एक दोपहर स्टेशन की – (भाग तीन)

डॉ. शालिनी नारायणन*

एक दोपहर स्टेशन की’ कहानी का यह अंतिम भाग है। यदि आप इसके पिछले भाग पढ़ना चाहें तो यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं।

चाय का कप वहीं छोड़ कर दोनों दोस्त निकल पड़े। पता था बाबा से डांट पिटेगी पर अभी उनके पास समय नहीं था ये सोचने का। साढ़े सात बज रहे थे और संजू भैया साइबर कैफै  आठ बजे बंद कर के चले जाते थे। बाबा की आवाज़ आ रही थी पीछे से – “अगली बार आवा चाय पिए के खातिर, ऐसन लताड़ा तबीयत हरी हुई जाए।“ पर रिंकूआ और ननकउ अनसुना कर तेज गति से स्टेशन के बाहर की ओर चल पड़े। चाय वाले बाबा से फिर निपटेंगे।

संजू भैया अपने आखिरी ग्राहक को विदा ही कर रहे थे जब दोनों आ धमके।

“का ले कर आए हो इस बार दोनों चोट्टे?” हंस कर बोले वो।

“ए भैया, चोर-वोर ना कहा हमका, झाड़ू बुहारन में कछु पा जाते हैं तो का चोर होई गए?” ननकउ को बुरा लग गया।

“ये लो, इनको देखो – अब हंसी मज़ाक में भी सोचना पड़ेगा क्या?” संजू भैया भी बिदक गए।

“तो हम तुमका दलाल कह सकत हैं का मजाक में?” ननकउ बोला।

भैया आग बबूला हो गए। बोले – “चलो निकलो यहाँ से! दो पैसे क्या दे दिए, तुम तो सर पर चढ़ गए। नहीं चाहिए तुम जो भी लाए हो, हटो यहाँ से, दुकान बंद कर रहे हैं, दिख नहीं रहा?”

रिंकूआ ने जैसे-तैसे बात संभाली – “ओ भैया, आप काहे आपन खोपड़िया इस पगलेट के पीछे गरम कर रहे हो। हमरा कौनों नाहीं, आप एकल्ले सहारा हो, माफ कर दियो इस ससुर के नाती का। तुमरे गोड़ पकड़ लई लेत हैं।“

संजू भैया कुछ नरम पड़े पर फिर भी उन्होंने अकड़ कर कहा – “देखो, समझा लो इसे। अब कुछ भी अनापशनाप बका इसने तो हमारी-तुम्हारी दोस्ती खत्म।“

“नहीं भैया, अब कुछ ना बोलब।“ ननकउ ने भी कोशिश की बिगड़ती बात संभालने की।

रिंकूआ ने फिर संजू भैया से पूछा कि उस दिन के पेन (अरे वही पेन डिराइव) में मिले नक्शे को क्या उन्होंने अभी भी रखा है? भैया को पूरी बात बताई। संजू भैया की आँखें चमक गईं। “अच्छा, दस हज्जार रुपया! लेकिन मैं ने तो वो फाइल तभी डिलीट कर दी थी।”

रिंकूआ और ननकउ के चेहरे उतर गए – “भैया फिर से एक बार देख लो, शायद हो।“

“क्या बात कर रहे हो, मुझे अपना कंप्यूटर पता नहीं है क्या?” भैया फिर उखड़ गए।

दोनों बच्चों को पैसा आते-आते वापस जाते हुए दिखने लगा। मायूस हो कर चल पड़े।

पर उन्हें पता नहीं चला कि एक साया उनके पीछे-पीछे चल रहा था जिसने उनकी सब बातें सुन ली थीं। सफारी सूट पहने वो व्यक्ति संजू भैया के दफ्तर की दीवार से आगे रात की कालिमा में विलीन हो गया।

इन सब बातों से अनजान रिंकूआ अपने दोस्त को सांत्वना देने में लगा हुआ था – “कौनो बात नहीं है, ऊपरवाला एक हाथ से देवत है, और दूसरे से लेवत है। इंसान कुछऔ कर नहीं पात है। उदास जिन भया, सब दिन ना होत समाना, समझे का?”

