विद्या भूषण
शब्दो!
सुनो तुम यहाँ-वहाँ
यूँ ही बिखर क्यों जाते हो?
कभी तो बिखरी स्याही की तरह
बेतरतीब से फैल जाते हो
और या फिर
कनेर के उन उदासीन फूलों की तरह
जो अपनी डाल से आसानी से बिछड़ कर
दूसरों की राह में बिखरे रहते हैं!
शब्दो!
ये क्या कि तुम मेरे होते हुए भी
हो सबके
और फिर भी हो मेरे?
तुम इतने हो मेरे अपने कि
वो तुम्हारे मेरे-पन का ढिंढोरा पीटते हुए
मुझे तुम्हारे नाम पर ही
सज़ा देने की तैयारी कर रहे हैं!
शब्दो!
अगर बनना ही है तुम्हें मेरा तो आओ,
आओ और फिर एक बार मेरे पास लौटो!
किसी मोबाइल-फोन/टैब या
लैपटॉप की छाती पर चढ़ कर नहीं
और ना ही ट्वीटर या फेसबुक की बैसाखियों पर
बल्कि
तुम लौटो अपने ही पैरों पर
ठीक मेरे पास – यानि
मेरे कलम की रगो में तुम स्याही बनकर दौड़ो
और फिर कागज़ पर उतरो
कुछ सिलसिलेवार ढंग से!
जानता हूँ कि
तुम फिर भी मेरे ना होवोगे कभी!
यूँ भी
क्या शब्द हुए किसी के भी कभी?
सिवाय तब के कि जब
शब्दों पर किसी की मिल्कियत बताकर
किसी कचहरी ने देनी हो
शब्दसाज़ को ही सज़ा!
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