प्रेम-अभागों के लिए जादू-झप्पी

राजेन्द्र भट्ट

नक्कारखाने में तूती – 3

पिछली बार नल-दमयंती की प्रेम- कथा की बात कही थी। नोट कीजिए कि ये प्रेम-कथा हमारे संस्कृत ग्रंथ ‘महाभारत’ में है। बल्कि इस प्रेमकथा में तो शादी से पहले की लंबी ‘कोर्टशिप’ भी है। प्रेम, करुणा, त्याग जैसी उदात्त भावनाएँ हमें बड़ा, शालीन, बेहतर, प्यारा और समृदध बनाती है।

हम आम भाग्यवान लोगों के जीवन में प्रेम है, घर-परिवार-समाज से जुड़े अनुराग-विराग हैं, बांटने को अपनापन है। इसीलिए तो नल-दमयंती की प्रेम-कथा हमें भाती है। तुलसी बाबा के सौम्य, मर्यादा-पुरुषोत्तम राम के जिक्र से हमारी आँखें भर आती हैं, जो गुस्सैल परशुराम जी को भी विनय से जीत लेते हैं। अयोध्याकांड के शुरू में ही संस्कृत श्लोक में तुलसीदास जी ऐसे राम की वंदना करते हैं जिनके सौम्य चेहरे पर न तो राज्याभिषेक के समाचार से न विशेष खुशी दिखी, न वन जाने की बात से निराशा नज़र आई। भाई-भाई में  झगड़ा न हो, इसलिए राज-पाट छोडने में उन्हें ज़रा भी देर न लगी। रावण को भी अंत तक समझाते रहे और व्यक्ति के रूप में उससे कभी घृणा नहीं की। ऐसे मर्यादपुरुषोत्तम से प्रेरित होने की परंपरा तो भाग्यवानों को ही मिलती है।

     नल-दमयंती ही नहीं, जिस प्रतापी भरत के नाम से अपने देश का नाम पड़ा है, उसके माता-पिता शकुंतला-दुष्यंत की – और ऐसी ही अनेक  प्रेम-कथाओं  का सुख लेने, अपना दिल-दिमाग बड़ा और उदार बनाने का सौभाग्य भी हमारा है। कालिदास, भारवि, भवभूति या माघ जैसे कवियों की प्रेम, करुणा, अनुराग-विराग की भाषा और इसके अर्थों से मिलने वाले सुख, बड़प्पन और उदारता की संपदा भी तो हमारी है। इस गंगा-जमनी तहजीब में तो, हिन्दू के राम मुसलमान के भी इमामे-हिन्द हो जाते हैं, वो भी अपनी रामलीला के हिस्सेदार हो जाते हैं।

       इन कथाओं-परम्पराओं से अपने मन शीतल हो जाते हैं। प्रेम और अपनापन – अपने सभी रूपों और रिश्तों में, व्यक्तिगत से देश-समाज के प्रेम सहित  – हमें तन-मन के दुख भूलने-झेलने की शक्ति,  चुनौतियों को झेलने और लक्ष्य पाने की ताकत और प्रेरणा, अपनों के लिए और सभी के लिए  त्याग और बलिदान कर सकने का माद्दा देते हैं।  हमें हर तरीके से बेहतर, बड़ा इंसान बनाते  है। प्रेम पाने से हम इतने खुले-खुले, हरे -भरे हो जाते हैं, उदार और समर्थ हो जाते हैं कि एक बेहतर, उदार, प्रेममय, उम्मीदों से भरा  समाज  बना पाते हैं।

      लेकिन कुछ ऐसे भी प्रेम-अभागे भी होते हैं जिनके जीवन में प्रेम और बड़प्पन नहीं होता। इसकी निम्न  वजहें हो सकती हैं –

