐसे में श्री नीतीश कुमार की चौकड़ी (बृषन पटेल, शिवानंद तिवारी एवं लल्लन सिंह) के सामने श्री फर्नांडीस झुक गये एवं भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हो गये। हालाँकि उनके इस फैसले के कारण 14 में से छः सांसदों ने उनका साथ छोड़ दिया।

यूँ भी जॉर्ज साहब का मूल्यांकन, आरएसएस/भाजपा के आज के कुकृत्यों के सन्दर्भ में करना उचित नहीं होगा। उस समय की आरएसएस/भाजपा आज की आरएसएस/भाजपा की तरह अंधी सत्तावादी और खुलकर फासीवादी ना थी।

यही वो समय था जब सांसद और विधायक की दौड़ में शामिल न रहने वाले अनेक साथियों ने अपने हीरो और जीवन भर ‘नेता’ रहे श्री फर्नांडीस से अलग राह अख्तियार की।  

समता पार्टी में अप्रैल 2006 में श्री नीतीश कुमार के खेमे ने जार्ज साहब को अध्यक्ष पद से हटा कर श्री शरद यादव को अध्यक्ष बनाया। जनवरी 2011 में उनके अल्ज़ाईमर का पता चला और उसके बाद से उनकी राजनैतिक भूमिका समाप्त-प्रायः हो गई।

जार्ज फर्नांडीस के विराट व्यक्तित्व, उनके भारतीय मज़दूर आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलन एवं लोकशाही के बचाव और संवर्द्धन, नागरिक अधिकार आन्दोलन, नेपाल, बर्मा, तिब्बत, बांग्लादेश आदि के लोकतान्त्रिक संघर्षों में उनके योगदान का मूल्यांकन उपरोक्त दो-तीन बिन्दुओं के आलोक में नहीं हो सकता।  

आशा करनी चाहिये कि डॉ. राहुल रामागुडम, जो जार्ज साहब की जीवनी पर काम कर रहे हैं- उनकी पुस्तक आने वाली पीढ़ी को उनके प्रेरणादायी पक्षों को उजागर कर सकेगी।  

*विजय प्रताप अपने छात्र जीवन से ही (1969 से) समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे हैं। जनता दल से अलग होने पर जब समता पार्टी का गठन हुआ तो जॉर्ज साहब ने विजय प्रताप को उसका राष्ट्रीय सचिव बनाया किन्तु जब उन्होंने ने एनडीए में शामिल होने का निर्णय किया तो विजय ने समता पार्टी (सेकुलर) को चुना और उसके राष्ट्रीय महासचिव हो गए।

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