पुस्तक-परिचय : गिरीश कर्नाड की आत्मकथा ‘यह जीवन खेल में’
राजेंद्र भट्ट*
‘यह जीवन खेल में’ हार्पर कॉलिन्स से प्रकाशित गिरीश कर्नाड की आत्मकथा के अंग्रेजी संस्करण ‘दिस लाइफ एट प्ले’ का मधुबाला जोशी का किया हिन्दी अनुवाद है। अंग्रेजी संस्करण भी हार्पर कॉलिन्स से ही छपा है।
हिन्दी पुस्तक में यह सूचना नहीं है कि यह किस पुस्तक का अनुवाद है। हार्पर कॉलिन्स बड़े प्रकाशक हैं लेकिन किसी भी अनूदित पुस्तक के इंप्रिंट पृष्ठ और अंतिम कवर पर मूल पुस्तक का नाम और उसका अनुवाद होने का उल्लेख अवश्य होना चाहिए। यह पाठक का नैतिक और व्यावसायिक अधिकार है।
वैसे, पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण भी गिरीश कर्नाड की मूलतः कन्नड़ में लिखी आत्मकथा ‘आडाद्ता आयुष्य’ का अनुवाद है। यह अनुवाद खुद गिरीश कर्नाड और उनके आग्रह पर श्रीनाथ पेरूर ने किया था। यह जानकारी हिन्दी पुस्तक में समाहित श्रीनाथ पेरूर की टिप्पणी से मिलती है। ऐसी जानकारियाँ अलग से प्रकाशकीय टिप्पणी में दी जाती तो बेहतर होता।
पुस्तक के कुछ ही पंक्तियों के मार्मिक ‘उपसंहार’ में गिरीश कर्नाड 1641 में ब्रज भाषा के किसी जैन व्यापारी की आत्मकथा ‘अर्धकथानक’ का उल्लेख करते हैं जिन्होंने अपने अंतरंग गुण-दोषों-अनुभवों के बेबाक विवरणों के साथ, अपनी अनुमानित आधी उम्र का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया था। गिरीश कर्नाड ने 84 वर्ष की उम्र पाई, 1938 में उनका जन्म हुआ था। संयोग से, इस आत्मकथा में, उनकी ठीक आधी उम्र (1980) तक के विवरण हैं। वह ‘अर्धकथानक’ के आधार पर अपनी आत्मकथा का नाम रखना चाहते थे, लेकिन अंततः नाम रखा अपने प्रिय कन्नड कवि बेंद्रे की कविता की पंक्ति के आधार पर – ‘आडाद्ता आयुष्य’। पूरी पंक्ति है – ‘नोदनोतमा दिनमाना, आडाद्ता आयुष्य’। (पलक झपकते दिन बीत जाते हैं, यह जीवन खेल में।) ‘उपसंहार’ में उन्होंने लिखा है कि अगर हो सका तो वह बाकी जीवन की कथा भी लिखेंगे। ऐसा हो न सका। 10 जून 2019 को उनका निधन हो गया।
इस पुस्तक में वर्णित गिरीश कर्नाड के जीवन का ‘अर्धकथानक’ भी इतना सार्थक, सक्रिय और बहुआयामी उपलब्धियों भरा हैं जो आम लोगों को शायद कई ज़िंदगियों में भी न हासिल हों। पश्चिमी घाट के जंगलों में कर्नाटक के एक छोटे से कस्बे सिरसी में बिताए बचपन के बाद 1958 में उन्होंने गणित और सांख्यिकी से बीए किया। 1960 में (उस वर्ष किसी भारतीय को मिली एकमात्र) प्रतिष्ठित रोड्स छात्रवृत्ति मिली और 1963 में वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से मास्टर्स डिग्री ले चुके थे। इस दौरान (1962-63 में) वह ऑक्सफोर्ड यूनियन सोसाइटी (मुख्यतः ऑक्सफोर्ड के विद्यार्थियों वाली प्रतिष्ठित डिबेटिंग सोसाइटी) के प्रेसिडेंट भी रहे। 1963 से 1970 तक वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के चेन्नई कार्यालय में संपादकीय-प्रबंधकीय पदों पर रहे। मात्र 23 वर्ष की उम्र में, 1961 में, उनका चर्चित कन्नड नाटक ‘ययाति’ प्रकाशित हुआ। 1964 में ‘तुगलक’ और 1971 में ‘हयवदन’ प्रकाशित हुए। तीनों ही नाटक कन्नड ही नहीं, भारतीय नाट्य-साहित्य और रंगमंच के इतिहास में मील के पत्थर माने जाते हैं। पौराणिक-ऐतिहासिक चरित्रों की समकालीन और सार्वकालिक मूल्यों के अनुरूप व्याख्या वाले उनके नाटकों के सभी भारतीय भाषाओं में मंचन हुए। सत्यदेव दुबे और इब्राहीम अलकाजी जैसे निर्देशकों ने इन नाटकों का निर्देशन किया और देश के चोटी के नाटक-कलाकारों ने उनमें अभिनय किए। उनके द्वारा ही अनूदित इन नाटकों के अंग्रेजी अनुवादों के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मंचन हुए। 