हे मूर्खते, जीती रहो (मुदित प्रसंग 3)

राजेंद्र भट्ट

शिक्षा पर मेरे पिछले लेखों (यहाँ, यहाँ और  यहाँ,  और हाल ही में मुदित प्रसंग के बहाने यहाँ और यहाँ) में आए मुद्दों के अलावा एक और मुद्दे की तरफ ध्यान चला जाता है – प्रोफेशनल्स के बारे में। आज विद्यार्थी की सफलता का एक बड़ा पैमाना है, ‘प्रोफेशनल’ हो जाना; और इसकी सबसे प्रमुख राह इंजीनियरिंग में एड्मिशन के साथ शुरू होती है।

बात इंजीनियरी की हो तो भारतीय इंजीनियरी के शिखर-पुरुष भारत-रत्न एम. विश्वेश्वरैया (1861-1962) का जिक्र आ जाता है जिनका जन्मदिन (15 सितंबर) भारत ही नहीं, श्रीलंका और तंजानिया में भी ‘इंजीनियरी दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। अनेक जीवनदायी बांधों, बन्दरगाहों, जल-प्रदाय व्यवस्थाओं की इंजीनियरी के वे सूत्रधार रहे। साथ ही, मैसूर रियासत के कुशल, जन-हितैषी, आधुनिक सोच के दीवान और कन्नड भाषा-साहित्य के मर्मज्ञ और कन्नड परिषद के प्रणेता रहे।

आम तौर पर अपने ‘प्रोफेशनल्स ’ की बुनियाद विज्ञान-विषयों की शिक्षा से होती है, इसलिए विश्वेश्वरैया  जी के समकालीन अनेक अन्य असाधारण महामानवों की याद आ जाती है, मिसाल के तौर पर सत्येन्द्रनाथ बोस, होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई। इंजीनियरी के अलावा ‘प्रोफेशनल’ होने की एक और राह मेडिकल शिक्षा की तरफ भी जाती है, लेकिन कमाई शुरू कर पाने या अफसर बन पाने की यह बहुत ज्यादा साल लग जाने वाली, ज्यादा खर्चीली राह है। खानदानी धंधा होना भी काफी ज़रूरी होता है, इसलिए इधर ट्रैफिक थोड़ा कम रहता है। बहरहाल, डॉक्टर का जिक्र होते ही, हमारे बचपन में एक आदर्शवादी फिल्म‘डॉक्टर कोटणीस की अमर कहानी’ की याद दिलाई जाती थी – उन द्वारकानाथ कोटणीस की जिन्होंने विपदाग्रस्त चीन में, चिकित्सा के जरिए लोगों के दुख-दर्द मिटाने में जीवन समर्पित कर दिया।

इन सभी ‘प्रोफेशनल्स ’ में कुछ समान विशेषताएँ थीं – कला, साहित्य, संगीत के विविध पक्षों के प्रति आत्मीय अनुराग और जानकारी, अपने समाज की गहरी समझ, समाज केकल्याण के प्रति समर्पित जीवन और अपने वैज्ञानिक विषय में नए क्षितिज छू लेने केभाव-भरे सपने। जाहिर है, गहन विपदाओं और चुनौतियों के बीच भी ये लोग हारने, हताश होने वाले नहीं थे, जिंदगी की जीत पर यकीन रखने वाले थे।

लेकिन पिछले दिनों, इंजीनियर-निर्माण की सबसे बड़ी कोटा-फैक्ट्री/नगरी में तीन किशोरों ने आत्महत्या कर ली। आखिर समाज को दिशा देने वाले, विश्वेश्वरैया -सत्येंद्र बोस-भाभा-साराभाई की आत्मबल, विवेक-सम्पन्न परंपरा वाले युवा इतने कमजोर कैसे हो गए कि मात्र एक प्रतियोगिता में पिछड्ने के भय से आत्महत्या की विवेकहीन, कायर राह पकड़ ली! उनका व्यक्तित्व इतना सतही, इकहरा, इतना दृष्टिहीन कैसे बना कि मात्र एक प्रतियोगिता, एक राह के बंद होने के भय, ‘पैकेज’ से वंचित हो जाने के भय के आगे उन्हें दूसरी कोई राह ही नहीं सूझी! इन युवा संभावनाओं की आत्महत्याओं के जिम्मेदार डरावने कारकों और प्रवृतियों की एक प्रतीकात्मक साकार छवि को साझा करता हूँ ताकि इन्हें बेहतर तरीके से पहचाना जा सके।

