‘इंडिया’ गठबंधन : काँग्रेस की संभावित बढ़त से ही आशंकित हैं घटक दल

राजकेश्वर सिंह*

‘राजनीति में हमेशा दो और दो का जोड़ चार ही नहीं होता’। यह कहावत काफी चर्चित है और सियासत में कई बार इसकी नजीर देखने को भी मिलती है। इन दिनों देश के विपक्षी दलों की राजनीति कई बार जिस तरह की करवट बदलती दिखती है, उससे लगता है कि लगता है कि जरूरी नहीं कि उनके गुणा-भाग नतीजा वैसा ही निकले, जैसा कई बार दावा किया जाता है। शायद यही वजह है कि राजग सरकार, खासतौर भाजपा को अगले लोकसभा चुनाव में केंद्र की सत्ता से बाहर रखने की रणनीति पर पूरी तरह एकजुट दिखने बावजूद ‘इंडिया’ गठबंधन (इंडियन नेशनल डवलपमेंटल, इंक्लूसिव अलाएंस) में अब भी कई तरह के अंदरूनी किंतु-परंतु बने हुए हैं।

गठबंधन के कई घटक दल पांच राज्यों के आगामी विधानसभाओं के चुनावों के मद्देनजर आपस में ही उलझने की तरफ बढ़ते दिख रहे हैं। गठबंधन के कुछ दल तो ऐसे भी हैं, जो भाजपा को रोकने की रणनीति में तो सबके साथ हैं, लेकिन कांग्रेस की बढ़त आशंका भी उन्हें कम परेशान नहीं कर रही है। तभी तो कुछ समय पहले तक उफान पर दिख रहा ‘इंडिया’ गठबंधन का जोश फिलहाल कुछ ठंडा पड़ता दिख रहा है। संकेत हैं कि अब पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव नतीजों को देखने के बाद ही गठबंधन की रणनीति नए सिरे से परवान चढ़ेगी।

  भाजपा के खिलाफ 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों से अलग इस बार हुई विपक्षी एकजुटता की अब तक की पूरी कवायद पर नजर डालें तो यह साफ है कि गठबंधन के सभी घटक दल आगामी लोकसभा चुनाव में राजग/भाजपा  को रोकना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए इन पार्टियों में जिस आपसी विश्वास, और समझदारी की दरकार है, वह फिलहाल नहीं दिख रही है। इंडिया गठबंधन की पटना, बंगलुरु और मुंबई में हुई बैठकों में उसके बड़े घटक दल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में सीट बंटवारे जैसे कुछ अहम मुद्दों पर अपनी बात भले ही स्पष्ट कर दी हो, लेकिन पांच राज्यों के आगामी चुनावों में घटक दलों के तौर-तरीकों को देखकर लगता है कि काँग्रेस की मुश्किलें उसके ये नए साथी ही बढ़ाने वाले हैं। खासतौर से उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल के क्षत्रपों को साध पाना उसके ले अब भी बहुत आसान नहीं है।

उधर, केरल में भी एक अलग तरह की समस्या के संकेत हैं। राज्य में एलडीएफ व यूडीएफ दो गठबंधन ही अरसे से चुनाव लड़ते आ रहे हैं। एलडीएफ की अगुवाई मुख्य रूप से वामदल (माकपा-भाकपा) करते हैं, जबकि यूडीएफ की अगुवाई कांग्रेस करती है। वामदल अब काँग्रेस के साथ ही ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी अभी केरल की वायनाड सीट से सांसद हैं। 2024 में दोनों ही गठबंधन चुनाव लड़ेंगे और दोनों ही अपने अस्तित्व को मजबूती से बनाए रखने का प्रयास करेंगे। राहुल गांधी यदि वायनाड से फिर चुनाव लड़ते हैं तो कांग्रेस के लिए राज्य की दूसरी लोकसभा सीटों पर भी उसका असर होगा। तब एलडीएफ को नुकसान की गुंजाइश बन सकती है। उस स्थिति को बनाने से पहले एलडीएफ कांग्रेस के सामने कोई ऐसा भी प्रस्ताव सकती है, जिससे वह असहज हो। वैसे भी ‘इंडिया’ गठबंधन में होने के बावजूद इसकी समन्वय समिति में वामदलों ने अब तक दल अपना सदस्य नहीं नामित किया है। इस बात की पूरी गुंजाइश है कि वह आगे भी उसमें अपना कोई सदस्य नहीं भेजेगी, जबकि गठबंधन की मुंबई बैठक के बाद कहा गया था कि वामदल समन्वय समिति के लिए अपने सदस्य का नाम बाद में बताएंगे।

