कहाँ जा रहे हैं हम?

आज की बात

पिछले कुछ समय से या इस बात को कहने में क्या संकोच करना कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के एक-दो साल के बाद से ही चेतावनी के रूप में अपने यहाँ दूसरे विश्वयुद्ध के खलनायक और जर्मनी के चांसलर हिटलर के किस्से नज़र आने लगे थे। आमतौर पर व्हाट्सएप्प पर आने वाले इन पोस्ट्स में हिटलर के ऐसे  किस्से बताए जाते हैं जिनमें ये खतरा चिन्हित किया जाता है कि हिटलर और मोदी जी में कुछ समानतायेँ हैं। बहुत बार इनमें मोदी जी का नाम लिए बिना हिटलर की कुछ ऐसी बातें (जिनके सही या गलत होने की इस स्तंभकार ने कोई अलग से तसदीक नहीं की है) बताई जाती हैं जो संयोगवश मोदी जी के जीवन से भी मेल खाती लगती हैं।

आज ही एक मित्र ने लिंक भेजा जिसमें कुछ समय पहले येल यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक का ज़िक्र है जिसमें हिटलर कैसे इतना लोकप्रिय बन सका, इसकी कहानी है। पुस्तक में हिटलर की छवि बनाने में मीडिया की महती भूमिका का ज़िक्र है। हमारे मित्र को लगा कि शायद वो पुस्तक मुझे कुछ लिखने को प्रेरित करे। अब अगर उनका भी आशय हो कि मैं उस पुस्तक के बारे में लिखूँ और मुझे अपने पाठकों को उससे परिचित करवाना चाहिए तो वह मुझसे ना हो सकेगा। हाँ, उस पुस्तक की समीक्षा का लिंक जो मेरे पास आया है, वह मैं यहाँ लगा देता हूँ। (Link)।

मैं तो उस पुस्तक के बारे में पढ़ते-पढ़ते यही सोच रहा था कि ये हिटलर को बुरा समझना केवल एक ‘कन्डीशनिंग’ के कारण है अन्यथा असल में कौन हिटलर को बुरा समझ रहा है? अगर बहुत से यहूदियों के आज के क्रिया-कलापों पर नज़र डालें तो वो भी हिटलर की संतान लगते हैं।

ऐसा ही कुछ हमारे यहाँ हो रहा है। धर्म-निरपेक्षता कभी होती होगी हमारा जीवन मूल्य – आज तो ऐसे लोग जो उदार विचारधारा के समर्थक हैं, वो अच्छी ख़ासी रक्षात्मक भूमिका में आ गए हैं। टिवीटर पर आप नेहरू पर हुए हमलों का जवाब देने की कोशिश करेंगे तो लोग गाली-गलौच पर उतार आएंगे। फेसबुक पर आप सहमते-सहमते कुछ ऐसा शेयर करेंगे जो बहुसंख्यकवाद की धारा के विपरीत है तो लोग आपको भाव नहीं देंगे।

अभी कुछ रोज़ पहले जब राज्यसभा ने कश्मीर से धारा 370 हटाने का बिल पास किया तो हमने इस वैबसाइट पर एक लेख लिखा जिसमें सावधानी बरतते हुए हमने सिर्फ इतना कहा कि कहीं ये बहुत जल्दबाज़ी तो नहीं हो रही और इस बिल पर व्यापक विचार-विमर्श होता तो अच्छा था। इस लेख को अपने फेसबुक पेज पर डाला तो पता चला कि दो लोगों ने लाइक कर दिया। अगले रोज़ सोचा कि इस पर थोड़ी प्रतिक्रिया देखनी चाहिए तो ऐसा सोच कर व्हाट्सएप्प पर ब्रॉडकास्ट कर दिया। कई लोगों ने वापिस संदेश भेजकर असहमति जताई जो कि बिलकुल भी आपत्तिजनक बात नहीं है लेकिन हैरानी तब होती है जब ऐसे विचारों का समर्थक कोई नहीं मिलता। या गलत कह रहे हैं हम क्योंकि अब तो इस पर आश्चर्य भी नहीं होता।

मीडिया सत्ता के प्रति पूरी तरह समर्पित होने के बावजूद सोशल मीडिया या टीवी डिबेट्स में मीडिया को बराबर गाली दी जाती है। लगातार ये दबाव बनाया जा रहा है कि ज़रा सी भी असहमति या आलोचना के स्वर ना उठें। कभी-कभार ऐसे लोग जिनकी पहचान सत्ता के विरोधियों के रूप में हो चुकी है, चाहे वो राजनीतिक दलों के हों या बुद्धिजीवियों/पत्रकारों के, सरकार की आलोचना कर देते हैं लेकिन करीब-करीब सभी को ये पता चल गया है कि वैसी आलोचना निरर्थक है। वैसे अगर उस तरह की आलोचना भी सीमा पार करने लगे तो मज़ा चखाने के तरीके अपनाए जाते हैं।

आपको याद होगा कि अभी हाल ही में फिल्म, कला साहित्य और सार्वजनिक जीवन से जुड़े 49 प्रमुख लोगों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर चिंता जताई कि जय श्री राम का धार्मिक उद्घोष कुछ लोग ‘लिंचिंग’ के लिए कर रहे हैं। इसके जवाब में दूसरे कैंप के 62 लोगों ने भी पत्र लिखा और इन लोगों पर आरोप लगाया कि वे ऐसे मुद्दे उछाल कर अंतर्राष्ट्रीय जगत में देश की छवि खराब कर रहे हैं। यहीं पर बात रुक जाती तो गनीमत थी। इसके बाद खबर आई कि किसी ने बिहार की अदालत में इन 49 लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा भी दायर कर दिया। स्वाभाविक है कि ये सब इसलिए किया गया कि ये संदेश चला जाये कि ज़्यादा चूँ-चपड़ की तो एक कचहरी से दूसरी में दौड़ते फिरोगे।

इस स्तंभकार को मालूम है कि उसने ऊपर एक भी नई बात नहीं कही लेकिन चिंताएँ दोहराते रहना भी तो एक काम है। जब और कुछ नहीं हो रहा तो यही सही।

बस एक सवाल जिसका जवाब ढूँढने में आप भी मदद करें, वो ये है कि हम ऐसे क्यों बन रहे हैं? दोस्तों से हुई पहले हुई बातचीत के आधार पर ये जानता हूँ कि इसका कोई एक जवाब तो है नहीं और ना कोई छोटा जवाब लेकिन टुकड़ों में ही सही, हमें इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करते रहनी चाहिए। वैसे हम तो इतिहास दोहराने को तैयार ही बैठे लगते हैं और इसलिए आखिर में बहुत ही ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला ये वक्तव्य हम भी दोहरा देते हैं कि ‘Those who do not learn from history are doomed to repeat it.’

विद्या भूषण अरोरा

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