लोकतंत्र बचाने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता दलों से जुड़ें

विजय प्रताप*

बिलकुल हाल ही में भारत में लोकतन्त्र पर विजय प्रताप* के दो काफी पुराने लेख हमें प्राप्त हुए हैं। उनमें से पहला लेख जिसे हम नीचे दे रहे हैं, पूरे 32 वर्ष पूर्व ‘लोकायन समीक्षा’ नामक पत्रिका के सम्पादकीय के तौर पर लिखा गया था। यह लेख लोकतन्त्र और लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों के विभिन्न आयामों को समेटता है और आज की परिस्थितियों में भी मौजूं है। आश्चर्य है कि चीज़ें किस तेज़ी से बदलती हैं लेकिन फिर भी वो वहीं की वहीं रहती हैं। इस लेख में कई जगह आपको यह महसूस होगा जैसे यह तीन दशक पहले नहीं बल्कि आज लिखा गया है।

मेरा मानना है कि तथाकथित ऊॅंची जाति और मध्यम वर्ग में जन्में युवजनों को राष्ट्रीय संघर्ष और उससे उपजी लोकतांत्रिक व्यवस्था का भरपूर फायदा मिला है। आज हर क्षेत्र में अपने को अभिव्यक्त करने के जो मौके उपलब्ध हैं, समाज में जिस हद तक खुलापन और काम करने की स्वतन्त्रता है, हम उसे पहचानने में अक्षम हैं। लेकिन यदि भारतीय समाज को आगे बढ़ाना है तो हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने तमाम संघर्षों से हमारे लिए जो पाया है, उसे पहचानने और उनके कर्ज को चुकाने के लिए हमें समाज में लोकतन्त्र और उस से मिली समृद्धि.खुशहाली का विस्तार करने में अपनी भूमिका और ज़िम्मेेवारी को सहर्ष स्वीकार करना होगा।

डा. लोहिया कहा करते थे कि समाज को आगे बढ़ाने वाले कामों में दो तरह से अड़ंगा लगाया जा सकता है। एक तरीका आगे.देखू कामों के सीधे-साधे पोंगापन्थी ढंग से विरोध करना है। और यह तरीका कम खतरनाक है। दूसरा तरीका जो कि ज़्यादा खतरनाक है, समाज आगे ले जाने वाले पहले कदम को अधूरा बता कर, नकार कर, चौथे-पांचवे कदम की बात करना है। हमारे नवजात लोकतन्त्र के सन्दर्भ में ऐसी ही स्थिति है। राष्ट्रीय आन्दोलन से लेकर आज तक के लोकतांत्रिक संघर्षों के परिणामस्वरूप (आज जब) समाज में दलित, आदिवासी, देश के पूर्वांचल और अन्य सीमान्त या ‘‘पिछड़े’’ अंचलों में बसे लोगों या तमाम तरह के अल्पसंख्यकों के बीच आज सुगबुगाहट है, तब देश के पूरे अभिजात्य और मध्यम वर्ग ने अपने को लोकतांत्रिक राजनीति की प्रक्रियाओं से काट लिया है। न केवल काट लिया है, बल्कि घोर शुचितावादी शैली में लोकतन्त्र के मुख्य औज़ार ‘‘दल’’ के प्रति पूर्ण उदासीनता का रूख अख्तियार कर लिया है। इन तबकों के कुछ हिस्से उदासीनता की भूमिका से भी आगे बढ़ कर ‘‘दल’’ की सामाजिक साख को खत्म करने वाले तमाम तरह के सामाजिक काम में लगे हैं। उनका मानना है कि वह तो बुनियादी कामों में लगे हैं।