1970 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कन्नड फिल्म ‘संस्कार’ के वह पटकथा-लेखक और अभिनेता थे। अगले ही वर्ष ‘वंशवृक्ष’ फिल्म के लिए उन्हें श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला। 1977 में उनके द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गोधूलि’ आई। 1970 के दशक में, यशस्वी निर्देशकों की हिन्दी फिल्मों – श्याम बेनेगल ‘निशांत’ और ‘मंथन’ तथा बासु चटर्जी की ‘स्वामी’ में उन्होंने अभिनय किया जो बहुत सराहा गया। 1974-75 के दौरान पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान के वह निदेशक रहे और आपातकाल के दौरान ही यह पद छोड़ भी दिया। इस पूरे दौर में वह जहां भी रहे, अपनी अद्भुत बौद्धिक-रचनात्मक ऊर्जा से साहित्य, विचार और कला जगत में महत्वपूर्ण उपस्थिति बनाए रहे। उनकी जीवन-कथा समकालीन साहित्य-संस्कृति-कला जगत की विभूतियों और गतिविधियों के जीवंत बिंबों से समृद्ध है।
यों उनके जीवन के दूसरे हिस्से का ‘अर्धकथानक’ भी जीवंतता और उपलब्धियों से भरा हुआ है। 1988 में ‘नागमंडल’ नाटक को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि मिली। 1987-88 में फुलब्राइट स्कॉलर के रूप में वह शिकागो विश्वविद्यालय में रहे। 1988-93 के दौरान केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष रहे। हिन्दी में ’उत्सव’ फिल्म निर्देशित की। ‘पुकार’, ‘इकबाल’, ‘डोर’ से लेकर ‘एक था टाइगर’ हिन्दी फिल्मों में अभिनय किया। अनेक फिल्में और वृत्त-चित्र बनाए। लंदन में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक रहे। भारतीय साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (1998) भी प्राप्त किया।
इस पुस्तक के अंत में उनके पुत्र और पुत्री – रघु और राधा कर्नाड ने अपने पिता के व्यक्तित्व का संक्षिप्त पर बेहद मार्मिक शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, यह उनके जीवन के कुल हासिल को – कद्दावर और मुकम्मल गिरीश कर्नाड को हमारे सामने खड़ा कर देता है। दोनों संतानों ने शुरू में ही कहा है कि उनके माता-पिता पाँच-पाच भाषाएँ जानते थे, जिनमें अंग्रेजी साझा भाषा थी। शायद यही बीज-वाक्य है जो गिरीश के बौद्धिक-भावनात्मक और रचनात्मक आवेगों की व्याख्या करता है – परम्पराओं की गहरी समझ और जुड़ाव, लेकिन उदार, विवेकपूर्ण और वैश्विक दृष्टिकोण। मुझे याद है, गिरीश कर्नाड ने अपने जीवन के अंतिम दौर में (संभवतः हमारे उन्मादी-उजड्ड समय को देखते हुए) ‘टोन डैफ’ लोगों की आलोचना की थी – ‘टोन’ का अगर सभी ज्ञानेन्द्रियों में विस्तार करें तो ऐसे लोगों से उनका मतलब भाषा, रूप, स्वर से जुड़े सभी संवेदनों को समझने में असमर्थ, असंवेदनशील समुदाय से था।
गिरीश इन सब का विलोम थे, संवेदनों और संभावनाओं से भरपूर थे। बचपन में, जंगल के बीच गाँव के अंधेरे की ध्वनियों-रूपाकारों को गिरीश ने इस पुस्तक में शब्द-रूप दिए हैं। उसी का उल्लेख करते हुए, उनकी दोनों सन्तानें ‘रातों में उभरते अंधेरे के कई रंगों’ और ‘कहानियों की बहुतायत’ के लिए उनके ‘उदासी भरे मोह’ का जिक्र करती हैं, लेकिन, कहती हैं कि ‘फिर भी, उनकी रचनात्मक यात्रा भारतीय संस्कृति और मनोरंजन के विद्युतीकरण से जुड़ी थी।‘