   —हो सकता है, उन के डीएनए में ही ऐसी खुदगर्जी  रही हो कि बचपन से ही, हमेशा हर वक्त –  ज्यादा धन, ज्यादा सत्ता, बड़ा पद कैसे बटोरें – की तिकड़मों में ऐसे फंसे रह गए हों कि प्रेम पीछे छूट गया हो और ये सब पा कर भी  अकेले, खड़ूस हो गए।  फिर  ‘मैं’ की खुदगर्जी और बड़बोलेपन के साथ तो प्रेम चल ही नहीं सकता, वहाँ तो ‘तू’ और ‘हम’ की त्याग-बलिदान की भावना ही चलती है।

—हो सकता है कि व्यक्तित्व  में रूप का, शिक्षा का, त्याग-बलिदान और सज्जनता-सौम्यता जैसे गुणों  का, किसी हुनर या साहित्य-संगीत-कला, खेल जैसी योग्यताओं का अभाव हो।

—- या फिर, अपने और कई दूसरे समाजों, खास कर मध्ययुगों के बर्बर, पुरुष-प्रधान समाज में कुछ ऐसी मान्यताएँ, पूर्वाग्रह, कहानियाँ बना दी गई  कि प्रेम बड़ा अनैतिक-अधार्मिक काम  है, खास कर पुरुष-स्त्री का प्रेम । स्त्री पाप की खान है, उससे बचना धर्म है। ज़ाहिर है, ये कतई बेबुनियाद बातें है।  दूसरे, इस अवैज्ञानिक विचार से तो सृष्टि ही आगे बढ़ेगी नहीं, नष्ट हो जाएगी।  फिर स्त्री-विरोधी होने का मतलब तो जन्मदात्री माँ का विरोधी होना होगा।

     -या फिर प्रेम में, असफल हो गए हों, एकतरफा जबर्दस्ती करने पर दुत्कार दिया गए हों और इसे सकारात्मक तरीके से, चुनौती की तरह ले कर खुद को प्रेम-योग्य साबित करने की बजाय कुंठा-ग्रस्त, नेगेटिव हो गए हों।

   जों भी कारण हों , प्रेम न पाने से, अकेलेपन से  उपजी कुंठा जिनमें होती है, वो अभागे-दिलजले हमेशा त्योरियां चढ़ाए, हाथ-मुंह और शरीर से ‘युद्धम देहि’ की मुद्रा में उन्माद फैलाते हैं। अपने मशहूर शायर दुष्यंत कुमार ने , व्यक्तित्व की उदारता  और बड़प्पन को बताने के लिए ‘आकाश सी छाती’ की बात कही थी, अब व्यक्तित्व और समझ में अगर साहित्य न हो, प्रेम न हो, अगर छाती आकाश सी होने बात भी न सोच-समझ सके  तो फिर ऐसे अभागेपन में इंचों में छाती की नाप बतानी पड़ती है। अपनी परंपरा-साहित्य में प्रेम और शृंगार के इतने मोहक-सुंदर, महान प्रसंग-गीत-कविताएं हैं पर  अब  कोई दंड-बैठक तक सीमित रह गया बेपढ़ा, कुसंस्कृत  प्रेम-अभागा पहलवान अपनी बीबी से प्रथम मिलन में यही तो कह सकेगा- ‘पंजा लड़ाएगी?’ आखिर जिसकी जैसी क्षमता होगी, समझ होगी – वही तो कर पाएगा।

आजकल हमारी पीढ़ियों की याद में जो मर्यादा-पुरुषोत्तम, हल्की मुस्कान वाले  सौम्य राम हमें आशीर्वाद और प्रेरणा देते थे, उनकी जगह ऐसे ही अभागों ने एक गुस्सैल, मरने-मारने पर उतारू राम के चित्र आजकल खड़े कर दिये हैं। ऐसे ही अपने हनुमानजी भी तो सौम्यता, विनम्रता की मूर्ति हैं – राम दरबार का कोई चित्र याद करें, या फिर विवेक और विनम्रता से रावण को उनका समझाना याद करें।  पर भक्ति का रस भी  न ले  पाने वाले अभागों ने इस बीच कारों के पीछे के हिस्सों में गुस्से से त्योरियां चढ़ाए, दाँत पीसते हनुमान बना डाले हैं, जो परंपरा में थे ही नहीं।

