कुछ है : उम्मीद की एक कविता

धीरज सिंह*

कुछ है जो
मुँह बाये खड़े ह्रास के बीच भी
अपने शिल्प की ज़िद सींचता रहता है

कुछ है जो
अंत के नंगे सच पर
हसरतों का कोहरा बुनता रहता है

कुछ है जो
विद्रूप झूठ के बियाबान पर
एक सच की झपकी की तरह छाता रहता है

कुछ है जो
नफ़रत के मक़बरों पर
प्यार की ग्रफ़ीटी लिख भागता रहता है

कुछ है जो
आत्महीनता के प्रेतों को
उदार स्थिरता की अफ़ीम चटा भागता रहता है

कुछ है जो
मेरी झुर्रियों में
प्यार और जीवन उकेरता रहता है

ज़रूरत है
ज़िद करके
झुँझलाते पागलपन में भी
उस कुछ को सहेज कर पुचकार देने की
अपनी और उसकी
झिझकी सी वाकफ़ियत को
एक पक्का मकान देने की

क्योंकि वो कुछ
शर्त है
उम्मीद है
हमारे हम होने की

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*धीरज सिंह सिविलसर्विस अधिकारी हैं। आप उनकी कवितायें इस ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं। http://nervouscravings.blogspot.com/?m=1

वह आधुनिक क्ला, संगीत, फिल्मों और टेलीविज़न पर भी काफी लिखते रहे हैं। इन विषयों पर उनका अलग ब्लॉग है : http://modernartists.blogspot.com/?m=1

बैनर इमेज : प्रवीणा जोशी (http://kukoowords.blogspot.com/)

2 COMMENTS

  1. यह जो कुछ है ना…..
    वही प्रेम है
    प्रेम को प्रेम ही रहने दो
    व्यापार के लिए और बहुत कुछ है….
    यह कब आता है और कब जाता है
    इसका हमें भान ही नहीं हो पाता…..

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