यही हैं, मुकम्मल गिरीश कर्नाड । अतीत-स्तुति की जड़ता से नहीं, बल्कि परंपरा की गहरी समझ की जमीन से जुड़े रह कर आधुनिक, प्रगतिशील, वैश्विक आकाश के विस्तार को निरंतर तलाशते – परम्पराओं को समकालीनता से संयोजित करते, गहन, मानवीय संवेदनाओं से सरोबार। इसी लिए उन्हें ‘टोन डैफ’ अविवेकी, उन्मादी, जड़ समाज स्वीकार न था।
इस पुस्तक में, हम बार-बार देखते हैं कि गिरीश के विवेक की ईमानदारी इतनी प्रबल और निष्पक्ष है कि वे अपने घर-परिवार से लेकर बौद्धिक-साहित्यिक परिचितों तक, सबके बारे में, बिना निजी पूर्वाग्रह के बेबाक राय जाहिर करते हैं। इनमें उनके वरिष्ठ और समकालीन प्रतिष्ठित नाम हैं और उनके बारे में खुल कर कहने के खतरों से वह परिचित होंगे ही। दूसरी ओर, ये टिप्पणियाँ किसी निजी तमस, जलन और कालिमा को नहीं दिखातीं – यह संकीर्ण निंदा और मन की क्षुद्र्ताएँ नहीं हैं। ये लाभ-हानि, प्रशस्ति-कलुष से दूर, एक खरे-खुद्दार व्यक्ति की बेबाक राय हैं। गिरीश अनावश्यक रूप से विनम्र नहीं है, उन्हें अपनी क्षमताओं का बोध है। लेकिन पूरी पुस्तक में तथ्यों पर टिके निष्पृह विवरण हैं, अश्लील आत्म-प्रशस्ति नहीं है।
इसी खरेपन, बौद्धिक आभा और सात्विक आत्म-विश्वास और आस्था के प्रतीक के रूप में, उनके पुत्र-पुत्री ने उल्लेख किया है कि कैसे ‘फूहड़ राजनीति के साथ समझौता करने से इंकार करते हुए’, मृत्यु से कुछ समय पहले ‘ऑक्सीज़न-मशीन के सहारे, लगभग बेहोश होने की स्थिति में वह ठसाठस भरे हॉल में, सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में, गले में तख्ती लगाए खड़े हो गए थे। तख्ती पर लिखा था – ‘मैं भी अर्बन नक्सल’। यह दृश्य संभवतः गिरीश कर्नाड के व्यक्तित्व के तमाम ‘अर्धकथानकों’ को पूर्णता प्रदान करता है।
पुस्तक में सिरसी के पहाड़ी इलाके में बीते बचपन, धारवाड़ और मुंबई में विद्यार्थी जीवन, लंदन की पढ़ाई और बौद्धिक सक्रियता, ‘संस्कार’ और ‘वंशवृक्ष’ फिल्मों के निर्माण और फिल्म तथा टेलीविज़न संस्थान, पुणे के कार्यकाल का वर्णन है। इन व्यक्तिगत जीवन की घटनाओं के जरिए, गिरीश ने उस समूचे काल के ग्रामीण, कस्बाई समाज, परम्पराओं, रूढ़ियों, कन्नड भाषा और समाज के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश, फिल्म-थिएटर की प्रवृत्तियों तथा इंग्लैंड के तत्कालीन भारतीय-ब्रिटिश साहित्यिक-सांस्कृतिक समाज का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। समकालीन विभूतियों, प्रतिभाओं, बौद्धिक-कलात्मक ऊंचाइयों और क्षुद्रताओं को वह बेहद बेबाकी और संपूर्णता के साथ पेश करते हैं। वह इस जीवन-प्रवाह के पात्र भी हैं, सूत्रधार भी हैं – और इन सारे ब्योरों में एक सहज समग्रता है, कोई झोल नहीं है। उपन्यास जैसी मन को रमाने वाली किस्सागोई है। गिरीश की भाषा में जहां भावनाओं के ‘शेड्स’ की सहज पकड़ है, वहीं महीन हास्य-व्यंग्य और अनूठा ‘विट’ भी है। उनकी अद्भुत प्रतिभा के ही अनुरूप भाषा-शैली एकदम कसी हुई है।
और अब बात इस पुस्तक की अनुवादक मधुबाला जोशी की, जिन्होंने मुझे यह किताब भेजी। मूल पाठ की आत्मा अनुवाद में लाना बड़ी बौद्धिक-सांस्कृतिक क्षमता और श्रम का काम है। ऐसी अनेक परतों-आयामों वाली, साहित्य-संस्कृति, कला, थिएटर, सिनेमा के प्रसंगों से भरी सघन पुस्तक का अनुवाद चुनौती ही रहा होगा। पुस्तक को पढ़ते हुए, बार-बार लगा कि गिरीश कर्नाड से, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से सीधे संवाद कर पा रहा हूँ। एकदम मूल जैसा ही प्रवाह है, शब्दों-वाक्यों में एकदम सहजता है। कहीं भी मूल पुस्तक सामने न होने का अभाव नहीं लगता।
