पीछे छूट गए जो घर

अजीत सिंह*

(रेडियो-वाणी 4)

रेडियो कश्मीर से काफी यादें जुड़ी हैं जिनमें से एक मैंने पिछली बार साझा की थी। अफसोस की बात ये है कि धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस क्षेत्र की अब बात होती है तो सबसे पहले आतंकवाद की चर्चा होती है और दशकों से चल रहा ये अभिशाप अभी भी चल ही रहा है। नब्बे का  दशक तो खैर खासतौर पर दुर्भाग्यपूर्ण था जब आतंकवाद अपने चरम पर था और उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण ये था कि उस दौर में खासतौर पर वर्ष 1990 में ही कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों पर बेतहाशा हमले होने लगे। ऐसे में बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित अपने घर-बार छोड़ कर जम्मू में लगे शरणार्थी शिविरों में भागने को विवश हो गए। आप में कुछ लोगों तो राहुल पंडिता की पुस्तक Our Moon Has Blood Clouts पढ़ी होगी या फिर उस पुस्तक पर आधारित फिल्म ‘शिकारा’ देखी होगी – इनसे आपको अंदाज़ मिल सकेगा कि कश्मीरी पंडितों को किन हालात में अपने पुश्तैनी घर छोड़ने पड़े। यह पृष्ठभूमि सिर्फ यह दिलाने के लिए कि कश्मीर अभी भी इस हालत में नहीं आया है कि कश्मीरी पंडितों की घर वापसी हो सके और मेरी आज की रेडियो-वाणी अपने ऐसे ही एक साथी के बारे में है।     

   कुछ इसी तरह का संकट मेरे उन कश्मीरी पंडित मित्रों के साथ था जो आतंकवाद के खौफ के कारण कश्मीर वादी में अपने घरों को छोड़ जम्मू , दिल्ली व अन्य स्थानों पर शरण लिए हुए थे।

   रेडियो कश्मीर श्रीनगर में काम करने वाले कई न्यूज़-रीडर व एडिटर दिल्ली चले गए थे और वहां आकाशवाणी में काम कर रहे थे। उन्हें महीने भर के लिए बारी-बारी ‘टूर’ पर श्रीनगर भेजा जाता था। वे सुरक्षा पहरे में रहते थे और रेडियो कश्मीर के भवन से बाहर नहीं जा सकते थे। अंदर ही रहना व खाना पीना।

   इनमें जाने-माने न्यूज़-रीडर मक्खन लाल बेकस भी थे। एक शाम खाने पीने की महफ़िल चल रही थी तो किसी ने यह शेर पढ़ दिया कि “हम अपने शहर में होते तो अपने घर जाते”। बेकस साहिब को बात कुछ चुभ सी गई। बोले भाई हम तो अपने शहर में हो कर भी अपने घर नहीं जा सकते।

   उस वक़्त तो बात आई गई हो गई पर अगले दिन सुबह बेकस साहब मेरे कमरे में आए और कहने लगे, “आप तो रिपोर्टर होने के नाते बाहर आते जाते रहते हैं, कभी मुझे मेरे घर की बस झलक भर दिखा दीजिए”।

   ऐसा लगा रात की बात ने उन्हें सोने नहीं दिया था। “आपका इलाका तो उग्रवादियों से भरा पड़ा है, जाना ठीक नहीं होगा”, मैंने मजबूरी दिखाते हुए कहा।

“देखिए कभी मौका बन जाए तो”, उनके स्वर में याचना सी लगी।

   मैंने बात एस.पी. सिक्योरिटी रतिंदर कौल से की तो कहने लगे “क्यूं आप अपने दोस्त को मुसीबत में डाल रहे हैं। बहुत खराब इलाका है। बेकस नामी न्यूज़-रीडर हैं और उनकी आवाज़ पूरा कश्मीर पहचानता है। बहुत जोखिम होगा इसमें”।

   करीबन एक हफ्ते बाद रतिंदर कौल आए और कहने लगे, “चलना है तो चलो! आज बेकस के इलाके का ही दौरा है पर कुछ हो गया तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है”।

   बेकस को  ए के 47 से लैस दो सिपाहियों के बीच बुलेट प्रूफ गाड़ी में बिठाया और निकल गए। घर के पास गाड़ी कुछ धीमी हुई पर रुकी नहीं। फिर लौट आए । एक घंटा भी नहीं लगा।

