पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों के सबक

राजेंद्र भट्ट*

मीडिया यानि जो संवाद कराए, अकेलेपन को तोड़े और इकतरफा सोच ओर पूर्वाग्रह से बाहर निकाल कर एक समग्र, सुकून देने वाली समझ बनाए। लेकिन हमारे दौर का जो ‘सोशल’ और दूसरा मीडिया है, फेसबुक-ट्विटर-व्हाट्सएप के अलावा भी,  ज्यादातर मोबाइल फोन और थोड़ा प्रिंट में पढ़ा जा रहा सब कुछ – हमें ‘बबल्स’ में डालकर ज्यादा अकेला, पूर्वाग्रही, डरा हुआ और बेचैन बना रहा है। चाहे हम अपने ‘बबल्स’ में, या दूसरों के ‘बबल्स’ से आ रही कौंध से अकेले-असहाय-डरे-बेचैन हों – विरोधाभास यही है  कि हम ‘मीडिया’ संवाद के लिए रचते हैं, सबकी बात-सरोकार, समग्र ज्ञान और इसके जरिए सुकून के लिए रचते हैं, ‘बबल्स’ भी अपने को ‘कनफर्म’ करने, अपने जैसों के साथ सुकून के लिए रचते हैं पर इनसे संवाद, साझा सरोकार, अपनापन (एंपैथी) – सुकून के अलावा सब कुछ पाते हैं – अकेलापन-डर-पूर्वाग्रह-संवादहीनता वगैरह।

विरोधाभास यह भी है कि संवाद का रास्ता, और डर-बेचैनी  दूर करने का रास्ता भी यही संवाद और यही मीडिया है – इसलिए कल के चुनाव नतीजों से कुछ डर-पूर्वाग्रह-हताशा-बेचैनी दूर करने वाले जो निष्कर्ष लगे, उन्हें साझा कर रहा हूँ।

कोई असहिष्णु, अपढ़ लेकिन धूर्त सत्ता अगर छल-बल से कॉर्पोरेट के साथ षड्यंत्र करके धन के सभी स्रोतों पर कब्जा कर ले और प्रतिरोध करने वालों के सभी स्रोत सुखा दे; अगर वह लोकतन्त्र, न्याय, मीडिया और निगरानी और दंड-तंत्र की सभी संस्थाओं और संसाधनों पर कब्जा कर ले; एक तरफ सारी सत्ता-धन-संसाधन-संस्थाएं हो जाएँ; सत्ता-कॉर्पोरेट के पास उन्हें बांटने को पर्याप्त रेवड़ियाँ हों, – तो प्रतिरोध की कोई ताकत खड़ी भी कैसे हो सकती है, उसकी हार तो निश्चित है। ( सूचक-संदर्भ: नोटबंदी, गोदी मीडिया, हथियारों की खरीद, पीएम केयर्स फंड, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पोन्सिबिलिटी के पैसे का दुरुपयोग, इलेक्टोरल बॉन्ड, न्याय-पालिका, चुनाव आयोग, सीबीआई, ईडी  वगैरह। )

धन-सत्ता-गोदी मीडिया की ताकत से अगर सच को गायब कर दिया जाए, झूठ को स्थापित कर दिया जाए और लोगों की धर्म-जाति की कमजोर नसों को दबा कर उन्माद पैदा कर दिया जाए – चूंकि कम पढ़ना, सतही-सनसनीखेज और पूर्वाग्रह को पुष्ट करने वाली बात को पढ़ना-समझना,  हमेशा दिलचस्प होता है और कोढ़ की खाज की तरह सुख देता है – इसलिए उसका धूर्तता से इस्तेमाल किया जाए – तो बरगलाई हुई, उन्मादग्रस्त जनता को कैसे विवेक की चटक-मटक रहित आवाज़ से समझाया जा सकता है?

