क्या अध्यादेश से चिकित्साकर्मी सुरक्षित हो जाएंगे?

पार्थिव कुमार*

कोविड 19 की वैश्विक महामारी का मुकाबला करने में डॉक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों का किरदार सबसे अहम है। वे दवाओं, उपकरणों और अन्य संसाधनों की घोर तंगी के बावजूद अपनी जान की परवाह किये बिना इस रोग के पीड़ितों का इलाज कर रहे हैं। ऐसे में देश के विभिन्न हिस्सों में उन पर हमले बेहद चिंताजनक और गंभीर मसला हैं। इसलिये डॉक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों पर हमलों को रोकने के लिये एक अध्यादेश के ज़रिये महामारी कानून में संशोधन करने के सरकार के फैसले की सराहना की जानी चाहिये। लेकिन बदकिस्मती से सरकार ने इस समस्या के कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरंदाज कर दिया है। ऐसा लगता है कि सरकार के इस कदम का फौरी मकसद डॉक्टरों पर हमलों को रोकने से ज्यादा भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) के आंदोलन से निजात पाना रहा होगा।

23 अप्रैल से लागू अध्यादेश में चिकित्साकर्मियों पर हमलों को संज्ञेय और गैर—जमानती अपराध घोषित किया गया है। इस तरह के मामलों के दोषियों के लिये अधिकतम सात साल कैद और ज्यादा-से-ज्यादा पांच लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान किया गया है। अध्यादेश के प्रावधानों के अनुसार इस तरह के मामलों की जांच 30 दिनों के अंदर पूरी कर ली जायेगी और अंतिम फैसले के लिये साल भर की समय सीमा होगी।

सरकार के अनुसार इस अध्यादेश का मकसद मौजूदा वैश्विक महामारी जैसे हालात में स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ हिंसा और संपत्ति के साथ तोड़फोड़ पर पूरी तरह अंकुश लगाना है। स्वास्थ्य मंत्री डा0 हर्षवर्द्धन ने कहा, ‘‘स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ नाराजगी के इजहार के मामले सामने आ रहे हैं। उन्हें प्रताड़ित किये जाने, उनके खिलाफ हमलों और संपत्तियों के साथ तोड़फोड़ की रिपोर्टें रोजाना मिल रही हैं। इस अध्यादेश के लागू होने के बाद अब स्वास्थ्यकर्मियों पर हमलों और संपत्ति को नुकसान पहुंचाये जाने को हरगिज बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।’’

इस अध्यादेश के लागू होने के बाद आईएमए ने डॉक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों पर हमलों के विरोध में अपना आंदोलन वापस ले लिया है। लेकिन कई डॉक्टर मानते हैं कि इस तरह के आधे-अधूरे उपायों से चिकित्साकर्मियों के खिलाफ हिंसा को पूरी तरह रोकना मुमकिन नहीं होगा।

प्रोग्रेसिव मेडिकोज एंड साइंटिस्ट्स फोरम (पीएमएसएफ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा0 हरजीत सिंह भट्टी ने कहा, ‘‘डॉक्टरों पर हिंसा के खिलाफ 16 राज्यों में पहले से ही कानून हैं। हम केन्द्रीय कानून के लिये अध्यादेश लाये जाने का स्वागत करते हैं। लेकिन समझा जाना चाहिये कि अक्सर आधारभूत सुविधाओं की कमी का खामियाजा हम डॉक्टरों को भुगतना पड़ता है। अगर आधारभूत सुविधाओं में निवेश नहीं बढ़ाया गया तो यह अध्यादेश हमारे हाथों में झुनझुना साबित होगा। इसे लागू करना एक बड़ी चुनौती होगी जिसके लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।’’

कई डॉक्टर मानते हैं कि पुलिस और न्यायपालिका भी उनके प्रति बहुत संवेदनशील नहीं है। डॉक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों के खिलाफ हमले रोकने के लिये यह अध्यादेश काफी नहीं है। जरूरत इस बात की भी है कि चिकित्सा सेवा में निवेश बढ़ाया जाये। अस्पतालों में दवाओं और उपकरणों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित की जाये। इसके अतिरिक्त यह जागरूकता बढ़ाने के उपाय भी किये जाने चाहिये कि संकट की इस घड़ी से उबरने के लिये रोगियों का चिकित्साकर्मियों के साथ सहयोग करना बेहद जरूरी है।

कोविड 19 की इस वैश्विक महामारी से निजात पाने के लिये दिन-रात लगे डॉक्टरों को दवाओं, जांच किट, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) और अन्य आधारभूत सुविधाओं की भयंकर तंगी का सामना करना पड़ रहा है। इससे इलाज करने की उनकी क्षमता प्रभावित होने के अलावा उनकी जान पर जोखिम भी बढ़ गया है। वास्तविक स्थिति से नावाकिफ रोगी अस्पताल में पर्याप्त देखभाल नहीं मिलने पर इसके लिये अक्सर डॉक्टरों को जिम्मेदार मानने लगते हैं।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डा0 भट्टी ने कहा, ‘‘किसी भी मरीज की डॉक्टरों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं होती। दरअसल वह संसाधनों के अभाव के लिये डॉक्टरों को जिम्मेदार ठहराने की भूल कर बैठता है। अगर संसाधनों की आपूर्ति नहीं बढ़ायी गयी तो मैं डॉक्टरों की स्थिति में नाटकीय बदलाव को लेकर बहुत आशान्वित नहीं हूं।’’