   बेकस साहब सीधे मेरे कमरे में आए और हाथ मिलाकर बड़ी देर तक हिलाते रहे।

     “मैंने अपना घर देख लिया। बाहर से ही सही, पर देख लिया। बाहर से ठीक ही लगा। अंदर का पता नहीं। पर दिल में एक ठंडक सी पड़ गई है”।

    बेकस ने मेरे ही फोन से दिल्ली में अपनी पत्नी से बात की । कश्मीरी में बात कर रहे थे। बात पूरी तरह मेरी समझ में तो नहीं आई पर मुद्दा घर का वो दौरा ही था और बेकस साहब बड़े उत्साहित भी थे। बीवी को यह भी कह गए कि अजीत सिंह साहब बड़े अफसर हैं। उन्होंने काम कराया है।

   बेकस साहब का वो ‘टूर’ ख़तम हुआ पर तीन महीने बाद उनका फिर श्रीनगर आना हुआ। कुछ झेंपते हुए उन्होंने फिर वही गुज़ारिश रखी और रतिंदर कौल फिर उन्हें उनके घर ले गए। इस बार वे रुके और घर के अंदर भी गए। सब कुछ टूटा पड़ा था। खिड़कियां और दरवाजे तक निकाल कर ले गए थे लोग। घर का सारा सामान बुरी तरह बिखरा पड़ा था। काम की चीज़ें लोग उठा ले गए थे। बस बेकार माल पड़ा था। बेकस साहब की नजर लकड़ी के बने फोल्ड हो जाने वाले एक पुराने बुक स्टैंड पर पड़ी जिसे खोलकर प्रायः वे धार्मिक पुस्तकें पढ़ा करते थे पूजा के समय। बस उसे उठा लाए।

    दफ्तर आए तो दुखी लग रहे थे। कहने लगे,” सब तबाह हो गया। बस यह बुक स्टैंड बचा था, सो ले आया।

     बेकस साहब मेरे रहते फिर श्रीनगर नहीं आए। एक दिन रतिंदर कौल एस पी का फोन आया। “बुरी खबर है भाई। बेकस साहब का मकान जला दिया गया रात को। बता दो उन्हें। कुछ मुआवज़ा वगैरह मिल सकता है”।

मैंने दुखी मन से बेकस साहब को फोन मिलाया तो उनकी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी।

कहने लगे, “चलो अच्छा ही हुआ। किस्सा तो मुका। अब ये मकान का ख्याल बार-बार तो नहीं तड़पाएगा”।

    मैं सोचता ही रह गया क्या वाकई किस्सा ख़तम हो गया? क्या कश्मीरी पंडित कभी कश्मीर नहीं लौटेंगे?

 वैसे, यह कहानी नहीं है, रिपोर्ट है।

*अजीत सिंह दूरदर्शन से सेवानिवृत्त निदेशक हैं और आजकल हिसार से स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। नब्बे के दशक में विशेष संवाददाता के तौर पर वह रेडियो कश्मीर श्रीनगर में कार्यरत थे। संपर्क: [email protected]

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

बैनर इमेज : शिकारा फिल्म के ट्रेलर के विडियो से लिया गया एक चित्र

3 COMMENTS

  1. Wah , sir
    Bahut mazaa आया पढ़ कर। सर my childhood has been spent there in Srinagar ..

  2. स्टोरी पढ़ते हुए मेरी आंखों के सामने एक दृश्य खड़ा हो गया, बहुत ही दुख हुआ । मजबूर होकर और जान बचा कर जो कश्मीर पंडित लोग भागे होंगे उनका क्या हाल हुआ होगा यह आपने कम शब्दों में सटीक तरीके बता दिया।

  3. मैं इसे पढ़ कर बस, स्तब्ध हूँ। लगता है, बेकस साहब मिलें, तो उनसे बिना किसी सवाल-जवाब के बस माफी मांग लूं- पूरे देश की ओर से कि अपनों का दर्द भी हमें दुखाता नहीं।
    माफी मांगूं कि हम ऐसी राजनीति को बर्दाश्त करते रहे।
    इस हमाम मैं सारे सियासतदां नंगे हैं।

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