पारुल बंसल की नई कविताएं

*स्त्री बनाम पुरुष*

क्या सच में ही मिला है

पुरुषों को विरासत में

पहाड़ सा धैर्य और पत्थर सी कठोरता?

क्या सच में जानते हैं वे

लकीर खींचना पत्थर पर

और तुम जानती हो सिर्फ उसका अनुसरण करना

इसी लिए स्त्री

तुम्हें मिली है विरासत में

दर्द को ओक लगाकर पीने की कला

और हाँ

इसीलिए शायद ईश्वर ने

गर्भाशय का रोपण भी

तुम्हारी ही देह में किया……

***********

 *स्वाद मृत्यु का*

नहीं चखा स्वाद जो

 आज तक बस एक ही है 

और वो है मौत का !

इसकी कल्पना भर से

 हम सभी खौफ खाते हैं 

कभी कभी अपनी से ज़्यादा

अपने करीबियों के चले जाने का!

जब इसका आस्वादन

 हम सभी को करना है 

तो फिर कैसा मुंह फेरना और क्यों? 

और फिर क्या कोई जाते वक्त 

इसके बारे में विस्तार से बता पाएगा 

कि हम सभी इसे सहजता से 

अपना सकें!

 परंतु जाने से पहले चख लेना

 पहाड़ों का सीना चीरकर

 गिरते झरने को

 सुन लेना उसकी व्यथा !

चख लेना चूल्हे पर सिकती

 सोंधी महक वाली रोटी उस गरीब की

 कोशिश करना करेले में 

मीठी- मीठी बातें भरकर

 उसे पकाकर खाने की !

 थाम लेना हाथ उस असहाय का

 जिसकी प्रार्थना में फिर तुम ही रहोगे! 

कर लेना ब्याह उस कन्या से 

जिसका पिता दहेज जुटाने में 

परलोक सिधार गया

 अगर यह सब चख लिया

तो इससे सुंदर कुछ नहीं….

***********

*प्रेमपत्रों का संग्रहालय*

मैं उन सभी प्रेमियों के प्रेमपत्रों को

 दीमक से बचा सुरक्षित रख लेना चाहती हूँ  

जिन्हें वे चाहकर भी

 अपने पास नहीं सहेज सकते 

क्योंकि उन खतों का दुबारा खोले जाना

शायद ऐसे झंझावत पैदा कर दे जिन्हें

झेलने की क्षमता

उन प्रेमियों के पास भी ना हो

जिन्होंने आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे किए थे।

 मैं उन सभी खतों को

नीम के पत्तों के साथ लपेटकर

 ऑडोनिल लगाकर रखूंगी  

और एक ऐसा संग्रहालय बनाऊँगी

जहां इन खतों को उनके सिवाय

 कोई और दूसरा कभी नहीं पढ़ पाएगा!

 ये सब चिट्ठियाँ मेरे पास अमानत बतौर रहेंगी

 और इतने सारे प्रेम को एक साथ सहेज पाना

 मेरे लिए प्रकृति की सबसे बड़ी देन होगी!

और इस तरह  

प्रिय ऋतु बसंत का जीवन भर 

मेरे द्वार पर डेरा डाले रखना होगा!

 या फिर यूं कहें कि मैं

 ऋतुराज की बाहें थामे सदा

 उनके पहलू में रह सकूँगी!

**********

*जनम जनम का साथ*

तुम मेरे मीत सदृश होने के

मतिभ्रम को हरा रखना

ज़िदा गोश्त के ठंडे गोश्त में

तब्दील हो जाने तक

मछलियों के गगन में विचरण तक

पंछियों का बसेरा साहिल तक

पाषाणों पर कुसुमालय उगने तक

वो सब भी चला जाएगा किंतु…

जीवित रहेगी तो बस कविता

और फकत प्रेम कविता

हरफ़ों से सफ़हा तक

सफ़हा से ज़ेहन तक

ज़ेहन से आसमां तक

जो बाँची जाएगी युगों तक….

*********

*पारुल हर्ष बंसल मूलत: वृन्दावन से हैं और आजकल कासगंज में हैं। इनकी कवितायें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल्स पर प्रकाशित होती रही हैं। स्त्री-अस्मिता पर कविताएं लिखना इनको विशेष प्रिय है। इनकी कवितायें पहले भी इस वेबपत्रिका में पढ़ चुके हैं। इस पोर्टल पर प्रकाशित कविताओं में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं। प्रेम और स्त्री मन की कुछ कविताएं यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here