वह मेरे एक सहकर्मी थे। प्रॉपर्टी-शेयरों की स्थायी चर्चा के अलावा, मेरे मन में उनकी सबसे प्रमुख स्मृति यह है कि उन्हें इस बात से कुढ़न और आश्चर्य होता था कि सरकारी नौकरी मिल जाने, घर-गृहस्थी हो जाने के बाद भी, मैं (उन्हीं के मुहावरे में) ‘बेफजूल’ मैगजीनें-किताबें क्यों पड़ता हूँ! वह अपने बेटे को आईआईटी कराने पर आमादा थे। बच्चे की रुचि पूछकर उसे उसी दिशा में आगे बढ्ने में मदद करने के मेरे सुझाव पर उन्होंने चिढ़कर, अपने ही बेटे को (आदतन) माँ की गाली देते हुए कहा –‘उसकी ‘चॉइस’ की ऐसी-तैसी। —–को रगड़-रगड़ कर आईआईटी कराऊंगा। रात नौ बजे तक ट्यूशन लगा रखे हैं। मैंने तो कह दिया है, फिर भी नहीं निकला, तो —-में भूसा भर कर, नंगा करके घर से निकाल दूँगा।“ उन्हें आप ऐसा साकार प्रतीक मान सकते हैं, जो किशोरों को हांक कर ऐसे बाड़े में डाल देते हैं – जहां संवेदनहीन क्रूरता है, हताशा है, अकेलापन-इकहरापन है, उचाट अलगाव है – और युवा उमंगें-सपने कतई नहीं हैं।

इस बाड़े की भयावहता को इन प्रोफेशनल प्रवेश परीक्षाओं को ‘क्रैक’ करने की वे प्रणालियाँ-पाठ्यक्रम गहरा कर देते हैं जिनमें न्यूनतम विषयों के न्यूनतम हिस्सों को घोट डालने पर ज़ोर है। जहां मानविकी विषयों और साहित्य को पढ़ने और अपने घर-परिवार-समाज-खेत-खलिहान की समझ से सख्ती से बचा जाता है। जहां ज़रूरी विज्ञान-गणित के हिस्सों को पढ़ने पर भी, इन विषयों से प्यार करने, इन्हें गहराई से समझने, इनमें रिसर्च कर, वैज्ञानिक बनकर नया कुछ जोड़ने, इनके जरिए अपने देश-समाज को कुछ देने के किशोर अरमानों, सपनों से सावधानी से बचा जाता है। इन अभागे अर्जुनों को केवल ‘क्रैक’ और ‘पैकेज’ की घूरती हुई चिड़िया की आँख देखने के लिए ‘कंडीशन’ किया जाता है, ताकि आस-पास का हरीतिमा-भरा परिवेश न दिखे और निशाना ‘डिस्टर्ब’ न हो। उनके जीवन में, इन विषयों से जुड़ा रोमान और सपने न हों। वे विश्वेश्वरैया -सत्येंद्र बोस-भाभा-साराभाई जैसे बड़े सपनों और विजन वाले महामानव न बनें, ‘पैकेज’ की मोटाई देख पाने वाले ‘मायोपिया’ से ग्रस्त लघु मानव ही रहें।

कमजोर और बीमार युवा बनाने में अगला योगदान उन बहुत सारे ‘सर’ लोगों का है, जिनके नाम और फोन नंबर के प्रिंट आउट मुहल्लों में जगह-जगह चिपके होते हैं, जो स्कूल की मुख्य नौकरी को ‘पार्ट टाइम’ महत्व देते हुए, बाकी बचे समय में रात-दिन स्कूल और ‘प्रोफेशनल’ प्रवेश परीक्षाओं में ढेर सारे नंबर लाने के ‘मेड इजी’ नुस्खे बेचते हैं। पिरामिड में इनके ऊपर ऐसी ही शिक्षा बेचने के संस्थान हैं, जिनके पूरे पेज के विज्ञापन अखबारों के पहले पृष्ठ पर होते हैं। उन विज्ञापनों में, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की दौड़ में, भारी ट्यूशन दे पाने में समर्थ, चोटी के धावक बालक-बालिकाओं के चित्रों के साथ सफल सौदागर ‘सर’ और बड़े-बड़े रिटायर्ड़ ब्यूरोक्रेटों के फोटो होते हैं, जो शिक्षा की इन दूकानों का विज्ञापन करते हैं। ये रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट समर्पित लोक-सेवा के अपने अनुभवों से प्रेरित नहीं करते, ट्यूशन की दूकान की मदद से मिल सक्ने वाली ‘पॉवर’ और पैसे की चकाचौंध को प्रदर्शित करते हैं।

