एक दोपहर स्टेशन की – (भाग दो)

डॉ. शालिनी नारायणन*

वैसे तो अपने आप में यह कहानी स्वतंत्र रूप से भी पढ़ी जा सकती है लेकिन यदि आप इसका पिछला भाग पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं।

रिंकूआ को ना तारीख पता रहती थी और ना ही दिन। पढ़ना-लिखना जो नहीं आता था। हाँ, लेकिन उसे गिनती आती थी। अगर कोई उससे पूछे कि उसे ट्रेन में फ़र्श बुहारते हुए कब कोई मोबाईल मिला था तो वो तपाक से बता सकता था कि उनचास दिन पहले। पर हाँ, कोई अगर ये पूछे कि किस दिन उसे बिस्कुट मिला था तो ये बताना उसके लिए मुश्किल होता क्योंकि बिस्कुट उसे तकरीबन रोज़ ही मिल जाता था। और एक दिक्कत भी थी – उसे सौ से ऊपर की गिनती नहीं आती थी। हाँ, पता है मुश्किल नहीं है, पर ना जाने क्यों उसका दिमाग सौ से ऊपर की गिनती में भन्ना जाता था। पेन तो कल ही मिला था, इसलिए उसे भूलने का सवाल नहीं था। हाँ, हाँ, पेन-डिराइव या ऐसा ही कुछ कहते हैं उसे लोग, पर पेन ही काफी था उसके लिए। अब उसे एक और सामान के लिए नज़र रखनी थी। दस-दस रुपये मिले थे उसे और ननकउ को इतनी छोटी सी चीज के लिए जो बिना कंप्यूटर के बेकार थी और अक्सर ही लोगों से गिरती होगी।

यही सब सोचते हुए वो कूड़ेदान में काम की चीजें ढूंढ रहा था कि एक सफारी सूट उसके पास आ कर खड़ा हो गया। “ए लड़के, तुम यहीं प्लेटफॉर्म पर रहते हो?” वर्दी वाले किसी भी व्यक्ति से रिंकूआ और उसके जैसे लड़के बात करने में विश्वास नहीं रखते थे। कई बार उनसे लाठी और झापड़ खाने के बाद उनका अव्यक्त मानना था कि वर्दी वालों को दूर से ही नमस्कार अच्छा था उनकी सेहत के लिए। इसीलिए जब सफारी सूट ने उससे कुछ पूछा, तो वो पलट कर दूसरी दिशा में दौड़ा। पर उसके दौड़ते ही वर्दी धारी भी हरकत में आ गया और उसका पीछा करने लगा। बाकी वर्दी धारी भी उसे भागता देख उसके पीछे भागने लगे। पर उन्हें स्टेशन के हर कोने पता कहाँ थे। रिंकूआ दौड़कर प्लेटफॉर्म से बाहर निकला और फिर अचानक दाईं तरफ घूम गया। उसे पता था कि वहाँ एक कोयला रखने की कोठरी सी बनी थी जहां बस अब कबाड़ ही भरा रहता था। उसके पीछे दौड़ रहे लोग उस मोड़ पर आ कर आय-बाय झाँकने लगे। वो मैला-कुचैला बच्चा गायब कैसे हो गया? सिर खुजलाते सभी वापस लौट गए।

रिंकूआ शाम तक वहीं छुपा रहा और तभी निकला जब महानंदा एक्स्प्रेस के लिए स्टेशन पर भीड़ थी। लोगों के बीच छुपते-छुपाते वो ननकउ के पास पहुँच गया जो बाबा की चाय की दुकान पर बैठ कर सुड़सुड़ाते हुए चाय पी रहा था। रिंकूआ को देखते ही उसके चेहरे पे मुस्कान उभर आई – “क्या बे, आज कहाँ रहिस? दोपहरे बाद से झलकाए नहीं?” रिंकूआ फुसफुसा कर बोला – “अबे, देखे नहीं, मार पुलिस टाइप लोग घूमत रहे आज? वही हमका पकड़ने कि कोसिस में रहे, पर हम कोठरिया में घुस लिहिस, कौनो हमका ढूंढ नहीं पाय।“ “फुसफुसा काहे रहे हो, रिंकूआ? वैसे ही इस कान से हमका सुनाई परबे में मुसीबत बाटे। तनिक ज़ोर से बोला।“ ननकउ नाराज़ हो कर बोला। रिंकूआ ने उसके कान के पास जा कर दोबारा वही कहा। ननकउ उसकी तरफ आँख फाड़ कर देखने लगा।

“सच्ची?”

