एक समाज-कर्मी की दो कवितायें

गौरी डे *

पेड़ का धर्म

पेड़ एक, जड़ अनेक
बढ़ता है पेड़
और बढ़ती हैं टहनियाँ भी

बढ़ा हुआ पेड़ छाया देता है
और वो जैसे उस छाया में खड़ी

ओक भर सांस पी लेती है।
पत्तों की सरसराहट से

वो अब सिहरती नहीं

बल्कि उनसे छन कर आई बयार से
उसका उद्वेलित मन शांत ही होता है!
खुशी, रंग, महक,
फल, फूल,
पत्ते और छाया,
कितना कुछ मिलता है उसे पेड़ से।

वह सोचती है कि
क्यों नहीं पेड़ यह सोचता
कि मेरे पत्तों का रंग क्या है,
या फिर ये कि धर्म क्या है मेरा?
क्यों नहीं सोचता पेड़ कि

मेरा कौन सा फल अच्छा या कौनसा बुरा?

और फिर

फल, फूल, पत्ते
इतनी सारी राहत और खुशी देकर
मुरझा जाते हैं!
तब एक नंगा पेड़ अकेला रह जाता है
पक्षी, तितलियां नई जगह तलाश करते हैं
लेकिन हम इसमें कहाँ है?
पेड़?
तितली?
पक्षी?
पत्ता?
या इनमें से कोई भी नहीं?

मेरे दोस्त

मेरे कुछ दोस्त हैं
कुछ अच्छे कुछ बहुत अच्छे

हैं वो सब मिले-जुले
तरह तरह के मिजाज़ वाले
दुबले, पतले, सीधे-जटिल
मेरे कुछ दोस्त हैं

उनके  मन में  संगीत है छंद है
प्यार की भीनी सुगन्ध है
अलग-अलग द्वंद है
मेरे कुछ दोस्त हैं

उनके कुछ सपने हैं
सपनों में कुछ आशाएं हैं

उदासी और बेहाली भी है

आस और निराश के बीच झूलते  
मेरे कुछ दोस्त हैं

कुछ की बातें अजब-निराली

तो कुछ हैं बिलकुल निपट मवाली

कुछ हँसाते तो कुछ रुला जाते

कुछ रूठते तो कुछ मनाते

पर अपने सब दोस्त हैं

मेरे कुछ दोस्त हैं!

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*गौरी डे मूलत: एक समाजकर्मी हैं और एक गृहिणी भी। अपनी युवावस्था में गरीबों और वंचितों के बीच दिल्ली, महाराष्ट्र और झारखंड में काम कर रहे विभिन्न समूहों के साथ गौरी ने कुछ समय काम किया और फिर काफी लंबे समय तक दिल्ली में अलारिपु नामक एक थिएटर ग्रुप के साथ जुड़ी रहीं हैं और अभिनय, गायन और नाटकों के प्रदर्शन और प्रशिक्षण में सक्रिय हिस्सेदारी की है। हिंदुस्तानी संगीत में दिल्ली की संगीत भारती संस्था की स्नातक गौरी की लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत में गहन  रुचि है। वह बंगला और हिन्दी के साथ-साथ मराठी और हो भाषा में भी गा सकती हैं। आजकल अपने पति और एक बिटिया के साथ बेंगलुरु में रह रही हैं।




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