मत्स्य पीड़ा, प्रेमांकुर और अन्य कवितायें

पारुल बंसल*

प्रेमांकुर

ऐ फौलादी जिगर के स्वामी!

 हृदय की गागर को

 रीता कर देना

 मेरे वियोग में…

 यह पितृसत्ता को चोटिल नहीं करेगा

 अन्यथा गिरह बन जाएंगी 

और कभी नहीं पनपेगा

 नव प्रेमांकुर।

मत्स्य पीड़ा

सागर के इस खारे जल की गुनाहगार
वो अनगिनत मछलियां हैं
जिनके क्रंदन ने समस्त समंदरों के जल को
खारयुक्त कर दिया …

हे मत्स्ये! तुम्हारे दुःख का
अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है
इतनी वेदना देने वाले को कभी कोसा नहीं
क्या अश्रुओं से आए उफान ने
कभी उनके घर को डुबोया नहीं …

क्यूं तुमने अपने अश्रु
शिव की जटाओं से नहीं बांधे
जो उनके क्रोध में धधककर
वो उड़ जाते भाप बन ….

नहीं होता जल खारा पयोधि का
तुम्हें नहीं सहना पड़ता
यह दंश बार -बार
हां हर बार …

हृदय रुदन

विचारों के पोखर में
गोते लगा रहा है वो
तर्जनी का नाखून कुतरते हुए
लील रहा है उस स्याह रात की घटना को…

खून के घूंट के साथ
गले में फांस सी अटका है
उसका करुण स्वर
ना निगला जाए ना उगला…

उनींदा सा होकर जा बैठा
घास -फूस से भरे कोने में ,चबूतरे पर
श्रवण द्वार को ढांक देना चाहता है
बड़ी सी शिला से
जो हो जाती है क्षण में खंड -खंड …

सात कोठे भीतर से उठती
उस युवती की चीत्कार से
जो भेद रही है मुझे
मैं बधिर हो जाना चाहता हूं।

उपनाम देह

मंझी कलाकार
बोली नानी,
अरी ओ सयानी!
काठ की बकसिया तो ला …
भरी हैं
नमक, लाल मिर्च, हल्दी,
धनिया ,हींग और जीरा…

नमक स्वादानुसार या अलोना
हल्दी कम तो रंग रूप हीन
लाल मिर्च कम तो रौनक ना चटपटी
खटाई कम चटखारे नहीं
हींग बिना सुगंध हीन
धनिया बिना जंचाव नहीं…

पोपले श्री मुख से
उगली आग तीखी और धधकती
यह देह मसालेदानी ही तो है
जिसे रोज वक्त की हांडी में
गिरकर…
पककर…
सुरुचिपूर्ण
बनना ही होता है…..

*पारुल हर्ष बंसल मूलत: वृन्दावन से हैं और आजकल कासगंज में हैं। इनकी कवितायें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल्स पर प्रकाशित होती रही हैं। स्त्री-अस्मिता पर कविताएं लिखना इनको विशेष प्रिय है। इनकी कवितायें पहले भी इस वेबपत्रिका में पढ़ चुके हैं।

आवरण तस्वीर : किशन रतनानी

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