और इन सब के बाद, परीक्षा के प्रश्न-पत्रों को सतही बनाने तथा सौ में सौ नंबर तक पा जाने की प्रणाली है। संभवतः शेक्सपियर को अपने नाटकों, तुलसीदास जी को राम-कथा और आइन्स्टाइन को अपने सापेक्षता के सिद्धान्त, या फिर फ्रायड, ग्राम्सी, लास्की, पाणिनी को अपने-अपने विषयों की परीक्षा में सौ में 98 से 100 तक नंबर न मिलें, क्योंकि किसी भी विषय का गंभीर ज्ञान तो असीम, और इसीलिए संभावनाओं और उल्लास से भरा होता है। पर हमारे अभागे नौनिहाल 95 नंबर ला कर भी असफलता का दंश झेलते हैं। विषयों के समग्र ज्ञान और उनकी समझ के सुख से वंचित इन युवाओं को एक अंधेरी सुरंग में दौड़ा दिया जाता है जिसके एक सिरे पर पैकेज और दूसरे सिरे पर हताशा, डिप्रेसन और आत्महत्या है।

ऐसी शिक्षा से मिले पैकेज के भी सुख क्या हैं? ये साहित्य, कला, संस्कृति की उदात्तता और उल्लास से वंचित हैं, ये देश-समाज से जुड़ाव से वंचित हैं, ये अपने विषय के ज्ञान की उड़ान,अनुराग, सुख और गहराई से वंचित हैं। ये इंजीनियर हैं, लेकिन इनकी इंजीनियरी इन्हें विश्वेश्वरैया  जैसा समग्र और जन-प्रिय नहीं बनाती। ‘इंजीनियरिंग बेंट ऑफ माइंड’ के रोमांच से ये वंचित हैं। ये किसी विषय से अनुराग से वंचित हैं। इस इंजीनियरी में निर्माण का सुख नहीं है, यह ‘वर्चुअल’ – आभासी, कमरे में बंद, लैपटॉप-सज्जित भावहीन इंजीनियरी है, फिर उससे भी जि एक झटके से नाता तोड़ कर ये एमबीए हो कर पैकेज या सरकारी अफ़सरी ‘मैनेज’ करने की दौड़ में जुट जाते हैं। अब तो प्रेम और विवाह में भी कुंडली-मिलान की जगह ‘पैकेज’ मिलान होने लगा है और इससे प्राप्त सुख अपने घर-परिवार-समाज-विषय से जुड़ाव में नहीं है, बल्कि खाने, पहनने और दिखावे के ऑन लाइन महंगे से महंगे पैकेट मंगाने, अहम के हल्के से हल्के गुब्बारे बनाकर सुख तलाशने, ‘वर्चुअल गेम्स’ में खुद को खुद से भुलाए रखने के सारहीन सुख हैं। इस दौड़ में विफलता तात्कालिक आत्महत्या का कारण है लेकिन इसमें तथाकथित सफलता भी दिशाहीन, स्वप्नहीन आत्महंता प्रवृत्ति का लंबा विस्तार है। यह जीवन समग्र नहीं, सतही-छिछोरा है।

एक शताब्दी पहले, 1913-14 में, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत भारती’ काव्य-रचना की थी। उसमें दिशाहीन-आदर्शहीन शिक्षा को फटकारता यह प्रसंग, उस समय के ज्ञानमूढ धनिक-पुत्रों का है –

श्रीमान शिक्षा दें उन्हें तो श्रीमती कहती वहीं।

घेरो न लल्ला को हमारे नौकरी करनी नहीं।

शिक्षे, तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी।

हे मूर्खते, जीती रहो, रक्षक तुम्हारे हैं धनी।

आज के संदर्भ में कितनी प्रासंगिक कविता है! अगर आप कुछ पल आँखें बंदकर सोचें तो इस कविता के श्रीमती, लल्ला, नौकरी (पैकेज), शिक्षा और मूर्खता – नए रूपों में आस-पास नज़र आने लगते हैं। हमारी संभावनाओं से भरी युवा पीढ़ी को धीरता-गंभीरता-समग्रता के अभाव, ज्ञान-विज्ञान और समाज के अनुराग से रहित, सपनों से वंचित, दिशाहीन और अंततः आत्महंता बनाने वाली शिक्षा से बचाना ही होगा।

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शिक्षा की इस श्रंखला को यहीं विराम देते हैं। जैसा शुरू में कहा था, यह विषय ऊन के उलझे धागों जैसा है। कुछ उलझे धागों को सुलझाने, कुछ विसंगतियों को साझा करने का मैंने प्रयास किया। अगर इन धागों को सुलझाने का क्रम हमारे पाठक और मित्र जारी रख सकें, तो यह प्रयास सार्थक हो सकेगा।

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*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

3 COMMENTS

  1. शिक्षा संबंधी लेखों की इस श्रृंखला के तीनों
    आलेख न‌ई दृष्टि प्रदान करते हैं। अनेक मिथ और भ्रम करते हैं।
    राजेन्द्र भट्ट का परिश्रम और अनुभव सराहनीय है।
    उम्मीद है यह सिलसिला जारी रहेगा।

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