खंडहर
नष्ट करो मुझे पूरा
आधा नष्ट अपमान है निर्माण का
मेरा पुनर्निर्माण मत करना
मत करना मेरे कंगूरों पर चूना
आधे उड़े रंग वाले भित्तिचित्र ध्वस्त करना
ले जाने देना चरवाहे को मेरी अंतिम ईंट
मत बताना उसे वह किस शताब्दी की थी
मेरे झूलते दरवाजों पर रख देना दीमक से भरी लकड़ी
मकड़ियों के जालों से एहतियात बरतना
आखिर में मेरे साथ पूरे खिले फूलों सा बर्ताव करना
मुझे हरियाली के हवाले कर पलट कर मत देखना।
रीत गया सब कुछ
मैंने जला डाले प्रेमपत्र
फाड़ दी कविता से भरी डायरी
पुराने परिचितों के डाक के पते मिटा दिए
काली स्याही पोत कर
वो फोन नम्बर अब कहीं नही है
नहीं रहे रंग उड़े विज़िटिंग कार्ड
आख़िर अब कौन रखता है यह सब
याद और चिन्ता का क्या अचार डालना है
ढूँढना अब नाकाफ़ी व्यायाम है
इंतज़ार एक गयी बीती क्रिया
क्या सीख चुके हो पड़े रहना?
यह समय त्वरा का है
सब कुछ त्वरा में हो
जैसे एक नौजवान भूत जीवन में घुसता जा रहा है ऐसी त्वरा।
मूर्खता जैसी त्वरा
बर्बाद करने की इच्छा जैसी त्वरा
गोली नहीं , उसे दागने की त्वरा
तुम्हारी देह उड़ेगी तड़ितगति से भविष्य की ओर
सूर्य से आगे
और पतंगे की तरह जलती हुई गिरेगी धरती से थोड़ा ऊपर
त्वरा अच्छी है
बशर्ते
पड़े रहना सीख चुके हो।
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अजन्ता देव हिन्दी कविता जगत की एक सुपरिचित नाम हैं। लगभग चालीस वर्षों से लगातार लिख रहीं हैं । उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – राख का किला, एक नगरवधू की आत्मकथा, घोड़े की आँख में आँसू और बेतरतीब। अभी कविता शृंखलाओं पर काम कर रहीं हैं।