पत्रकार हों या वास्तविक अर्थों में स्वैच्छिक सामाजिक काम करने वाले कार्यकर्त्ता या ‘स्वयं सेवा’ की संस्कृति में सरकारी और विदेशी पैसे के बल पर सामाजिक काम करने वाले हों या विदेशी पूंजी पर आधारित किसी उद्योग में काम करने वाले लोग – कभी देखें उनको राजनीति और दलों पर चर्चा करते हुए। सामान्य पत्रकार अपने समय का एक घंटा भी एक रूपया भी किसी ऐसे काम में लगाने को तैयार नहीं होता है, जिससे उनके कैरियर को कोई फायदा न हो। लेकिन दारू पीने के बाद दलों और उनके भ्रष्टाचार को यह लोग जिस आसानी से कोसते हैं, उससे लगता है जैसे वे हमारे समाज के हिस्से ही न हों। लोकतंत्र का मज़ा हम सब तरह से लूट रहे हैं, समाज के दबे-कुचले तबके चाहे वह किसान हों या आदिवासी या दलित, उनकी मध्यवर्गीय बिरादरी में शामिल होने की दस्तक हम सुनना नहीं चाहते। लेाकतांत्रिक समाज सीमित सदस्यता वाले काले साहबों का क्लब नहीं हो सकता। आम आदमी जो केवल दरी बिछा सकता है, नेता का भाषण सुन सकता है या अपनी बिरादरी के ‘संकट’ में पड़े लोगों को मदद के लिए किसी ‘नेता’ का दरवाजा खटखटा सकता है, उसके लिए समाज और राज चलाने में हिस्सेदारी की कौन संस्था है। मेरी समझ है कि फिलवक्त ‘दल’ के अतिरिक्त और कोई संस्था नहीं है और पिछले कई सालों से इस संस्था का अस्तित्व खतरे में है।

पागल दौड़

हम अपने कूलर और एअरकन्डीशनर वाले कमरों में बैठकर सांस्कृतिक संकट, मूल्यों के संकट, देश की परम्पराओं पर हो रहे आक्रमण, अल्पसंख्यकों की असुरक्षा, राष्ट्रीय एकता पर आये संकट और न जाने किस-किस संकट की बात करते हैं। हमें जांचना चाहिए कि कहीं यह बहसें हमारी निजी पीड़ा और कुंठा की अभिव्यक्ति तो नहीं हैं? आज चारों तरफ ‘पागलदौड़’ का मानस है। कहीं ‘मैं पीछे न छूट जाऊं’ यह मानस केवल धन कमाने वाले लोगों तक ही सीमित नहीं है। तमाम तरह से ‘यश’ कमाने के चक्कर में पड़े हम लोग भी कहीं न कहीं इस व्यक्तिवादी, नीतिविहीन और सामाजिक सन्दर्भों से कटी ‘पागल दौड़’ में लगे हैं। कई बार जब हमारा ‘पीछे छूट’ जाने का भाव तीखा होता है, हमारी आवाज में ‘संकट’ और ‘आपद धर्म’ का शोर बढ़ जाता है। और संकट से मुकाबला करने की बजाय हमारे हाथ-पैर फूल जाते हैं, यदि सच में संकट है तो आपद क्षण में तो कुरबानी दी जाती है, हार-जीत की परवाह किए बगैर।

यदि हमारे लिए लोकतंत्र बहुमूल्य है तो उसको बचाने के लिए आत्मोसर्ग की तैयारी की जानी चाहिए। मेरी राय में ‘संकट’ की बात करने का हक उन्हीं को है जिनकी आत्मोसर्ग की तैयारी हो। अन्यथा हम समाज में आशा की बजाय हताशा फैलाने का कुकृत्य न करें, इससे ढोंग तो बढ़ता ही है साथ ही यथास्थिति और तानाशाही की ताकतों को भी मदद मिलती है। हताशा फैलाने वाले लोग समाज में अच्छे बुरे के बीच फर्क करने की क्षमता को कमज़ोर करते हैं। ज़िन्दगी में तो अच्छे-बुरे ही नहीं कम बुरे और ज़्यादा बुरे के बीच भी चुनाव के मौके आते हैं। लेकिन हताश इंसान या समाज जिसमें बुराई से लड़ने का आत्मविश्वास और भरोसा ही नहीं बचा है, वह कम बुरे को चुनने का जोखिम उठाने की बजाय उदासीन होकर ज़्यादा बुरी शक्तियों की मदद ही कर बैठता है।