       तो ऐसे बीमार लोग जब ताकत पा जाएंगे तो साजिशन और उन्माद से, हमारे ग्रन्थों- परम्पराओं  और संस्कृत के बीमार अर्थ हमें बताएँगे और हम ज्यादा बेहतर इंसान बनाने वाली इस परंपरा से वंचित हो जाएंगे। प्रेम से ये  बेचारे खुद वंचित हैं, नल-दमयंती की कथा, दुष्यंत-शकुंतला से लेकर ढोला-मारू, हीर-राँझा तक की परंपरा का रस ले पाने योग्य  नहीं  हैं – इसलिए कभी प्रेम करने वालों को पीटते-जान से मारते हैं, कभी लव-जिहाद किस्म के झूठ खड़े कर समाज में जहर घोलते हैं। प्रेम न मिल पाने की कुंठा सतही नैतिकता के ज्वार में निकलती है। 

      जैसे हमने कहा कि नल की तरह हम सभी अधूरे, सही-गलत के मिश्रण हैं। ये प्रेम-अभागे भी ऐसे ही हैं – तमस थोड़ा ज्यादा हो गया है। घृणा और गुस्सा तो  इनसे भी नहीं करना चाहिए। इन्हें बस मनोवैज्ञानिक इलाज और प्रेम की ऑक्सिजन की सप्लाई चाहिए।

अब इनमें भी दो तरह के प्राणी हैं –

एक तरह के अभागों में कुछ तो थोड़े से तो ऐसे हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में सत्ता और काली कमाई के शिखर पर हैं। ये लोग कैसे न कैसे रसूख या पद-प्रतिष्ठा तो पा गए  हैं पर इनकी अकेलेपन और  खास कर प्रेम न मिलने की कुंठा उन्हें छोडती नहीं। तब ऐसे अभागे घृणा, पाखंड  और झूठ का नरेटिव बना लेते हैं। यहाँ तक पहुँचने में काफी काला-सफ़ेद कर चुके होते हैं, बहुत जहर फैला चुके होते हैं और कई तरह की मानसिक हिंसा कर चुके होते हैं, इसलिए इनका अतीत इन पर भारी हो जाता है। लेकिन अपने धन और सत्ता को बचाए रखने के लिए इन्हें लगातार ऐसे ही काम करने पड़ते हैं जो प्रेम और अनुराग से बहुत दूर होते हैं। कहावत को थोड़ा बदलें तो ये शेर पर –(नहीं, पागल कुत्ते पर) सवार हैं – उतरेंगे तो इन्हीं का ईजाद किया उन्माद का पागल कुत्ता इन्हें ही काट लेगा। ऐसे लोगों को तो छोडना होगा क्योंकि इनका फिलहाल तो कुछ अब हो नहीं सकता। इन्हें तो यहीं छोड़ें।

तो इन्हें यहीं छोड़ें। लेकिन सिर पर पटका बांधे हुए, हाथों में नौ इंची त्रिशूल लिए, त्योरियाँ चढ़ाए सड़क  पर चीखने को जो धर्म, आस्था और संस्कृति समझ बैठे हैं, या रोजी-रोटी, कैरियर के सवालों से ध्यान बटाने के लिए जिनके दिमागों को काल्पनिक धर्म-जाति के शत्रुओं के प्रति आशंका और घृणा से कुंद कर दिया गया है, ऐसे हमारे आस-पास के लोगों के लिए अभी उम्मीद है।

