कश्मीर के सवालों पर एक आध्यात्मिक नज़र

–*इन्दु मेहरा

‘‘बारूद के इक ढेर पर बैठी है ये दुनिया………’’ ध्यान नहीं किस कवि की ये पंक्तियाँ हैं जो आज मानस पटल पर बार-बार उभर आती हैं। दो दिन पहले कश्मीर में हुई अमानवीय दर्दनाक दुर्घटना यूं तो कहीं भी, कभी हो सकती है चाहे सरहद हो या शहर की गलियां होंलेकिन कश्मीर पिछले कुछ वर्षों से जिन हालातों से गुज़र रहा है, वो ऐसे हैं कि बस उसके बारे में सोचते ही मन उदास हो जाता है।

समझ नहीं आ रहा कि मानवता किस तरफ जा रही है? आध्यात्मिक दृष्टि से विश्लेषण करने का प्रयास करती हूँ तो सबसे पहला सवाल मन में यही आता है कि क्या इसकी कोई व्याख्या हो भी सकती है? मानव के खुद के ही कृत्यों के परिणाम इतने भयंकर हो जाते हैं कि कुछ ही क्षणों में अपार मानव समाज व उसके द्वारा बनाये गये शहर और इमारतें उजाड़ -वीरान हो जाते हैं।

अध्यात्म में इन सवालों के उत्तर खोजना हो सकता है कि संभव हो लेकिन फिलहाल उसे फिर कभी के लिए छोडते हैं। आज का सवाल तो मन में ये आ रहा है कि कैसे हमारा समाज इस प्रकार की दुर्घटनाओं से ‘डील’ करे जैसी कि दो दिन पहले काश्मीर में हुई?

सबसे पहले तो यह तय हो कि उन शहीदों के परिवारों की कैसे देख-भाल हो सके, कैसे उनके बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था हो सके। यूं तो सरकार अपनी तरफ से बहुत कुछ करती है लेकिन वास्तविक काम समाज का होता है। समाज बहुत शक्तिशाली होता है, वह बहुत कुछ कर सकता है और समाज की संकल्प शक्ति हो तो बहुत कुछ करवा भी सकता है।

हमारे आध्यात्मिक मन को ये भी सोचना होगा कि काश्मीर जिसे हम हमेशा अपना अभिन्न अंग मानते हैं, वहाँ के लोग इतने नाखुश क्यों हैं? क्या हमारा समाज अपनी सामूहिक आध्यात्मिक ऊर्जा से उनके लिए भी कुछ कर सकता है? हमने इन सब प्रश्नों के उत्तर खोजने होंगे।

कहते हैं कि कश्मीर तो ऋषि कश्यप की धरती है और लालेश्वरी जैसी महान साध्वी की धरती है – उसके लोग इतने उद्विग्न क्यों हैं?क्या कुछ गिनती के आतंकवादियों की इतनी ताकत हो गई है कि वो पूरे काश्मीर को इतने लंबे समय तक तनावग्रस्त रख सकते हैं?

बार-बार एक विचार आता है कि हमने कितने कम समय में इतनी भौतिक उन्नति कर ली, धरती ही नहीं, सागर से नीचे और ऊपरआकाश अर्थात ग्रहों तक पहुंच सुलभ कर ली। धन का महत्व इतना बढ़ गया कि कुछ ही क्षणों में जीवन की हर सुविधा को उपलब्ध करने में हम सक्षम हो गये। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में केवल प्रतिस्पर्धा और भौतिकवाद का महत्व अत्याधिक बढ़ गया। समय रहते हमें सोचना अवश्य चाहिये क्या हम सचमुच खुश हैं, आनन्द में है?

हमारा जीवन 60, 70 या 80 वर्ष का, इस पृथ्वी पर, जहां प्रकृति ने हमें इतना भंडार दिया और हमारा केवल क्या लेने मात्र का अधिकार है और कोई कर्तव्य नहीं? प्रकृति मां है, धरती मां है, उसने हमारी सदैव से देख-भाल की है।

समय आ गया है कि हम सब संकल्प ले अपने आस-पास की प्रकृति को सँवारने का, अपने समाज और अपने देश को सँवारने का जिसकी परिकल्पना हम भारत मां के रूप में करते हैं, उसे सँवारने का। क्या यह कार्य केवल सैनिकों तक ही सीमित कर दिया जाये?यह तो अन्याय होगा, प्रकृति हमें कभी क्षमा नहीं करेगी।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्। नमन करती हूं शहीदों की कुर्बानी को। सर्वशक्तिमान परमात्मा से प्रार्थना है कि उनके परिवारों को यह क्षति सहन करने की शक्ति दे।


*इन्दु मेहरा आध्यात्मिक और समाज-शास्त्रीय विषयों की जानकार हैं

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