ऊपर के दो बिन्दुओं से ऐसा लगा कि हम एक ऐसे सत्ता-धन-शक्ति-छल-हताशा  के दुष्चक्र में फंस गए हैं जो टूट नहीं सकता और ‘लेवल प्लेईंग फील्ड’ नहीं होने से चीजें बदल नहीं सकतीं। पर ऐसा हुआ। हवाई चप्पल वाली अकेली महिला ने, जिसके सहयोगी एक-एक कर खरीद लिए गए थे, बाज़ी पलट दी। जहां तक, मुख्यमंत्री होने के नाते  सत्ता और धन के जरा भी संतुलन की बात थी ( जो अब महाराष्ट्र की सरकार के बारे में कहा जा रहा है), इस महिला के पास मुंबई का कथित चंदा भी नहीं था, यह तो गरीब बंगाल की नेता थी। इसका एक ‘टेक अवे’ यह है कि जनता की समझ और चेतना उन ऊपर की सतहों से कहीं बहुत गहरी होती है जिनमें हमारी  पूर्वाग्रह-बेचैनी वाली, कुछ लोगों की  उन्माद- देश-जाति-भक्ति वाली  और कुछ लोगों की  धन-सत्ता-खरीद-फरोख्त-मदारी-जमूरे के पहनावे-जुमलों, मीडिया बहसों, प्रायोजित सोशल मीडिया पोस्टों से ‘मैनेज करने वाली’ परतें शामिल हैं। असल में, ‘लोक’ को समझने के लिए हमें,  और ‘मैनेज करने वालों को भी, बिजनेस-कॉमर्स की बजाय थोड़ा साहित्य पढ़ना और जीना होगा। तब हमें समझ में आएगा कि लोगों में बहुत परतों और गहराई वाले  प्रेमचंद के होरी, अज्ञेय के शेखर, कृष्णा सोबती की मित्रो  – यहाँ तक कि जयशंकर प्रसाद की मधूलिका भी होती है जो देश के लिए प्रेमी को बंदी बनाकर फिर – अपने प्रेम के लिए – उसी के साथ मृत्युदंड भी मांगती है। मतलब इंसान यानि ‘हम भारत के लोग’ बहुत गहन परतों वाले, बुनियादी समझदारी वाले हैं और वे हमारे पूर्वाग्रहों के गणित अथवा गणित के पूर्वाग्रहों, ‘मैनेज’ करने वालों की बदमाशियों, दुष्प्रचार, धन-दंड बल से नहीं चलते। उन्हें कोई स्वांग रख कर हाँका नहीं जा सकता। जैसा कवि मुक्तिबोध ने कहा है –

   दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर

         दानों को चुगने चढ़ा कोई भी कुक्कुट

         कोई भी मुर्गा

         यदि बांग दे उठे ज़ोरदार

         बन जाए मसीहा

तो हजार पर्दों के पीछे सच को छिपा दो, शंख-थाली बजा दो, थेथरई कर लो – जनता की समझ अब भी इन सब को भेद सकती है। आपको या दूसरी तरफ वालों को अपने ‘बबल’ में जो  दिख रहा है – जनता का सच उससे ज्यादा विराट, विशाल और समग्र  होता है।  सत्ता-धन-शक्ति-छल-हताशा के दुष्चक्र को काटने की यह ‘सिल्वर लाइनिंग’ है।

लेकिन सत्ता-धन-शक्ति-छल-हताशा  के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए लोगों के बीच घुसना और जूझना तो होगा ही, टूटना नहीं होगा और ऊपर- ऊपर से रस्म-अदायगी नहीं करनी होगी। आप कितने भी भले हों पर जो पहले कुछ लोगों का ‘प्रिविलेज’ था, कि पेड़ से अनायास टपकने वाले फल के ठीक नीचे उनका मुख कर दिया जाता था – वह सुविधा अब नहीं है। तमाम नेक इरादों के बावजूद उन्हें जूझना होगा। अपनी पार्टी संगठन का स्वरूप ‘टपकने वाले फलों के युग’  के विपरीत लोकतान्त्रिक करना होगा, उस तरीके की संस्कृति-पूर्वाग्रह-स्मृतियों से मुक्ति पानी होगी – नहीं तो निष्क्रियता से पैदा हुआ बंगाल का शून्य आगे जुड़ता जाएगा।