कोविड 19 का भारत में गैर-सरकारी और सरकारी तौर पर जिस तरह से साम्प्रदायीकरण किया गया उससे भी डॉक्टरों का काम मुश्किल हो गया है। इस वजह से कम शिक्षा वाली गरीबों की बस्तियों में लोग पुलिस के अलावा डॉक्टरों को भी संदेह की निगाह से देखने लगे हैं। अनेक कोरेंटीन सेंटरों की नारकीय स्थिति और उनमें चारों तरफ मौजूद अव्यवस्था के बारे में जानकारियां सामने आयी हैं। इन सेंटरों में संदिग्ध रोगियों के लिये मास्क, साबुन, स्वच्छ पेयजल और भोजन तथा साफ शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। इसलिये इस बीमारी के लक्षण वाले लोग कोरेंटीन सेंटर में जाने से हर कीमत पर बचना चाहते हैं। जांच के लिये गरीबों की बस्तियों में जाने वाले चिकित्साकर्मियों के दलों पर ज्यादातर हमलों की वजह भी यही है।

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। देश के डॉक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों की निस्वार्थ सेवा पर हमें बेशक गर्व करना चाहिये। लेकिन इस वैश्विक महामारी के दौरान ही भारत में चिकित्सा सेवा में साम्प्रदायिक आधार पर भेदभाव के कई बेहद चिंताजनक मामले सामने आये हैं। कुछ अस्पतालों ने एक खास समुदाय के रोगियों का इलाज करने से मना कर दिया। उत्तर प्रदेश के एक कैंसर अस्पताल ने तो बाकायदा एक अखबार में विज्ञापन देकर कहा कि उसमें मुसलमानों का इलाज तभी किया जायेगा जब वे कोविड 19 से संक्रमित नहीं होने की जांच रिपोर्ट साथ लायें।

कानून बना भर देने से सरकार का काम पूरा नहीं हो जाता। किसी भी कानून पर सख्ती से अमल सुनिश्चित करना भी उसकी ही जिम्मेदारी होती है। सरकार ने तीन प्लाई के मास्क का 10 रुपये और सैनिटाइजर का 500 रुपये प्रति लीटर अधिकतम खुदरा मूल्य निर्धारित किया है। लेकिन उसके इस फैसले का शायद ही कहीं पालन किया जा रहा है। इसी तरह मीडिया में आयी रिपोर्टों के अनुसार कई निजी अस्पताल कोविड 19 की जांच के लिये निर्धारित 4500 रुपये की अधिकतम मूल्य सीमा का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं। ऐसे में डॉक्टरों का यह संदेह वाजिब है कि कहीं यह अध्यादेश भी दिखाने के दांत बन कर ही नहीं रह जाये।

सिर्फ महामारी के दौरान ही नहीं बल्कि सामान्य समय में भी डॉक्टरों और मरीजों के बीच आपसी विश्वास का रिश्ता होना बहुत जरूरी है। उनके हितों को एकदूसरे के खिलाफ नहीं रखा जाना चाहिये। यह सुनिश्चित करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है कि देश के हर नागरिक को जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं बिना किसी भेदभाव के और उचित मूल्य पर मिलें। संसाधनों की कमी अक्सर आपसी कड़वाहट को जन्म देती है। डॉक्टरों और मरीजों के आपसी विश्वास को मजबूत करने के लिये सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार तथा जरूरी दवाओं, उपकरणों और अन्य सुविधाओं की पर्याप्त आपूर्ति जरूरी है। संकट की इस घड़ी में मुनाफाखोरी करने वाले निजी तथा कॉरपोरेट अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिये भी सार्थक कदम उठाये जाने की जरूरत है।

*पार्थिव लंबे समय तक यूएनआई से जुड़े रहने के बाद अब स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। ईमेल : [email protected]

1 COMMENT

  1. सही नब्ज पकड़ी है। अपराध के फाउंटेन हेड को छुपाते हुए, कभी डॉक्टर और मरीज को एक-दूसरे के खिलाफ विलेन बनाने का ये खेल है और कई स्तर पर चल रहा है। भय और घृणा को गहरे उतारा जा रहा है ताकि जो जिम्मेदार हों उन्हें जिम्मेदारी से मुक्ति मिले, मसीहाई मिले और लोगों के घृणा के खेल में उलझाव के दौरान घातक सत्ता और धन बटोरने का अबाध अवसर मिले।

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