आदर्श दल का चेहरा

पत्रकारों के उदाहरण से शुरू करके मैंने अपने पूरे मध्यम वर्गीय, अभिजन और तथाकथित उच्च जाति के चरित्र पर टिप्पणी कर डाली। पर मैं यहां यह साफ कर देना चाहता हूं कि क्रान्तिकारी लोकतान्त्रिक धारा से निकले पत्रकार जैसे मुकुल, मणिमाला या आरएसएस और बिहार आन्दोलन से निकले रामबहादुर राय या एम. एल. धारा के समर्थक अभय दूबे या समाजवादी आन्दोलन से निकले और आजकल पश्चिमी-सांस्कृतिक आक्रमण के खिलाफ जिहाद कर रहे बनवारी की मूल पहचान मैं पत्रकार की नहीं मानता हूँ। यह लोग असाधारण क्षमता, प्रतिभा, और प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं। दुर्भाग्य से समाज में कोई दल है नहीं जहां ऐसे लोग अपने को पूरे तौर पर अभिव्यक्त कर सकें, शायद इसलिए ऐसे लोग पत्रकारिता में हैं। और आज अपने मन मुताबिक ‘दल’ निर्माण की कोशिश भी तो पानी में मथिया चलाने के समान है।

ऐसे कामों में भी जिनमें तत्काल कोई परिणाम निकलने की आशा न हो, समाज के अगुआ लोग करते ही आये हैं। फिर भी प्रतिभावान एवं प्रतिबद्ध लोग जो लोकतान्त्रिक राजनीति के विरोधी नहीं हैं, और ‘‘दल’’ नामक औजार को मौजूदा दौर में लोकतन्त्र का मजबूत खम्भा मानते हैं -दल बनाने के काम में क्येां नहीं लगे हैं ? इस सवाल पर तफ़सील से विचार होना चाहिए।

कहीं न कहीं हमने बहुस्तरीय, विविधतापूर्ण, लम्बी और कई परतों वाली ऐतिहासिक स्मृति के भारतीय समाज में जिस प्रकार का ‘दल’ बन सकता है, उस समझ को खो दिया है। हम उसे विचारधारा की तथाकथित स्पष्टता वाले लोगों की जमात बनाना चाहते हैं। ऐसी जमात अलबत्ता तो सार्वदेशिक स्तर पर किसी एक केन्द्रीय नेतृत्व के सहारे खड़ी नहीं हो सकती और खड़ी हो भी गई तो वह भारतीय समाज को तोड़ने वाली तथा तानाशाही की पार्टी होगी। भारत में पार्टी तो ऐसी चाहिए जो विभिन्न तबकों और समूहों के बीच संवाद और संयोजन का मंच बन सके। ‘दल’ असाधारण लोगों की जमात न होकर साधारण लोगों की असाधारणता को अभिव्यक्त करने के के लिए मंच प्रदान करता है। अन्यथा तो दल अपने को साधारण लोगों से काटकर स्टालिन और देंगे की तरह उनकी हत्या करता है।

पूंजीवाद का शिकंजा

पूंजीवाद को शारीरिक श्रम करने वाला, स्वाधारित, स्वशासी, स्वावलम्बी तथा बहुकेन्द्रित समाज रास नहीं आता। उसका नया इन्सान पूरी दुनिया में सोने, खाने, रोने, हंसने, मकान बनाने, जानकारियां संकलित करने और उनका प्रसार करने, अतीत की स्मृति और भविष्य के सपने, नैतिकता, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय के मानदंडो तथा प्रकृति के प्रति अपने रवैये आदि पर हर दृष्टि से एकरूप होना चाहिए। ‘ज्यादा पाना है’, ‘नित नया पाना है’, ‘सबसे पहले पाना है’ – यह नशा पूंजीवाद को रास आता है। जन विरोधी आधुनिक विकासवाद इसी नशे से पैदा होता है। आज तो रूस और चीन के क्रान्तिकारी और प्रति-क्रांतिकारियों सहित दुनिया का एक बड़ा हिस्सा इस नशे में नाच रहा है। इसे नशे का सबसे ज़बरदस्त दुष्परिणाम और शायद पूंजीवाद का सबसे प्रभावी औज़ार ‘एकरूपता’ के लिए पैदा हुआ आकर्षण’ है। हम इस आकर्षण को बिना जांचे ही ‘आधुनिक’ और ‘प्रगतिशील’’ होने का मानदंड मान बैठे हैं। तथाकथित स्पष्ट वैचारिक आधार पर ऐसे दल निर्माण की इच्छा जिसके सभी सिपाही – नेता या कार्यकर्त्ता एक से दिखें, एक सा बोलें, एक सा व्यवहार करें, पूंजीवाद ने एकरूपता के लिए जो आकर्षण पैदा किया है, उससे कहीं न कहीं जुड़ी है। ‘एकरूपता’ पूंजीवाद का औजार है या ‘आधुनिक विकासवाद’ का, इस पर स्वाभाविक रूप से मतभेद हो सकते हैं।