वैसे तो ‘इंडिया’ गठबंधन के सभी घटक दलों में से कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जो देश के सभी राज्यों में लोकसभा चुनाव लड़ती है और उसमें भी कई राज्यों में वह भाजपा से सीधी लड़ाई में रहती है। ज़ाहिर है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसे उन राज्यों में सीट बंटवारे की समस्या का सामना नहीं करना होगा। इसके अलावा बिहार, झारखंड, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में प्रभावी दलों के साथ उसका गठबंधन पहले से चला आ रहा है, लिहाज़ा सीटों के बंटवारे में वहां भी किसी बड़ी दिक्कत की कोई गुजाइश कम ही है।

ऐसे में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहां क्रमश: समाजवादी पार्टी (सपा) और आम आदमी पार्टी (आप) भाजपा से सीधी लड़ाई में है, जबकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस न सिर्फ भाजपा, बल्कि वामदलों व कांग्रेस  खिलाफ ही चुनाव लड़ती है। इन राज्यों में लोकसभा की कुल 142 सीटें हैं। जाहिर है कांग्रेस इन राज्यों में भी अपने लिए पर्याप्त सीटों की उम्मीद लगा सकती है, जबकि वहां गठबंधन के ताकतवर दल कांग्रेस को कितनी जगह देंगे, यह सवाल बड़ा है।

बताया जाता है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने गठबंधन में शामिल ऐसे सभी राज्यों के  क्षत्रपों को साफ कर दिया है कि सीट बंटवारे उन लोगों की मर्जी को ही प्राथमिकता रहेगी और वही तय करेंगे कि वहां किस तरह बंटवारा हो, फिर भी कांग्रेस को लेकर कई क्षेत्रीय दल आशंकित हैं। कई राज्यों में ऐसे दल बड़ी राजनीतिक हैसियत में हैं, जो कांग्रेस के वोट बैंक को छींनकर ही बुलंदी पर पहुंचे हैं, जबकि कुछ राज्यों में अल्पसंख्यकों मुख्य रूप से मुसलमानों ने जबसे कांग्रेस का साथ छोड़ा, तब से वह हाशिए पर ही ही है।

लेकिन फिर यह भी सच है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी और उनकी पार्टी बीते वर्षों में भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार सरकार पर जिस तरह हमलावर रही है, उससे उसने विपक्ष के भीतर अपना एक खास मुकाम बनाया है। साथ ही कर्नाटक और हिमाचल राज्य विधानसभा चुनावों में हुई जीत ने भी राष्ट्रीय राजनीति में उसका कद काफी बढ़ाया है। कहना गलत नहीं होगा कि कर्नाटक का चुनाव जीती भले ही कांग्रेस हो, सुस्त व असहाय से दिख रहे देश के विपक्षी दलों को फिर से खड़े होने की संजीवनी उसी के बाद मिली। उसके बाद ही धीरे-धीरे यह माहौल बनाने लगा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ी जा सकती है और उसके बाद ‘इंडिया’ गठबंधन के रूप में एक सशक्त विपक्ष की तस्वीर सामने है। शायद इन्हीं बदली राजनीतिक परिस्थितियों के चलते कांग्रेस फिलहाल उभार की तरफ है और उससे उन राजनीतिक दलों में इस आशंका का जन्म लेना स्वाभाविक है कि कांग्रेस के फिर से खड़ी होने में उनका नुकसान भी हो सकता है। पूरी तरह भले न सही, लेकिन कांग्रेस को लेकर ‘इंडिया’ गठबंधन के कुछ दलों में परेशानी की इस स्थिति से इनकार भी नहीं किया जा सकता।