‘प्रिविलेज’ पक्ष के लिए एक और सुझाव – आपकी अपनी एक पहचान और एक न्यूनतम विचारधारा थी – धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, समावेशी लोकतन्त्र की, सत्ता-संस्थाओं को पंथ-जाति से अलग रखने की – उसे आपने  कई बार तोड़ा पर फिर भी काफी समय तक उस धुरी के आसपास आपकी  पहचान रही। क्रिकेट में एक शब्द होता है – अपनी पिच पर खेलना। आप  कई बार  दूसरी पिच पर रन बटोरने के प्रलोभन ( रामजन्मभूमि का ताला खुलवाना, शाहबानो केस वगैरह) में फंसे और रन दूसरों को मिले। आपको  उन मायावी राक्षसों की मिथक कथाएँ याद रखनी होंगी कि कैसे वे उनका पीछा करते राजाओं को अंधेरी गुफाओं में भटका ले गए और मार डाला। साफ ही कह दें, आप अगर गांधी-नेहरू-सुभाष-पटेल-मौलाना आज़ाद  की पार्टी हैं तो खुले में विज्ञान-सम्मत धर्म युद्ध लड़िए। अंधी गुफाओं की लड़ाई में हारेंगे। वह अज्ञान-अंधकार-घृणा पर टिके पक्षों को रास आती है और आखिरकार सब को अज्ञान-उन्माद-अवैज्ञानिकता की अंध-गुफाओं में डाल कर मार देती है।

एक सबक या ‘टेक-अवे’ क्रांतिकारी पार्टियों के लिए, जो अब शून्य का हिस्सा हैं। हर स्वस्थ, संभावनाओं वाले दल में कार्यकर्ताओं का – हर आयु वर्ग में स्वस्थ अनुपात होता है -बुजुर्ग, मध्य आयु के और युवा। साथ ही निर्भय, स्वस्थ आंतरिक लोकतन्त्र भी होता है। लोकतन्त्र की एक बात की तारीफ करते  और याद दिलाते हुए आगे बढ़ना चाहूँगा। करीब 33 साल पहले मैंने कामरेड नंबूदरीपाद को पार्टी मुख्यालय  में डिस्पेन्सर से चाय निकालते, पीते और गिलास साफ करते देखा है। मैं उन्हें नहीं पहचानता था –पास ही बैठे दोस्त  ने मुझे बताया कि वे पार्टी के प्रथम पुरुष – जनरल सेक्रेटरी थे और उनकी चुपचाप चाय पीने की इस प्रक्रिया के दौरान – अन्य दलों की तरह कोई मंगलगान नहीं गाए गए। यह बड़ी बात थी- अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण था।

खैर, आगे बढ़ें। ऐसा दौर आया कि ये पार्टियां केवल 70 से अधिक आयु के बूढ़ों की पार्टियां बन गईं। अधेड़ लोग रूस, पूर्वी यूरोप जा रहे थे और मिंक के कोट बटोर के गदगद हो रहे थे। और युवा? युवा संगठन फल-फूल रहे थे लेकिन ( क्षमा करें, सब नहीं होंगे पर काफी युवा ) बंगाल में वाम-शासन के दौर में संगठित हो कर चौथ वसूल रहे थे, हिंसा-मार-पीट कर रहे थे, जो संजय गांधी की युवा कांग्रेस और शिवसेना की चौथ वसूली से भिन्न नहीं था। आज के दौर में, मेरी पीढ़ी के लिए (जिसने नंबूदरीपाद को देखा है) यह एक झटके जैसा था कि सीपीएम  का कार्यकर्ता-नेता बीजेपी में चला गया – एक वैचारिक दल का  ‘कार्यकर्ता’ ऐसा 360 डिग्री का ‘अबाउट टर्न’ कैसे कर सकता है, यह समझने के लिए – और पिनारी विजयन वाली इस पीढ़ी के बाद पूर्ण शून्य होने से बचने के लिए तकलीफ और निर्ममता के रास्ते से यह समझना होगा कि वैचारिक ऊर्जा और नयापन बनाए रखते हुए ये पार्टियां समय की चुनौतियों के साथ तरोताज़ा क्यों  नहीं हुईं और एक पीढ़ी ‘प्रगति प्रकाशन’ की तोता रटंत और दूसरी गुंडई में कैसे रत हो गई। मेरे लिए, किसी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का, उससे असहमत होने के बावजूद, किसी सांप्रदायिक दल में चले जाना, न केवल उस पार्टी के लिए – बल्कि भारत के लोकतन्त्र के ‘चेक्स एंड बैलेंसेज’ के लिए ‘अशनि संकेत’ जैसा है।