लेकिन ननकउ को उसकी बात से कोई सांत्वना नहीं मिल रही थे – “भक, तू आपन ज्ञान अपने तक धरा, ज्यादा बाँटवै की जरूरत नाहीं। हम कह रहे हैं, संजू भैया कुछ तो जरूर छिपाए रहे हैं, नहीं अपना कंप्युटरवा खोल के ह्मरे सामने दिखाते नहीं का? दाल में कछु काला लग रहा है हमका।“

“अच्छा चला रहाय दे। कंप्युटरवा खोले से का हमाये-तुमाए दिमाग में समझ आ जाता का? रात होय क है, हम जाय रहे परयागराज में घुसे के लिए। ट्रेन चलय के पहले इत्ती देर खड़ी रहत है प्लेटफोरम पे” रिंकूआ बोला।

पर ननकउ का दिमाग अभी संजू भैया और उनके झूठ में ही उलझा हुआ था। उसने रिंकूआ की बात अनसुनी कर दी और उलटे पाँव चल पड़ा संजू भैया के साइबर कैफै की तरफ। वहाँ पहुँच कर जो उसने देखा, उसके होश उड़ गए – एक सफारी सूट ने भैया का कॉलर पकड़ रखा था और कैफै को चारों तरफ से दूसरे वर्दीधारी घेरे हुए थे। उसके देखते ही देखते, सफारी सूट ने संजू भैया को अपने खाली हाथ से तमाचा मारा। फिर दो वर्दीधारी लोगों ने संजू भैया को घसीटते हुए कंप्युटर के सामने खड़ा कर दिया और सफारी सूट ने गरजते हुए कहा – “चालू करो इसे!” संजू भैया के मुंह से खून की पतली सी धार बह रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे दो-चार झापड़ पहले ही खा चुके थे। कांपते हाथों से भैया ने कंप्युटर खोल तो दिया पर उस पेन ड्राइव की फाइलें कहाँ थी ये बताना बड़ा मुश्किल था। इतने लोगों से घिरे होने और झापड़ खाने के बावजूद ऐसा लग रहा था कि संजू भैया उन सभी को घुमा रहे थे।

किसी ने ननकउ की कोहनी पर हाथ रखा, उसकी चीख निकल गई। देखा तो रिंकूआ था। लेकिन तब तक देरी हो चुकी थी। सफारी सूट ने उन्हें देख लिया था और अंदर आने का इशारा कर रहे थे। डरते-डरते दोनों अंदर गए। संजू भैया की लग रहा था कि आँख चल रही थी – बार-बार उन्हें देख कर आँख मार रहे थे। सफारी सूट ने उन्हें ढाँढ़स बँधाया और कहा कि अगर उन्हें कुछ पता है तो वो निडर हो कर बताएँ। रिंकूआ ने एक फाइल की तरफ इशारा किया और कहा कि यही देखी थी उन्होंने। लॉक फाइल का पासवर्ड फिर निकलवाना मुश्किल नहीं था सफारी सूट के लिए। हाँ, ननकउ और रिंकूआ के लिए देखना मुश्किल था, आखिर संजू भैया इतने दिनों से उनके दोस्त जो थे।

फाइल वही थी जिसकी सब को तलाश थी। सफारी सूट वाले ने स्थानीय पुलिस वालों को बताया कि वो नक्शे उन जगहों के थे जहां एक गोष्ठी होने वाली थी जिसमें बाहर के देशों के कई लोग आने वाले थे। और इनमें खासकर एक विशेष देश के नेता की कार्यसूची थी जो कोई आतंकवादी संगठन ले कर चल रहा था। रिंकूआ के भागने के बाद उस पर सफारी सूट की नज़र रही थी और उसका पीछा करते हुए उन्हें संजू भैया के बारे में पता लगा। सफारी सूट वाले लोग इस गोष्ठी की राज्य में बैठकों के दौरान सुरक्षा का जिम्मा उठाए हुए थे। उन्होंने रिंकूआ और ननकउ की पीठ थपथपाई और उन्हें ये भी बताया कि उन्हें एक-एक हजार रुपए का इनाम मिलेगा इस प्रकरण में सुराग देने के लिए। ननकाउ और रिंकूआ की  खुशी का ठिकाना नहीं था – एक हज्जार रुपए! अब वो क्या-क्या खरीदेंगे इन पैसों से इसी का वो तानाबाना बुनने लगे ।

“हम तो एक रजाई लेब, जाड़ा के बखत काम आवे।“

“अबे का तुम बुढ़ऊ के ताईं बात करत हो, हम तो एक ठो रिस्का कई के संगम जाब, गंगा नहाए के। फिन ओंही पर इत्ती सारी जलेबी, और एक लोटा भर छाछ पियब।“

“ए, हमऊ चलब तुहार सँगै, दोस्त को का इहाँ अकेला छोड़ जाब झाड़ू बुहारे खातिर?”

“अच्छा चलय चल, तुमऊ का याद करिबो।“ और हँसते हुए दोनों सपनों में खोए रहे।

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*डॉ. शालिनी नारायणन लेखक है, कवियित्री हैं और इसके अलावा मीडिया सलाहकार और ट्रेनर के रूप में भी कार्यरत हैं। इससे पहले वे तेईस साल केंद्र सरकार की नौकरी में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर काम कर चुकी हैं, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लिए हुए अब उन्हें एक दशक हो चुका है। तब से मानसिक स्वास्थ्य, ड्रग पुनर्वास और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान रहा है।

डिस्क्लेमर : यह एक काल्पनिक कहानी है और इस में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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