पूंजीवाद के दो आवश्यक तत्वों एकरूपता और विकासवाद का तो मार्क्सवादियेां ने कभी विरोध नहीं किया, बल्कि इस पागल-दौड़ में यथाशक्ति योगदान ही किया। इस मायने में मार्क्सवादियों ने भी पूंजीवाद, आधुनिक विकासवाद, एकरूपतावाद आदि की और अमेरिकी आर्थिक और सांस्कृतिक नव-साम्राज्यवाद का स्वागत करने वाला मानस बनने में मदद की। इस धारा का लोकतान्त्रिक संघर्षों में भागीदारी और जनवादी होने का दावा अभी भी बरकरार है, इसलिए इसे दल, उसकी भीतरी संरचना, लोकतान्त्रिाक समाज का स्वरूप तथा विरोधियों से राजनैतिक रिश्ते के बारे में पुनर्विचार करना चाहिए।

खैर! लोकतंत्र को विकासक्रम में केवल एक स्टेज मानने वाली धाराएं क्या करें और क्या न करें यह तफ़सील सुझाने वाले हम कौन होते हैं ? फिलहाल तो जो लोकतन्त्र को मानव समाज की शाश्वत आकांक्षा और जरूरत मानते हएैं उन्हीं तक हम अपनी बात सीमित रखें।

लोकतन्त्र की चुनौती

भारत में यदि लोकतांत्रिक और खुले समाज को बने रहना है तो ‘दल’ एकरूप, एक-विचार लोगों का बन्द संगठन न होकर भारतीय समाज की विविधता को प्रतिबिम्बित करने वाला एक आन्दोलननुमा मंच होगा जिसमें कई बार लोग एक-दूसरे के खिलाफ काम करते हुए नज़र आयेंगे लेकिन अलग ढंग से काम करते हुए भी सत्य, समता, लोकतंत्र, विकेन्द्रीयकरण तथा वसुधैव कुटुम्बकम पर आधारित राष्ट्रीयता आदि जैसे मूल्यों पर उनकी आस्था में संशय पैदा होने के अवसर नहीं आयेंगे। एक न्यूनतम कार्यक्रम पर सबकी सहमति होगी। अगला कदम आम तौर से सब यथाशक्ति मिल कर उठायेंगे। लेकिन दल के खुलेपन और लोकतांत्रिकता का मतलब ढीला-ढालापन कतई नहीं है।

व्यक्तिगत आचरण में कठोर अनुशासन और संयम तथा विरोधी के प्रति उदारता ही लोकतन्त्र की राजनैतिक संस्कृति हो सकती है। जो असहमत होंगे, उन्हें अपनी बात न केवल दल में बल्कि सामान्यजन में भी कहने की छूट होगी। मतभेद रखने वालों को ‘दल विरोधी’ और ‘राष्ट्र विरोधी’ की उपाधियों से अलंकृत नहीं किया जायेगा। मेरी समझ से गांधी जी ने कांग्रेस को इसी प्रकार का सामाजिक राजनैतिक आंदोलन बनाने में बहुत दूर तक सफलता हासिल की थी। डा. लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के पीछे भी कुछ इसी तरह का अहसास रहा होगा। लेकिन आज की प्रतिबद्ध और प्रतिभावान पीढ़ी शायद इस प्रकार के दल-आन्दोलन निर्माण के लिए अभी तैयार नहीं है।

राजनैतिक मानस वाले ‘आदर्शवादी लोग’ आज अपनी-अपनी समझ और क्षमताओं के विकास और समाज में व्यापक वैचारिक सहमति के इन्तज़ार में लोकतंत्र के मुख्य औज़ार ‘दल’ को गढ़ने या उसकी रूग्णता को दूर करने की बजाय विविध प्रकार के प्रयोगों में लगे हैं। और चूंकि ऐसे लोग प्रायः सच्चे और मेहनती लोग हैं, इसलिए ‘दल’ में यह न भी हों तो भी किसी औसत कार्यकत्र्ता से इनका योगदान ज्यादा ही होता है। लेकिन इन लोगों के ‘बड़े’ होने, असाधारण होने की वजह से लोकतन्त्र के लिए ऐसे लोग और क्या कर सकते हैं – यह बहस प्रायः दब जाती है। इस प्रकार के युवा नेतृत्व से, जो आज दलों से बाहर विभिन्न तरह के कामों में लगे हैं – मेरा एक विनम्र सवाल है – क्या हम नहीं मानते कि मौजूदा अवस्था मेें यदि गांधीजी के नेतृत्व में भी सरकार बन जाये तो वह भी तमाम तरह की जनाकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पायेगी। मौजूदा सरकार बदल भी गई तो विधानसभा चुनावों का सिलसिला खत्म होने के बाद जल्दी ही निराशा और मोहभंग की स्थितियां पैदा होने लगेंगी।

