कुछ बड़ी चिंताएँ

आखिरी पन्ना उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के दिसम्बर 2022 अंक के लिए लिखा गया है।

आखिरी पन्ना (दिसंबर 2022)

जब तक यह अंक आपके हाथों में होगा, दिसंबर शुरू हो गया होगा अर्थात 2022 का भी आखिरी महीना – वर्ष की प्रमुख घटनाओं का मूल्यांकन तो हम अगले अंक में करेंगे किन्तु इस बार आपसे एक चिंता बांटेंगे। फिलहाल बात यहाँ से शुरू करें कि इक्कीसवीं शताब्दी शुरू होने के भी कुछ बरस पहले जो प्रवृत्तियाँ शुरू हुईं थीं, उनकी गति अब बढ़ गई है। इन प्रवृत्तियों को आप किसी भी चश्मे से देख सकते हैं – और उसी आधार पर उनका वर्गीकरण अच्छी या बुरी, या फिर उनके अलग-अलग शेड्स के रूप में कर सकते हैं। हम उदाहरणों में नहीं पड़ेंगे क्योंकि आई. टी. क्षेत्र की क्रांति से लेकर जलवायु परिवर्तन के बीच सैंकड़ों ऐसे उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जिनके अच्छे-बुरे परिणामों से हम रोज़ ही रु-ब-रु होते हैं।

फिर हम इस सीमित से स्कोप के आखिरी पन्ना स्तम्भ में आखिर क्या कहना चाहते हैं। सच कहें तो जब चिंता होती है तो लगता है कि किसी से बाँट लें और ऐसी चिंताओं को बांटने के लिए पाठकों से ज़्यादा अपना कौन होगा? और फिर ये चिंता कोई व्यक्तिगत चिंता तो है नहीं, जिसे कहते कोई झेंप या झिझक महसूस हो। ये तो समाज और देश की चिंता है जिसे कुछ लोग शौकिया तौर पर भी करते हैं। ये शौकिया चिंता वाले सिर्फ राजनीति में नहीं होते (ये हो सकता है कि वहाँ अनुपात में कुछ ज़्यादा होते हों) बल्कि ये समाज के हर वर्ग में होते हैं, हर राज्य और हर देश में होते हैं।

वैसे चिंताएँ तो आपको भी होती होंगी – फिर से याद दिला दें कि व्यक्तिगत चिंताओं की नहीं, देश और समाज की बात कर रहे हैं बल्कि विश्व की भी। तो आज महँगाई, बेरोजगारी, कम होते जा रहे पानी और बिजली, स्वास्थ्य सुविधाओं संबंधी चिंताएँ (बढ़ते हुए रोग और घटती हुई सुविधाएं), बच्चों की शिक्षा संबंधी चिंताएँ (कॉलेज तो क्या स्कूल में भी मुश्किल होते दाखिले) यानि आज शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, और अर्थव्यवस्था पर बात नहीं होगी। आज हम चर्चा करेंगे वैश्विक चिंताओं की जो एक तरह से व्यक्तिगत चिन्ताओं से भी जुड़ी होती हैं लेकिन उनका तात्कालिक स्वरूप ऐसा होता है कि आम-जन उनसे अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाता। हो सकता है कि कभी-कभी उन मुद्दों को (कुछ लोगों की नज़र में) बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता हो लेकिन उस कारण से उन खतरों को और उनसे उत्पन्न चिंताओं को पूरी तरह दरकिनार तो नहीं किया जाना चाहिए।

