गैर-ज़िम्मेवार इलक्ट्रोनिक मीडिया

आखिरी पन्ना

आखिरी पन्ना’उत्तरांचल पत्रिका के लिए लिखा जाने वाला एक नियमित स्तम्भ है। यह लेख पत्रिका के नवम्बर 2019 अंक के लिए लिखा गया।

हम इस कथन से पूर्णत: सहमत हैं कि पत्रकारिता का काम ही ये है कि वो सत्ता से यानि सरकार से और शक्तिशाली लोगों से सच बोले। अगर पत्रकारिता ही चाटुकारिता में लग जाएगी तो फिर मामला मुश्किल हो जाता है और उत्तर भारत की पत्रकारिता में तो हम स्पष्टतः वही लक्षण देख रहे हैं। हम इस कथन से पूर्णत: सहमत हैं कि पत्रकारिता का काम ही ये है कि वो सत्ता से यानि सरकार से और शक्तिशाली लोगों से सच बोले। अगर पत्रकारिता ही चाटुकारिता में लग जाएगी तो फिर मामला मुश्किल हो जाता है और उत्तर भारत की पत्रकारिता में तो हम स्पष्टतः वही लक्षण देख रहे हैं।

इलक्ट्रोनिक मीडिया यानि हमारे हिन्दी न्यूज़ चैनल तो एकदम युद्धोन्मादी हो गए हैं और या फिर सांप्रदायिकता जैसे नाज़ुक मसलों पर वो ऐसे कार्यक्रम आयोजित करते हैं जैसे उन्हें इस बात की ज़रा भी चिंता नहीं कि कहीं उनके द्वारा बहस के लिए बुलाये गए मेहमान ऐसी बातें तो नहीं कर रहे जिनसे सांप्रदायिकता का माहौल बन सकता है या फिर और ज़्यादा बिगड़ सकता है।

यह कहना तो सही नहीं होगा कि समझ नहीं आ रहा कि न्यूज़ चैनल्स ऐसा क्यों कर रहे हैं क्योंकि बीच-बीच में ऐसे स्पष्ट संकेत मिलते रहते हैं जिनसे ये समझ आ जाता है कि सांप्रदायिकता का ऐसा खुला खेल किसको सबसे ज़्यादा रास आ रहा है। फिर ये भी बात है कि जब सैयां भाए कोतवाल तो डर काहे का और उसी निडरता में चैनल एक दूसरे से अच्छी खबरें परोसने में नहीं बल्कि सांप्रदायिकता और युद्धोन्माद परोसने में एक दूसरे से प्रतियोगिता करते दिख रहे हैं।

उन चैनल्स को तो छोड़िए जो टीआरपी बटोरने के लिए इस गंदगी में उतर रहे हैं, यहाँ तो इंडिया टुडे जैसे प्रतिष्ठित मीडिया हाउस के हिन्दी के सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले न्यूज़ चैनल आजतक ने पिछले दिनों ऐसी डिबेट्स चलाईं जिन्हें देखकर चिंता होने के साथ-साथ शर्म आती है। शर्म इसलिए आती है कि ये हम कैसे लोकतन्त्र में रह रहे हैं जहां खुले आम अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरत फैलाई जा रही है और समाज के किसी भी हिस्से में उसके खिलाफ कोई सुगबुगाहट नहीं है।

कितने अफसोस की बात है कि कोई ये नहीं पूछ रहा कि मीडिया जिसका काम सत्ता को आईना दिखाना होता है, वह क्यों और किन परिस्थितियों में ऐसी हालत में पहुँच गया है कि कुछ वर्षों पहले तक सबसे ज़्यादा ज़िम्मेवार समझे जाने वाले चैनल भी अपने कार्यक्रमों को शीर्षक ही ऐसे दे रहे हैं जो सामान्य हालातों में घोर आपत्तिजनक माने जाएँगे। उदाहरण के लिए इसी चैनल पर ‘देश’ नमक एक स्लॉट में कार्यक्रम का प्रोमो था – “जन्मभूमि हमारी, राम हमारे – मस्जिद वाले कहाँ से पधारे”! इसी चैनल पर एक अन्य स्लॉट ‘दंगल’ जिसके एक कार्यक्रम को इस शीर्षक से प्रचारित किया गया – “ ‘मुस्लिम’ मुक्त भारत”!

अगर भारत में संस्थानों की हालत कमजोर ना हुई होती तो ऐसी हालत में कोई ना कोई आयोग या फिर सुप्रीम कोर्ट ही ऐसे मामलों का स्वत: संज्ञान ले लेता – अब तो लगता है कहीं कोई उम्मीद नहीं होती, इसलिए धीरे-धीरे यही सब नॉर्मल होता जा रहा है। अगर कोई सोचे कि ऐसे कार्यक्रमों से देश में हिंदुओं का वर्चस्व बढ़ जाएगा तो वह गलत है क्योंकि यह नहीं भूलना चाहिए कि नफरत फैलाने वाले गंदे दिमागों को कोई ना कोई शिकार चाहिए होता है। वह एक समुदाय को डराकर बैठा देने के बाद दूसरे समुदाय की खोज में लग जाते हैं।

उदाहरण याद रखिए कि पाकिस्तान बना था हिंदुओं के खिलाफ नफरत पैदा करके और जब पाकिस्तान बन गया और वहाँ पर बच गए हिन्दू भी दोयम दर्जे के नागरिक बन गए तो नफरत फैलाने वाली मशीनरी ने मुसलमानों के भीतर ही नए दुश्मन खोजने शुरू किए। एक के बाद एक कई दुश्मन खोजे गए जैसे भारत वाले हिस्से से गए मुसलमान जिन्हें मुहाजिर कहा जाता था, फिर अहमदिया मुसलमान जिनके बीच से एक पाकिस्तानी वैज्ञानिक को नोबेल पुरस्कार मिलने के बावजूद कोई सम्मान नहीं मिला, फिर शिया मुसलमान और दरगाहों पर जाने वाले अन्य मुसलमान।

अगर हमें पाकिस्तान जैसा नहीं बनना तो हमें अपने समाज के बीच से हिंसा की इस प्रवृत्ति को यहीं का यहीं रोकना होगा। देश के बँटवारे के वक़्त ये हिंसा अपने चरम पर थी जो गांधी जी का बलिदान लेकर ही शांत हुई लेकिन अब हमारे पास गांधी तो एक भी नहीं लेकिन सांप्रदायिकता की आग में घी डालने वाले बहुत से नेता हैं जो कई दलों में हैं। हमें गांधी जी की 150वीं जयंती पर एक सभ्य समाज के रूप में उन्हें यही श्रद्धांजलि देनी है कि अपने यहाँ से सांप्रदायिकता से जुड़े जहर को निकाल फेंकना है ताकि हमारा समाज दुबारा किसी वहशी हिंसा का शिकार ना हो।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here