इन परिणामों से एक बात और साफ हो रही है कि उदारीकरण के नाम पर निर्मम कॉर्पोरेट संस्कृति लोगों को रास नहीं आई है। जिन-जिन सरकारों ने बिना धन-मुनाफे की चिंता किए जन-कल्याणकारी  काम किए हैं, या नीतियाँ बनाई/ प्रस्तावित की हैं, उन्हें उनका लाभ मिला है। केरल की सरकार ने कोविड के दौर में, और पहले भी अपना संवेदनशील, लोक-हितैषी चेहरा उजागर किया है। डीएमके की  भी गरीब की मदद करने की परंपरा रही है। (इस संवेदना और रोटी-कपड़ा की प्राथमिकता में दक्षिण भारत उत्तर भारत को आईना दिखा सकता है)।  ममता दीदी ने भी स्त्रियों और गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू की हैं। इसी तरह लोक सभा चुनावों में भाजपा-एनडीए को भी गरीबों तक सीधे कैश ट्रांसफर, इन्दिरा आवास योजना, उज्जवला योजना ( तमाम कमियों के बावजूद) का फायदा मिला। दूसरी ओर, रोजगार के अवसर कम करने, सरकारी उद्यम/ दफ्तर  बेचने, किसान क़ानूनों और ऐसे ही अन्य क़ानूनों के ‘कॉर्पोरेट उदारवाद’ से उत्पन्न सामाजिक उथल-पुथल की आंच अब महसूस होने  लगी है। जनता से ‘कनेक्ट’ करने के लिए सरकारों को आर्थिक  मोर्चे पर मानवीय और लोकतान्त्रिक मोर्चे पर उदार होना ही होगा।   

आखिरी सबक – दोनों पक्षों के जिस भीषण, अंग्रेजपरस्त, सामंती, अज्ञानी सांप्रदायिक उन्माद ने देश का विभाजन कराया, उसके निचले दर्जे के सिरफिरों ने गांधी की शहादत कर अपने को भारत में धिक्कार का पात्र बना दिया। लेकिन इस दौर में भी, वे अपनी हठधर्मिताओं पर टिके रहे – मतलब उन्होंने खेल अपनी ’पिच’ पर ही खेला। इसी प्रक्रिया में उन्होंने देश भर में अपने स्कूलों का जाल फैला दिया – यानि एक तरफ आने वाली पीढ़ियों को ‘हठधर्मी’ बनाने का काम सुनिश्चित कर दिया, इन विद्यार्थियों के स्कूलों-किताबों के जरिए ‘अपनी जैसी सोच वाले’ अभिभावकों का नेटवर्क मजबूत किया, इससे उनके मामूली वेतन वाले अध्यापकों को ‘इको-सिस्टम’ मिला। अपने हर गाँव-शहर से अमेरिका के एनआरआई तक में अवैज्ञानिकता के उन्माद के उत्सवों में हम इन प्रयासों के परिणाम देख रहे हैं।