खैर, दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप संयोजक केजरीवाल ने ‘इंडिया’  गठबंधन के सामने पूर्व में यह बात रखी थी कि 2024 लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे के फार्मूले को इसी सितंबर महीने तक साफ कर दिया जाना चाहिए, लेकिन वैसा हुआ नहीं। आम आदमी पार्टी इसी साल होने वाले राज्य विधानसभाओं के चुनाव में हिस्सा लेने वाली है, दिल्ली कांग्रेस के कुछ नेताओं को यह बात नागवार गुजर रही है। उन्हें लग रहा है कि केजरीवाल कांग्रेस की जीत को कमजोर करना चाहते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति पंजाब में भी कांग्रेस और आप के बीच चल रही है। इसके अलावा कांग्रेस की दिल्ली राज्य इकाई केजरीवाल सरकार के खिलाफ हमलावर रहती ही है।

इस बीच, समाजवादी पार्टी ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने प्रत्याशियों की घोषणा करना शुरू कर दिया है। जानकारी के मुताबिक वह राजस्थान व तेलंगाना विधानसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी उतरेगी, जबकि उन राज्यों में भाजपा व भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के सामने कांग्रेस सीधी लड़ाई में है। मीडिया में यह बात अब आम होने लगी है कि इन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस सपा के लिए कितनी सीटें छोड़ती है, लोकसभा चुनाव में उसी आधार पर वह कांग्रेस के लिए सीटें छोड़ने का फैसला करेगी। गौरतलब है कि  कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष ने कुछ दिनों पहले कहा था कि उनकी पार्टी प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। बाद में सपा की ओर से कहा गया था कि समाजवादी पार्टी तो खुद दूसरों के लिए सीटें छोड़ती है। सीट बंटवारा कोई मसला नहीं है। उसका इशारा कांग्रेस की तरफ था। वह रायबरेली और अमेठी सीट पर कांग्रेस के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारती है। पश्चिम बंगाल में भी कुछ ऐसा ही हो सकता है, जहां लोकसभा सीट बंटवारे में ममता बनर्जी की ही चलेगी, जबकि ‘इंडिया’ गठबंधन में होने के बावजूद वामदल, तृणमूल व भाजपा दोनों के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। इसके अलावा यह भी गौर करने वाली बात है कि कांग्रेस और टीएमसी नेताओं के बीच एक दूसरे के खिलाफ जुबानी जंग लगातार तेज होती जा रही है। कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी मुख्यमंत्री पर सीधा हमला कर रहे हैं, तो टीएमसी नेता उन्हें उनकी हद में रहने की हिदायत दे रहे हैं।

दरअसल, ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों के बीच इन परिस्थितियों के बनने की कुछ स्वाभाविक वजहें भी हैं। हर दल चाह रहा है कि उसे ज़्यादा  से ज़्यादा  लोकसभा सीटों पर लड़ने का मौका मिले, जबकि कांग्रेस की कार्यशैली से साफ है कि वह ‘इंडिया’ गठबंधन की अगुवाई करना चाहती है। साथ ही जिन राज्यों में उसकी सरकार है, वहां वह गठबंधन के दूसरे दलों के लिए ज़्यादा  सीटें नहीं छोड़ना चाहती। उसे इसी साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपने बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है और यदि वह उसमें सफल होती है तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में उसकी हैसियत बढ़ी हुई होगी और घटक दल उसे आसानी से नज़रअंदाज़ नहीं कर पाएंगे। माना जा रहा है कि कांग्रेस ने इसीलिए लोकसभा सीट बंटवारे का मामला विधानसभा चुनावों तक के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया है।

गौरतलब है कि कुछ समय पहले कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग हैदराबाद में हुई थी, जिसमें लोकसभा सीट बंटवारे के मुद्दे पर भी चर्चा हुई थी। मोटे तौर पर कांग्रेस देश भर में लोकसभा की कम से कम 350 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है, इसलिए वह राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजे देखकर ही आगे बढ़ना चाहती है। स्वाभाविक है कि गठबंधन के घटक दल कांग्रेस की इस अघोषित रणनीति को लेकर आशंकित हैं। तो पिक्चर अभी बाकी है दोस्त!

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से कुछ  आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।



1 COMMENT

  1. अच्छा विश्लेषण।
    मोदी का डर विपक्षी एकता का मूलमंत्र है, कोई नीतिगत एकता नहीं।
    अंदरखाते सभी विपक्षी दल कांग्रेस से भी डर रहे हैं कि वह अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए उनका उपयोग कर सकती है।

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