कश्मीर के लिये उम्मीद का दस्तावेज

कांग्रेस का चुनाव घोषणा पत्र कश्मीर समस्या के हल के लिए एक स्पष्ट रोड-मैप लेकर आया है। पार्थिव कुमार* इस लेख में बता रहे हैं कि कैसे जम्मू-कश्मीर के मसले को लेकर एनडीए सरकार की नीयत में शुरू से ही खोट था और कैसे कांग्रेस का घोषणापत्र इस संबंध में उम्मीद जगाता है।

कांग्रेस के 2019 के चुनाव घोषणापत्र को कश्मीर के आमजन के लिये उम्मीदों से भरा दस्तावेज़ माना जा सकता है। इस घोषणापत्र में कश्मीर के मुद्दे के हल के लिये एक साफ रोडमैप नजर आता है। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार की सिर्फ ताकत के इस्तेमाल पर आधारित कश्मीर नीति की नाकामी से बौखलाये भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को यह बेशक पसंद नहीं आयेगा। लेकिन अगर इस रोडमैप को ईमानदारी से लागू किया जाये तो यह कश्मीरियों और खास तौर से कश्मीरी युवाओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ने में काफी मददगार साबित होगा।

अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने जम्मू कश्मीर में अमन की बहाली के लिये चार पहलुओं वाली रणनीति अपनाने की बात कही है। उसने राज्य की जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान करते हुए विधानसभा चुनाव तुरंत तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से कराने का वायदा किया है। दूसरे, सीमा पर सशस्त्र बलों की तैनाती बढ़ा कर आतंकवादियों की घुसपैठ रोकने की बात कही गयी है। तीसरे, घोषणापत्र यह संकल्प करता है कि कांग्रेस की सरकार आई तो राज्य की जनता के नागरिक एवं मानव अधिकारों की सुरक्षा के साथ-साथ जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को कायम रखा जाएगा। इसके अलावा पार्टी ने जम्मू कश्मीर के मसले के हल के लिये विभिन्न पक्षों के साथ बिना शर्त बातचीत करने का राज्य की जनता को वचन दिया है।

दरअसल यह घोषणापत्र 2010 में कश्मीर समस्या के हल के लिए गठित वार्ताकार दल के सुझावों को आंशिक तौर पर लागू करने का भरोसा देता है। आपको स्मरण करा दें कि इस वार्ताकार दल के सदस्य थे – वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, जानी-मानी शिक्षाविद् राधा कुमार और पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी।

विशेष तौर पर गठित इस वार्ताकार दल ने अपनी रिपोर्ट में जम्मू कश्मीर में सशस्त्र बल विशेष शक्तियां कानून; (आफ्स्पा-AFSPA) और अशांत क्षेत्र कानून की समीक्षा की सिफारिश की थी। इससे पहले 2001 में के.सी. पंत समिति भी लगभग इसी तरह की सिफारिश कर चुकी थी। पूर्व केन्द्रीय मंत्री पंत ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुरक्षा बलों को जनता का दिल जीतने के लिये अपने अभियानों के दौरान अधिकतम संयम बरतना चाहिये।

कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि वह सत्ता में आने पर इन दोनों कानूनों की समीक्षा कर इनमें सुरक्षा की जरूरतों और मानवाधिकारों की हिफाजत के बीच तालमेल बनाने के लिये बदलाव करेगी। उसने स्पष्ट किया है कि निर्दोष नागरिकों को लापता किये जाने, यौन हिंसा और यातना देने के मामलों में दोषी सुरक्षाकर्मियों को इन कानूनों के तहत संरक्षण नहीं मिल सकेगा।

उसने अपने घोषणापत्र में भारतीय दंड संहिता की राजद्रोह से जुड़ी धारा 124ए और आपराधिक मानहानि से संबंधित धारा 499 को खत्म करने का ऐलान किया है । बड़े पैमाने पर दुरुपयोग की वजह से ये दोनों कानूनी प्रावधान अपनी प्रासंगिकता लगभग पूरी तरह खो चुके हैं।

कांग्रेस ने साफ तौर पर कहा है कि वह जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 में कोई बदलाव नहीं करेगी। उसने कहा है कि सरकार में आने पर वह जम्मू कश्मीर के मसले का हल ढूंढने के मकसद से राज्य के सभी तबकों से बातचीत के लिये तीन वार्ताकारों का दल बनायेगी जिसमें सिविल सोसायटी के सदस्य होंगे। इसके अलावा पार्टी ने देश के विभिन्न भागों में कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों के साथ भेदभाव रोकने और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का वचन दिया है।

घोषणापत्र में कहा गया है कि कांग्रेस सीमा पर ज्यादा सशस्त्र बलों की तैनाती करेगी ताकि आतंकवादियों की घुसपैठ को पूरी तरह रोका जा सके। इसके साथ ही कांग्रेस ने देश के संघीय ढांचे का सम्मान करते हुए जम्मू कश्मीर में सेना और केन्द्रीय अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती घटाने और कानून व्यवस्था बरकरार रखने में राज्य पुलिस की भूमिका बढ़ाने पर भी बल दिया है।

इसमें कोई शक नहीं कि इन कदमों से उन कश्मीरी युवाओं को देश की मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी जो सीमा पार से प्रचार के प्रभाव में आकर आतंकवादियों के मददगार बन जाते हैं। सेना और केन्द्रीय बलों को उनके कामकाज के लिये जवाबदेह बनाये जाने में भला क्या बुराई हो सकती है लेकिन केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली ने इस घोषणापत्र को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ में कांग्रेस अध्यक्ष के मित्रों के सहयोग से तैयार किया गया ऐसा दस्तावेज बताया है जिस पर अमल नहीं किया जा सकता।

कहने की आवश्यकता नहीं कि अरुण जेटली ने यह नहीं बताया कि विवादों में घिरे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के निर्देशन में तैयार मोदी सरकार की सिर्फ ताकत के इस्तेमाल पर आधारित अघोषित कश्मीर नीति आखिर किस ‘गैंग’ ने तैयार की थी और उसका अंजाम क्या रहा?