अपने स्कूल खोल कर अपना वर्तमान और भावी इको सिस्टम मजबूत बनाने का ख्याल, अपना गाँव-गली का समाजोन्मुखी संगठन बनाने का विचार कोई आज़ादी के बाद आया विचार नहीं था। सर सैयद और मालवीय जी से लेकर लाला लाजपत राय (भगत सिंह वाले नेशनल कॉलेज को याद करें ) से दयालसिंह मजीठिया तक – विदेशी शासन के दौर में भी लोकतान्त्रिक, राष्ट्रवादी मूल्यों की शिक्षा देने वाले स्कूल-कॉलेज खोलने की ‘गौरवशाली परंपरा’ थी। सत्ता की राजनीति से अलग – लोगों से बिलकुल निचले स्तर पर जुड़े रहने के लिए कांग्रेस के पास सेवा दल था। कम्युनिस्टों-सोशलिस्टों के पास भी समर्पित कार्यकर्ता ‘स्टडी ग्रुप’ चलाते थे, आज़ादी के बाद इन लोगों ने शरणार्थियों की मदद की।  पर कुछ ही साल में ऐसा क्यों हुआ कि इन दलों ने शिक्षा और सामुदायिक कार्य और चेतना के कार्य छोड़ दिये, जबकि आज़ादी के बाद इनके पास नेटवर्क भी था, माहौल भी अनुकूल था और कुछ हद तक फंडिंग भी थी?  इसके बाद, इन दलों/ संगठनों में – एक तरफ  मलाई खाने और ‘हाकिम’ बनने,  और दूसरी तरफ हवाई सैद्धान्तिक चर्चा और ‘मैनरिज़्म’ की जो प्रवृत्ति पनपी – उसी के परिणाम आज हम देख रहे हैं।

कुल मिलाकर, आज हम फिर ऐसे मोड़ पर हैं जहां लगता है कि लोकतन्त्र अब भी सजग, कारगर और समर्थ है। अभी समय है कि जिन्हें सत्ता मिली है, वे अपने को अलग, विवेकमुखी, विनम्र, ईमानदार और जनमुखी दिखाएँ –‘तृणमूल’ बने रहें । और जो शून्य की ओर जा रहे हैं – वो इस देश के सामंती  इतिहास की तरह, हर टेकड़ी का राजा अपने को प्राचीन काल के चक्रवर्ती शासक जैसा न समझे। अब समय ‘न्यूनतम’ जनमुखी, लोककल्याणकारी, लोकतान्त्रिक एजेंडा के साथ एक होने का है, शून्य के ऊपर कितनी भी सीटों पर बिना अहम के समझौता करने का है – ताकि हम रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में ऐसा देश जगाएँ -जहां मन निर्भय हो, गर्व से सिर ऊंचा हो और विवेक की निर्मल धारा रूढ़ियों अंधविश्वासों में खो न जाए। 

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं

शीर्षक चित्र : किशन रतनानी

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

2 COMMENTS

  1. बहुत सटीक विश्लेषण। बधाई।
    शिक्षा के माध्यम से लोगों से जुड़ने का काम सत्ता पक्ष, चाहे वो जिस भी विचारधारा का हो, अपनी आलोचनारहित स्वीकृति के औजार के रूप में करती हैं और आगे भी करती रहेंगी। जो लोगों के साथ मिलकर उनके सुख दुख का भागीदार बने, उनकी समस्याओं को ले कर जनोन्मुख शिक्षा, लोक शिक्षा की मुहिम चलाए, ऐसी जन शिक्षण और लोक विद्या को प्राथमिकता देने वाली व्यवस्था की जरूरत है। लैटिन अमेरिका ने इसकी प्रायोगिक और ठोस राह दिखाई है जिसको अपने संदर्भ में अपना कर काम करने के अलावा कोई लांग टर्म उपाय, दूर गामी तरीका काम करेगा इसमें संदेह है। रचनात्मक कार्य की नई रूपरेखा बनाने की तत्काल आवश्यकता है। द्वेष, सांप्रदायिकता और अलगाव की अमरबेल आज हमारे राष्ट्र की बरगद, जिसकी जटाएं भी जड़ का रूप ले चुकी हैं, उसका भी दम घोंटने की पूरी तैयारी कर चुका है। यह सांस लेने की जो जगह बनी है उसका रचनात्मक उपयोग नहीं किया गया तो इस मौके को भी दुःस्वपन्न में बदलते देर नहीं लगेगी।

    • बहुत धन्यवाद। मेरे लेख से आपकी टिप्पणी अधिक महत्वपूर्ण है।

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