ऐसी चिंताओं में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा सबसे ज़्यादा चर्चित है। सच कहें तो इस स्तंभकार को कोई खास उम्मीद नहीं कि इस विषय पर जितना करने की ज़रूरत है, उसका चौथाई भर भी हो पाएगा। इस वर्ष के शुरुआत में आई संयुक्त राष्ट्र संघ की IPCC रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत उन देशों में है जिन्हें जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा आर्थिक नुकसान होगा। भारत के लिए अनुमान है कि बाढ़ों की विभीषिका बढ़ेगी, गरम हवाओं के बढ्ने से फसलों का पैटर्न भी बदलेगा और कृषि-उत्पादन में ख़ासी कमी आएगी और इससे ना केवल किसानों की आय मे कमी आएगी बल्कि गरीब लोगों की पहुँच में आने वाले खाद्यान भी कम हो जाएंगे, देश के कई हिस्सों में पीने का पानी का पहले से भी कम हो जाएगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि राष्ट्रीय संसाधनों पर बोझ बहुत बढ़ेगा और मध्यम-वर्ग जो आज आंखे मूँदे खड़ा है, वह भी इससे होने वाले कुपरिणामों को भुगतेगा।

अब आप पूछ सकते हैं कि मेरे और आप जैसे लोग इसमें क्या कर सकते हैं? अपनी सरकारों को अपने वोट की ताकत के जरिये तो पर्यावरणीय मुद्दों पर ध्यान देने को जितना मजबूर कर सकते हैं, करना ही चाहिए लेकिन इसके अलावा हमें अपने व्यक्तिगत आचरण में कुछ चीज़ें उतारने का प्रयास करना चाहिए जैसे पानी की एक-एक बूंद बचाइए – मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझे करीब ढाई दशक पहले बताया था कि वह आधी बाल्टी पानी से आराम से नहा लेता है, मैं भी उसके बाद से आधी बाल्टी से तो नहीं लेकिन पौनी बाल्टी से नहाने की कोशिश करता हूँ। फिर हमें हर तरह से ऊर्जा बचानी चाहिए। ठीक है, हम बिजली का बिल भरते हैं लेकिन हमारे द्वारा उपभोग की जा रही बिजली को बनाने में जितनी पर्यावरणीय लागत आती है, क्या उसका मूल्य हम कभी चुका सकते हैं? इसी तरह हमारी हर एक्टिविटी की कोई ना कोई ऊंची पर्यावरणीय लागत होती है जिसका मूल्य हम नहीं चुकाते – यह बात मध्यम-वर्ग और उच्च-वर्ग पर खास-तौर पर लागू होती है क्योंकि उनका उपभोग का पैटर्न काफी गैर-जिम्मेवारपूर्ण होता है।

बड़ी चिंताओं में एक और है जिसका ज़िक्र ज़रूरी है और वह है युद्ध की विभीषिका – रूस और यूक्रेन के बीच महीनों से चल रहे युद्ध ने इस खतरे को बहुत यथार्थ रूप में विश्व के सामने खड़ा कर दिया है। इस युद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि परमाणु-बम का इस्तेमाल कोई किताबी बात नहीं है और कभी ना कभी ये सच भी हो सकता है। रूस और यूक्रेन का युद्ध ही इसका कारण बने, ये ज़रूरी नहीं – इसकी कई परिदृश्यों पर चर्चा होती रहती है और संभावित परिदृश्यों में हम और हमारे पड़ोसी भी शामिल होते हैं। गांधी कुछ लोगों को अव्यावहारिक लगते हैं किन्तु दुनिया भर से सभी हथियार खत्म हों, उनकी इस बात को मानना ही होगा – इससे पहले कि दुनिया हथियारों के कारण समाप्त हो।

अन्य बड़ी चिंताओं पर भी बात होनी चाहिए जैसे कि पूरी दुनिया में लोकतन्त्र कमजोर हो रहा है, सत्ताएं निरंकुश हो रही हैं, धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है, दूसरे वर्गों के प्रति नफरत बढ़ रही है और इन सबके साथ-साथ आर्थिक असमानता भी बढ़ रही है। इन सब पर इस स्तम्भ में और पत्रिका में तो चर्चा होती ही रहेगी। आपको आपस में भी ऐसे विषयों पर चर्चाएँ करनी चाहिएं और अपने से भिन्न विचारों को, अपने से अलग राय रखने वालों को धैर्य-पूर्वक सुनने-समझने की आदत बनानी चाहिए। यह स्तंभकार भी ऐसा प्रयास करेगा।

…….विद्या भूषण

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