“अऊर का, तुमसे कभी झूठ बोलें हैं क्या?” रिंकूआ तमक कर बोला। अभी पिछले साल ही तो ननकउ की जबरदस्त पिटाई हुई थी पुलिस वालों के हाथ। किसी ने कह दिया था कि उसने ट्रेन में किसी महिला का हार चुराया था। हार उसी महिला के पर्स में मिला बाद में, पर तब तक उसकी ठुकाई हो चुकी थी। दोनों दोस्तों ने तय किया कि कुछ दिन वे ‘अन्डर ग्राउन्ड’ रहेंगे।

बाबा के टी-स्टाल में बड़ों से पैसे लिए जाते थे पर स्टेशन पर रहने वाले बच्चों से नहीं। कारण, बाबा ने भी अपना बचपन वहीं गुजारा था। अब उनके पास इतने पैसे थे कि वो दुकान चला सकें पर अपना बचपन वो भूले नहीं थे। लेकिन सिगरेट-बीड़ी बिल्कुल नहीं देते थे उन्हें। वो केवल बड़ों के लिए। कभी अगर देख भी लिया किसी बच्चे को बीड़ी सुलगाते तो वहीं से बैठे-बैठे चमचा, बेलन, जो हाथ लग जाए मिसाईल बना कर सीधा निशाना लगाते थे बच्चे पर। गुर्राते अलग थे उसके ऊपर। कुछ इस तरह से घेरा बनता था बाबा की चाय की दुकान पर – चूल्हे के पास अध-खड़े बाबा चाय बनाते हुए (कभी-कभी अंडा ब्रेड या अंडा पराठा भी बनाते थे), उनके सामने कुछ युवा, कुछ अधेड़ अवस्था के पुरुष धुएँ का सेवन करते हुए, और सबसे बाहर के घेरे में कुछ बच्चे जमीन पर उकड़ूँ बैठे या पालथी मार कर बैठे हुए, चाय पीते हुए। रिंकूआ और ननकउ वैसे ही बाहर की  परिधि में बैठे हुए सुड़सुड़ाते हुए चाय प्याले में डाल कर पी रहे थे। तभी एक दुशाला ओढ़े युवक घेरे के अंदर घुसा और बाबा से बोला – “चचा, एक चाय और एक सुट्टा देना।“ जब तक चाय आ रही थी तब तक सिगरेट सुलगाते हुए उसने बगल में खड़े व्यक्ति से पूछा – “ये सफारी सूट क्या ढूंढ रहे हैं, कुछ पता है?” उस व्यक्ति ने तो ना में सिर हिला दिया पर दूसरी तरफ खड़े बंदे ने तंबाकू मसलते हुए कहा – “कछु गुम गया से, जाने का कह रहे थे वा को, सायद कछु नक्सा-वक्सा होय।“

“नक्सा क्या खजाने का रहा का? तो हमहूँ ढूँढब” हंस के वो नौजवान बोला।

“नाहीं, कछु औरए चीज का हुँयेँ। पर मिल जाब तो सरकार दस हजार का इनाम दिहीस तुमका।“ जब से उस नौजवान ने सफारी सूट की बात की थी, रिंकूआ के कान वहीं लगे हुए थे। उसने ननकउ को पसलियों में ठेलते हुए कहा – “सुनय का? सरकार दस हज्जार रुपये दे रही है नक्सा के ढूँढ़ये के।“ ननकउ को बात समझ नहीं आ रही थी। उसने रिंकूआ का हाथ झटक कर कहा – “अपने जेब में धरे हो का नक्सा?” तब रिंकूआ ने उसे याद दिलाया संजू भैया के कंप्यूटर में देखे नक्शे के बारे में। और वो अचानक उठ बैठा। “सही कह रहे हो यार।“ अब वक़्त आ गया था इस बारे में और पता लगाने का! 

*****

*डॉ. शालिनी नारायणन लेखक है, कवियित्री हैं और इसके अलावा मीडिया सलाहकार और ट्रेनर के रूप में भी कार्यरत हैं। इससे पहले वे तेईस साल केंद्र सरकार की नौकरी में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर काम कर चुकी हैं, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लिए हुए अब उन्हें एक दशक हो चुका है। तब से मानसिक स्वास्थ्य, ड्रग पुनर्वास और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान रहा है।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

Banner Image by Miguel López Casellas from Pixabay

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here