कर्नल अमरदीप की दो नई कवितायें

कर्नल अमरदीप* इस वेबपत्रिका के लिए नए नहीं हैं। आप पहले भी उनकी कवितायें यहाँ देख सकते हैं। आज प्रकाशित की जा रही ये दोनों कवितायें सुकोमल अनुभूतियों की खूबसूरत अभिव्यक्ति हैं। पहली कविता को, जो सम्बन्धों को परिभाषित ना करने का आग्रह सी करती लगती है, पढ़ते समय मुझे अज्ञेय की ये पंक्ति याद आई – “मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा”! कर्नल अमरदीप को हमने तैयार कर लिया है कि वह जल्दी ही अपने प्रोफेशन से संबंधित विषय यानि रक्षा एवं भौगोलिक सुरक्षा पर भी इस वेब पत्रिका के लिए स्तम्भ लिखना शुरू करेंगे। फिलहाल आप इन दिल को छूती कविताओं को देखिये।

सम्बन्ध

तुम मेरी
कुछ नहीं लगती
प्रेम के लिए
कुछ लगने की अनिवार्यता
है भी नहीं

तुम मुझे
अच्छी लगती हो
सिर्फ आँखों को अच्छा लगने से
अलग है ये अच्छा लगना
कि तुम्हें देख कर
अनायास मुस्कुरा देता हूँ मैं

स्पर्श से प्रेम को आंकना
प्रेम के साथ अन्याय है
स्पर्श प्रेम है
पर पूरा प्रेम नहीं
सिर्फ फल, पत्ता, डाली या जड़
नहीं परिभाषित करते
वृक्ष को

इसलिए स्पर्श की
कामना रखते हुए भी
तुम्हारे अच्छे लगने से
बहुत कुछ परे रखा है मैंने
प्रेम को सिर्फ
चाहत या अकुलाहट होने से
बचा लिया है मैंने

इस लिए
तुम मेरी कुछ नहीं लगती
जो सब कुछ हो
उसे सिर्फ कुछ कह कर
संकीर्ण हो जाएगा
सम्बंध का ये अथाह दायरा

तुम मेरा आकाश हो
दिन वाला नहीं
जो सिर्फ क्षितिज तक है
बल्कि रात वाला
असंख्य तारों से जड़ा
जिसे कल्पना से
और भी विस्तार
दे दिया है इस कविता ने।

देहरी और माँ

माँ नहीं जानती थी
कि पहाड़ के पार क्या है
वो सिर्फ जानती थी
पहाड़ को जाती हुई सड़क को
पर उसे पता था
कि उसका बेटा
एक दिन जाएगा उस पार
और ले आएगा उसके लिए
अद्भुत, नए सपनों का संसार

माँ देहरी से बाहर नहीं निकलती
आखिरी बार जब निकली थी
तो अकेली दवा लाने को
बेटे का जब उतर नहीं रहा था बुखार
तब गली से बाहर जाकर
देखा था डॉक्टर को ढूँढते ढूँढते
माँ ने गौर से वो पहाड़
और ठान लिया था कि बेटा
जैसे भी हो उस पार जाएगा

माँ ने कोई किताब नहीं पढ़ी थी
पर दुनिया भर की खबर होती थी हमेशा
बेटों के लिए जो कुछ भी नया
हो रहा था ईजाद
अपने बेटे के लिए मन ही मन कर ली थी
माँ ने उसकी फरियाद
माँ का ईश्वर पहाड़ के इस ओर जो बसता था

इस तरह माँ के सपनों, संकल्पों और दुआओं के बीच
बेटे ने दर्ज कर लिया
ईश्वरीय रजिस्टर में अपना नाम
और सिर्फ अपने शहर का पहाड़ ही नहीं
कई पहाड़ों और समुद्रों के पार से
वो ले आया है सुनहरी ऊन के
बड़े बड़े गोले
जिन्हें बातों की सलाइयों पर चढ़ा कर
पूरे मोहल्ले में घूम घूम कर
बुना करती है माँ बेटे के लिए
एक अदृश्य स्वेटर

माँ अब पहाड़ की ऊँचाई नाप चुकी है
वो अब कल की चिंता नहीं करती
अब वो देहरी से नहीं डरती।

*******

*भारतीय सेना की अग्रिम पंक्ति में 25 वर्ष की सक्रिय सेवा के बाद 2018 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर देहरादून में रह रहे कर्नल अमरदीप सिंह बहुत कम आयु से ही कविताएँ  लिखने लगे थे। कश्मीर से लेकर सियाचिन और मणिपुर तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना के हिस्से के रूप में उत्तरीअफ्रीका तक में सक्रिय सेवा देने के बावजूद उनकी कविता कहीं  रुकी नहीं और पहले संग्रह “खुद से मुलाकात” (2007, समय प्रकाशन, नईदिल्ली) सहित अब तक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कविता के अलावा विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं में साहित्य एवं सैन्य विषयों पर निरंतर लेख लिखते रहते हैं। आल इंडिया रेडियो , दूरदर्शन तथा निजी टीवी चैनलों पर भी विशेषज्ञ के तौर पर आमंत्रित किए जाते हैं। कर्नल अमरदीप के ब्लॉग : soldierwithapen.blogspot.com, www.soldierspeaks.wordpress.com

बैनर इमेज : किशन रतनानी

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