चुनावी फायदे के लिये साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का खुले-आम सहारा ले रही बीजेपी के वरिष्ठ नेता जेटली को बताना चाहिये कि अगर उनकी सरकार की नीति इतनी ही असरदार थी तो कश्मीर में हिंसक घटनाओं में मरने वालों की संख्या 2014 में 185 से बढ़ कर 2018 में 386 तक कैसे पहुंच गयी? क्या उन्हें यह नहीं बताना चाहिये कि सुरक्षा में उस भारी कोताही के लिये कौन जिम्मेदार था जिसकी वजह से इसी साल 14 फरवरी को पुलवामा में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 से ज्यादा जवान शहीद हो गये?

घोषित तौर पर तो मोदी सरकार भी कश्मीर मसले के हल के लिये हुर्रियत कांफ्रेंस समेत किसी भी संगठन से बातचीत के खिलाफ नहीं थी। जम्मू कश्मीर में मार्च 2015 में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और बीजेपी की मिली-जुली सरकार के सत्ता संभालने के समय तय गठबंधन के एजेंडे में कहा गया था “प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पिछली एनडीए सरकार ने हुर्रियत कांफ्रेंस समेत सभी राजनीतिक संगठनों से बातचीत शुरू की थी। पीडीपी और बीजेपी की गठबंधन सरकार भी इन्हीं सिद्धांतों पर चलते हुए सभी अंदरूनी पक्षों के साथ सतत और सार्थक बातचीत की शुरुआत में सहायक होगी। इस प्रक्रिया में सभी राजनीतिक संगठन शामिल होंगे चाहे उनकी विचारधारा और झुकाव कुछ भी क्यों न हो। इस बातचीत के जरिये जम्मू कश्मीर के सभी मसलों के निपटारे के लिये व्यापक सहमति तैयार करने की कोशिश की जायेगी”।

वास्तव में मोदी सरकार ने कश्मीरियों से बातचीत के लिये इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को अपना विशेष प्रतिनिधि भी नियुक्त किया था। समझा जाता है कि दिनेश्वर शर्मा की सलाह पर ही जम्मू कश्मीर की पीडीपी-बीजेपी सरकार ने पहली बार पथराव करने वालों की कैद से रिहाई और रमजान के दौरान संघर्ष विराम का फैसला किया। लेकिन चूंकि केन्द्र सरकार की असली मंशा कुछ और थी इसलिये जम्मू कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू होने के बाद दिनेश्वर शर्मा परदे के पीछे चले गये। उनकी मुहिम किस मुकाम तक पहुंची यह किसी को नहीं पता। लेकिन यह हकीकत है कि उन्होंने केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट तक नहीं सौंपी।

जम्मू कश्मीर की पीडीपी-बीजेपी सरकार राज्य के तकरीबन सभी क्षेत्रों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थी। इस लिहाज से वह कश्मीर मसले का हल ढूंढने और राज्य में अमन बहाल करने की बेहतरीन स्थिति में थी। मगर वह ऐसा करने में इसलिये नाकाम रही कि बीजेपी की दिलचस्पी गठबंधन के घोषित एजेंडे से अलग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के अघोषित कार्यक्रम को लागू करने में थी। उसका यही दोहरापन आखिरकार पीडीपी-बीजेपी सरकार के गिरने की वजह भी बना। इसी दोहरेपन के कारण दिनेश्वर शर्मा अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सके। एक तरफ तो वह कश्मीरियों से बातचीत का प्रयास कर रहे थे और दूसरी ओर केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने अचानक ही हुर्रियत नेताओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी। इससे अविश्वास का जो माहौल पैदा हुआ उसमें कश्मीर मसले के हल के लिये कोई भी सार्थक बातचीत मुमकिन नहीं थी।

इसी बीच जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासियों को संपत्ति, नौकरी और शिक्षा के विशेष अधिकार देने वाले संविधान के अनुच्छेद 35ए को आरएसएस से जुड़े एक गैरसरकारी संगठन ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। जम्मू कश्मीर सरकार ने इस याचिका का विरोध किया मगर केन्द्र ने इस पर अपना रुख स्पष्ट तौर पर नहीं रखा। उसने अदालत में सिर्फ इतना कहा कि यह मामला पेचीदा होने के कारण इस पर और विचार करने की जरूरत है।

पुलवामा हमले और उसके बाद पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई को अपनी चुनावी रैलियों में भुनाने में व्यस्त बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अब ऐलान कर रहे हैं कि केन्द्र में मोदी सरकार की वापसी हुई तो अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म कर दिया जायेगा।

मोदी सरकार की जम्मू कश्मीर मसले के हल और राज्य में अमन की बहाली में नाकामी की वजह उसकी नीयत में खोट थी। उसकी यह नाकामी जम्मू कश्मीर के बारे में कांग्रेस के चुनावी वायदों पर बीजेपी की आलोचना को हास्यास्पद बना देती है। लेकिन यदि इन चुनावों में कांग्रेस की सत्ता में वापसी होती है तो देखना यह होगा कि कश्मीर के बारे में अपनी घोषणाओं को पूरा करने में वह कितनी ईमानदार रहती है। आखिर चुनावी जुमलों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मित्रों का एकाधिकार तो नहीं है।

*पार्थिव लंबे समय तक यूएनआई से जुड़े रहने के बाद अब स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।

ईमेलः [email protected]

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