मधुबाला जी ऐसी मित्र हैं, जो आपको बौद्धिक-सांस्कृतिक ऊर्जा से समृद्ध करती हैं। उनकी ‘बतकही’ अद्भुत है। लगता है, दास्तानगोई चल रही है। उनके पास भाषा के अद्भुत ‘शेड्स’ हैं, जिनमें सामान्य गप-शप से लेकर, साहित्यिक विमर्श तक सहज भाव से आते हैं, और ‘रिले रेस’ की तरह अगले विषय को ‘बैटन’ सोंप देते हैं। उनका सूक्ष्म विनोदी ‘टोन’ मध्यम सुर में ही बना रहता है, कभी ‘मंद्र और तार’ सुरों तक नहीं जाता। वह विदुषी हैं, लेकिन बहुत सहज हैं। शब्दों के विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थों-निहितार्थों की उनकी अद्भुत समझ है। बस, आपको इस ‘बतरस-पुराण’ वाले ‘सत्संग’ के लिए बिना किसी जल्दबाज़ी, बबाल और आवेग के वक्त चाहिए।
बहरहाल, सत्पुरुषों, प्रतिभावानों से सत्संग आपको समृद्ध करता ही है। गिरीश कर्नाड जैसी प्रतिभा से सत्संग करने के लिए यह बढ़िया किताब है। हिन्दी में ऐसे अनुवादों का स्वागत होना चाहिए – इन्हें खूब पढ़ा जाना चाहिए।
यह जीवन खेल में: गिरीश कर्नाड (अनुवाद: मधुबाला जोशी), हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स इंडिया, गुरुग्राम, भारत (2022), www.harpercollins.co.in पृष्ठ – 290, मूल्य- रु.399.

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँ, यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।
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आपका साहित्य प्रेम अंतरात्मा को प्रेरित करते हुए प्रसन्नता की अनुभूति कराता है।। साधुवाद, प्रणाम।।
बहुत धन्यवाद। आपसे जल्दी बात करूंगा
पुस्तक समीक्षा बड़ी मेहनत से की गई है ☀️
सभी टिप्पणियां, प्रसंग और जानकारी अत्यंत
उपयोगी है ☀️
राजेन्द्र भट्ट की लेखनी फुर्सत के पलों को सार्थक बना रही है ☀️
अच्छा लगा ।
बहुत धन्यवाद। प्रणाम। आपने समय निकाला।
बहुत गहराई से अध्ययन करके लिखा है सर,बधाई हो 🙏
शुक्रिया, दोस्त।
एक सुयोग्य व्यक्ति की आत्मकथा की एक अन्य योग्य व प्रबुद्ध व्यक्ति द्वारा की गई रोचक तथा अर्थपूर्ण समीक्षा
प्रणाम, सर।
बेहतरीन
बेहतरीन दोस्त की टिप्पणी।
हिंदी पाठक smeekha पढ़ने के बाद पुस्तक अवश्य पड़ेंगे। इतने बड़े वयक्तित्व पर हिंदी में पुस्तक आना और फिर उम्दा smeekha।
“उनकी ‘बतकही’ अद्भुत है। लगता है, दास्तानगोई चल रही है। उनके पास भाषा के अद्भुत ‘शेड्स’ हैं, ..‘रिले रेस’ की तरह अगले विषय को ‘बैटन’ सोंप देते हैं…” और फिर “शायद यही बीज-वाक्य है जो गिरीश के बौद्धिक-भावनात्मक और रचनात्मक आवेगों की व्याख्या करता है “– जैसे वाक्य जहाँ राजेंद्र जी की भाषा पर अद्भुत पकड़ दिखाते है वही पाठक को बांधे रहते है।
आपकी गुणग्राहकता है। आभार।
नमस्कार सर
बहुत श्रमसाध्य आलेख है।
सादर
काफी समय से ये नम्बर रीचार्ज नहीं करा सका था.आज समीक्षा पढ़ी. इस समीक्षा में आप की बेबाक टिप्पणियों के साथ पूर्ण जानकारी मिलती है.लम्बे अरसे के बाद आप की रचनाधर्मिता से रुबरू होने का अवसर मइल. उत्कृष्ट लेखन के लिए हार्दिक बधाई.
आपको इस वेब पत्रिका पर देखकर बहुत खुशी हो रही है। जल्द ही आपसे संपर्क करते हैं।
पुस्तक समीक्षा उत्कृष्ट है.बेबाक टिप्पणी भी की गयी है. हार्दिक बधाई.
This is a very beautiful review of lovely content. A review that could be the gold standard for reviews. Very balanced.
Thanks Bhattjee!