आज की हालत में कोई भी समूह जो लोकतन्त्र और सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध हो, ‘दल’ के रूप में या किसी भी अन्य रूप में समाज की इस स्थिति से निपटने के लिए तैयारी करता हुआ दिखता है क्या? मेरी राय में कार्यकर्ता पृष्ठभूमि वाले सभी दल-बाह्य लोगों की यह ज़िम्मेवारी बनती है कि वह देश की राजनीति से सच्चे लोकतांत्रिक दलों के नदारद होने और पूरी राजनीति के इन्दिरा-कांग्रेसमय होने से उत्पन्न खतरे का सामना करने के लिए कोई पहल करें। आगामी विधानसभाओं के चुनाव तक का अधिकतम समय हमारे पास है। चुनाव के तुरन्त बाद सामूहिक पहल की कोई सामाजिक अभिव्यक्ति नज़र आनी चाहिए अन्यथा यह अपने कर्तव्य से कोताही होगी। विधानसभा चुनावों तक आपसी सलाह-मशविरे और व्यक्तिगत प्रयोगों को जारी रखा जा सकता है, उसके बाद ‘पहल’ की सामूहिक अभिव्यक्ति दिखनी ही चाहिए। अब कार्यकर्त्ता मानस के लोकतन्त्रनिष्ठ लोगों के बारे में चर्चा के बाद हम फिर मध्यम वर्ग और अभिजात्यवर्ग और लोकतन्त्र के प्रति उनकी ज़िम्मेवारी की सामान्य चर्चा की ओर लौटते हैं।

चक्रव्यूह में अभिमन्यु और मध्यम वर्ग

ऊपर मैंने कुछ प्रतिबद्ध पत्रकारों का ज़िक्र किया है। ठीक इसी प्रकार फिल्म, चिकित्सा विज्ञान, शिक्षा, थियेटर, प्रौद्योगिकी तथा अन्य सभी सामाजिक या प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में आपको प्रतिभावान और प्रतिबद्ध लोग अपने-अपने क्षेत्रों में प्रयोगों में लगे हुए मिल जायेंगे। ऐसे लोग सत्ता-संस्थानों में कीचड़ में कमल की तरह या सत्ता संस्थानों के बाहर चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह पाये जाते हैं। आम तौर पर ऐसे सभी लोग व्यक्तिगत जीवन में किसी न किसी रूप में अकेलेपन को जीते हैं। उन्हें अपने सामाजिक-कर्म में क्या सही है, क्या गलत यह निर्णय करने के लिए ‘नैतिक नेतृत्व’ और सलाह का अभाव काफी खटकता है और इसी तरह कभी बात समझने वालों की, कभी पीड़ा समझने वालों की और कभी शाबाशी देने वालों और तारीफ करने वालों की कमी सालती है। इस ‘थकान’ के काफी भयानक सामाजिक परिणाम हो सकते हैं। मैं कई ‘क्रान्तिकारी मित्रों’ को जानता हूँ जिन्होंने संगठनात्मक ‘असफलताओं’ की वजह से भूमिहीन मजदूरों की बजाय कमर्शियल उत्पादन की खेती करने वाले किसानों के सवाल उठाना शुरू कर दिए हैं। इस समाज की प्रयोगशील प्रतिभाओं में देश का अभिजात्य और मध्यम वर्ग ज़्यादा जिम्मेवारी से रूचि ले तो ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होगी, देश भी आगे बढ़ेगा।

अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के संघर्षों के कारण मध्यमवर्ग और अभिजात्य वर्ग को जो सब मिला है, उस कर्ज़ को चुकाने के लिए आवश्यक है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अवरूद्ध न होने देने में ये कुछ खोकर अपनी भी ज़िम्मेवारी निभाने को तैयार हों। जन और सरकार के बीच सबसे महत्वपूर्ण सेतु ‘दल’ नामक संस्था पर जो संकट है उसके लिए निर्गुण और तोड़क बहसों की बजाय कुछ सगुण और सकारात्मक करें। अभिजात्य वर्ग, मध्यम वर्ग और तथाकथित ऊंची जाति में जन्मे लोगों की ज़िम्मेवारी इस मामले में ज़्यादा है। विश्व-बिरादरी और विश्व-अर्थव्यवस्था में हमारा आज जो भी स्थान है, उससे हम सब लाभान्वित हुए हैं। और आज भी हम व्यक्तिगत तथा वर्गीय स्तर पर इन लाभों में इजाफे के लिए ‘‘पागल दौड़’’ में शामिल हैं। लोकतन्त्र का संकट, दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार, चाटुकारिता तथा सिद्धान्तविहीन राजनीति या यों कहिये कि राजनैतिक दलों की राजनैतिकहीनता की स्थिति के लिए ‘पागल दौड़’ में हमारी भागीदारी और अपने ही समाज के दबे-कुचले लोगों के लिए हमारी संवेदनशून्यता ज़िम्मेवार है। हम बदलें, हमारी जातीय-वर्गीय पृष्ठभूमि के लोग बदलें और लोकतन्त्र के प्रति अपनी भूमिका का खाका स्पष्ट करें और उसे निभायें तो लोकतन्त्र और दल दोनों का चेहरा बदलेगा।

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*विद्यार्थी-काल से ही राजनीति में सक्रिय विजय प्रताप, पिछले पाँच दशकों से देश की लोकतान्त्रिक समाजवादी धारा से सम्बद्ध रहे हैं। 1975 में जब दिल्ली स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स में समाज शास्त्र के विद्यार्थी थे तो आपात काल में 19 महीने के लिए जेल में रहे। जेल से छूटने पर देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों और सक्रियकर्मियों के बीच सेतु का काम किया और प्रसिद्ध समाजशास्त्री रजनी कोठारी एवं अन्य लोगों के साथ लोकायन की स्थापना की। फिर 1998 में वसुधेव कुटुंबकम की स्थापना की और तदुपरान्त ‘हेलसिंकी प्रोसैस’ से जुड़े। इन्हीं प्रक्रियायों को आगे बढ़ाते हुए भारत में वर्ल्ड सोशल फ़ोरम को लाने में हिस्सेदारी की और फिर साउथ एशियन डायलॉगज़ ऑन इकोलोजिकल डेमोक्रेसी (SADED) (हरित स्वराज संवाद) की स्थापना की। लोकायन की हिन्दी पत्रिका के संपादक और अंग्रेज़ी पत्रिका के संयुक्त संपादक रहे।  बीच-बीच में अखबारों-पत्रिकाओं में लेख भी लिखे और सिविल सोसाइटी के परिप्रेक्ष्य से लोकतन्त्र पर तीन पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं।  

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1 COMMENT

  1. सही सवाल उठाने का अच्छा प्रयास है। बधाई।
    अब यह भी याद रखना जरूरी है कि आज दल कहां पहुंच गए या पहुंचा दिए गए है।
    उनकी दिशा और दशा क्या है। उन पर कैसे लोगों का कब्जा है। धन कुबेरों से उनकी सांठ-गांठ छुपी हुई नहीं है।
    धन, हिंसा, दंगे, सत्ता महाठगिनी का दुस्साहस, असामाजिक तत्वों का मकड़जाल, दलों की दल दल , स्वार्थपूर्ति, नंगापन, गुटबाजी, तानाशाही, लूट, कब्जा, साम्प्रदायिकता, अलगाव, कड़वाहट, खरीद-फरोख्त, चुनाव जीतने के लिए किसी हद तक गिर जाना, दलों के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभाव जैसे सवालों पर भी विचार, चिंतन मनन करने की आवश्यकता है।
    लोकतांत्रिक व्यवस्था के सुधार पर ध्यान देना जरूरी है।
    संवाद संपर्क का अच्छा प्रयास है। साधुवाद।
    शुभकामनाओं सहित सादर जय जगत।
    रमेश चंद शर्मा

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