       इनको समझाना होगा कि जिनकी वोटों की खेती के लिए ये सड़कों पर उन्माद और जहर फैला रहे हैं, उनकी तरह ये सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ठेकेदार-नेता-विधायक-मंत्री  तो बन नहीं पाएंगे, क्योंकि ये बेचारे तो धन-साधनों से भी अभागे हैं। बिना लाखों  खर्च किए तो आजकल सरपंच का चुनाव भी नहीं लड़ सकते।  सड़क पर चीखने और अपने प्रेम न मिलने की कुंठा में एंटी-रोमियो ब्रिगेड बन कर चीखने-पीटने में वक्त जाया करेंगे, जयकारे लगाते रहेंगे तो पढ़ाई लिखाई, रोजगार के मतलब का कोई हुनर या फिर गीत-संगीत-पेंटिंग जैसे आर्ट सीखना भी नहीं हो पाएगा। शिक्षा-अभागे, रोजगार-अभागे रहेंगे तो न किसी का प्रेम मिलेगा न ठीक से घर-परिवार का सुख मिलेगा। दो-तीन महीने कांवड़िए बनकर कट जाएंगे, कुछ दिन मार-पीट, दंगा-प्रदर्शन में निकाल जाएंगे – उसके बाद की सोचें तो कितना डरावना  भविष्य है ! नेता विधायक-एम॰पी॰ बन कर दुत्कार देंगे, एकदम अकेले-समाज से अलग-थलग पड़ जाएंगे।

       हम  तो गांधी के देश के लोग हैं। जो विवेकशील  हैं, जिनका जीवन प्रेम और घर-परिवार, मित्रों के अनुराग से भरा-पूरा है।  हमें अपने ही समाज के इन अभागे बंधुओं को  – इनके उन्माद और घृणा के बावजूद – छोड़ थोड़े ही देना है। इन बीमारों को प्यार की ‘जादू-झप्पी’ की ज़रूरत है। इनके शातिर आका तो देंगे नहीं क्योंकि ये प्रेम करना सीख जाएंगे तो उनकी नफरत की राजनीति  की खेती कैसे होगी?  तो ये काम इस देश-समाज को जोड़ने वाले विवेकवान साथियों को ही करना होगा। और प्रेम के इस उपचार की राह भी तो हमारी संस्कृति दिखाती है। इन्हें दुष्यंत-शकुंतला, नल-दमयंती सा प्यार मिले, इन्हें यशोदा माताओं का दुलार मिले, इनके पिता दशरथ जैसे अनुरागी हों, राम-भरत से भाई इन्हें मिलें, कृष्ण-सुदामा सी मित्रताएँ मिलें।

       ऐसा होगा तो इनके मनोरोग दूर होंगे, हताशा-गुस्सा-त्योरियाँ हटेंगी, प्रेम करने वालों और पढे-लिखों से चिढ़ेंगे नहीं, समझ जाएंगे कि एक-दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाने से या समुदायों को आपस में लड़ाने से तो देश-समाज-धर्म नहीं बचता – वो तो पढे-लिखे, शारीरिक-मानसिक रूप से स्वस्थ नागरिक बचाते हैं।  इनका  खुद पर विश्वास बढ़ेगा तो पढ़ेंगे-लिखेंगे और अपना भविष्य संवारेगे। और सबसे बड़ी बात, फिर ये नेताओं की वोट की खेती के लिए खाद नहीं बनेंगे। खाद नहीं मिलेगी तो धूर्त और समाज के सदियों पुराने ताने-बाने को तोड़ने वाले नेताओं की दुकानें भी बंद हो जाएगी। हमें गांधी-नेहरू-पटेल जैसे बड़े कद के नेता मिलेंगे जो वाकई सबको साथ लेकर, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, सांप्रदायिक समरसता के जरिए – सबका विकास करेंगे।  बस, इन प्रेम-अभागों को  अपनेपन का, प्यार की जादू-झप्पी’ का उपचार देना है। और इसका रास्ता तो हमारी सांस्कृतिक परंपरा में ही तो है।  

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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