लोकपाल का तमाशा फिर खबरों में

इस स्तंभकार के बहुत से जानकार इस बात को लेकर परेशान हो सकते हैं कि उनका ये मित्र लोकपाल विषय को तमाशा बताकर इसे हल्के में क्यूँ ले रहा है।

लोकपाल की व्यवस्था के लिए आंदोलन, फिर उसके बाद उस पर हुई बहस और बिल तथा बाद में बने कानून, किसी भी चीज़ को हम हल्के में नहीं ले रहे बल्कि उतने ही गंभीर हैं जितने कि भ्रष्टाचार से लड़ने की नियत रखने वाले कोई भी लोग। लेकिन इसको लेकर हमारे गंभीर होने का कारण ये नहीं है कि भ्रष्टाचार को हटाने का जो ब्रम्हास्त्र है, लोकपाल, उसको लाने में देरी हो रही है और उसको ना लाने से भ्रष्टाचार बढ़ा जा रहा है।

हमारी चिंता वो नहीं है। हमारी चिंता के बिन्दु बताने से पहले हम जल्दी से ये याद दिला दें कि सरकारी हल्कों में चाहे लोकपाल नाम की संस्था का नाम सबसे पहले सत्तर के दशक में सुना गया था, लेकिन इसका जन्म 2011 में हुए अण्णा आंदोलन से हुआ था।

यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने एक तरह से संविधान के ऊपर जाकर एक चुनी गई सरकार पर ऐसा दबाव बनाया कि बिना कोई आगा-पीछा सोचे, उस सरकार को लोकपाल विधेयक पास करवाना पड़ा। जनवरी 2014 में यूपीए की जाती हुई सरकार ने उस कानून को अधिसूचित भी करवा दिया।

अब सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल चुनने वाली कमेटी से अनुरोध किया है कि वो ये काम जल्दी कर ले। इसमें कोई संदेह नहीं कि पहले यूपीए सरकार ने और बाद में मोदी सरकार ने लोकपाल अधिनियम को लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किए हालांकि कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार के पास इसके लिए पर्याप्त समय भी नहीं था।

लोकपाल के नाम पर नया ढाँचा

हमारी चिंता की बात ये है कि लोकपाल के नाम पर हम नया एक ऐसा ढांचा खड़ा करने जा रहे हैं जो भ्रष्टाचार हटाने के नाम पर काम कर रही पहले वाली संस्थाओं से किस तरह बेहतर होगा, इसकी स्पष्टता किसी के पास नहीं है। ये किस तरह सीबीआई से भिन्न होगा? इसके आने के बाद सीवीसी और सीबीआई की क्या भूमिका होगी? इसके पदाधिकारी कहीं और से तो आ नहीं सकते, स्वाभाविक है कि वो सब पुलिस सर्विस एवं अन्य सरकारी महकमों से आएंगे, तो फिलहाल भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच के लिए जो केन्द्रीय स्तर की संस्थाएं हैं जैसे सीबीआई और सीवीसी, तो उनसे ये कैसे बेहतर होगी?

क्या ये चिंता की बात नहीं कि पिछले कुछ महीनों में भ्रष्टाचार के मामलों को देखने वाली दोनों  बड़ी संस्थाओं – सीबीआई और सीवीसी – दोनों ही की कार्यप्रणाली संदेह के घेरे में आई। सीबीआई पर तो खैर पिछले कई वर्षों से अदालतों द्वारा भी सवाल उठते रहे हैं, किन्तु इस बार खुले में सीवीसी की भूमिका पर भी सवालिया निशान उठे।

और भी चिंता की बात ये है कि सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा जब गैरकानूनी ढंग से हटाये जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट गए और जिस तरह वह केस चला, उसमें सुप्रीम कोर्ट तक की भूमिका की भी आलोचना हुई। इंडियन एक्सप्रेस (Link – indianexpress) में प्रताप भानु मेहता का लेख इस बारे में विशेष तौर पर चर्चित रहा जिन्होंने लिखा कि सीबीआई के झगड़े में कई संस्थानों की विश्वसनीयता घटी है।

आप कहेंगे कि जब पहले वाली संस्थाओं (जिनमें दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है) की इतनी आलोचना हो रही है तो फिर लोकपाल का आना तो अच्छी ही बात है।

ज़रूर अच्छी बात होती अगर लोकपाल और उससे संबद्ध अधिकारी किसी दूसरे लोक से आते और उनका देवत्व हमें भ्रष्टाचार के कीचड़ से मुक्ति दिलाता। जैसा कि हमने ऊपर कहा, जब सभी लोग उन्हीं संस्थाओं से डेपुटेशन पर लोकपाल वाले संस्थान में आने हैं और जब लोकपाल भी उन्हीं संस्थाओं में से (सुप्रीम कोर्ट सहित) चुने जाने हैं तो भला एक नई संस्था भर में आ जाने से सब ठीक हो जाएगा?

अब एक स्वीकारोक्ति! इस स्तंभकार को लोकपाल कानून जिस तरह से बना, अर्थात अण्णा आंदोलन की कोख से इसका जिस तरह जन्म हुआ, उस पूरी प्रक्रिया से एक किस्म की चिढ़ जैसी है। दिल्ली में उस पूरे तमाशे का गवाह था ये स्तंभकार और उसे तब बहुत तकलीफ होती थी जब अण्णा आंदोलन की रामलीला ग्राउंड वाली सभाओं को संबोधित करने वाले बहुत से विशिष्ट लोग जनता द्वारा चुने गए लोगों को तो जोकरों की तरह तो प्रस्तुत करते ही थे, साथ ही पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं का मज़ाक बनाते थे।

हमारे लोकतन्त्र में हज़ार खामियाँ हों लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि इसी लोकतन्त्र ने गरीबों, दलितों और पिछड़ों का पिछले 70 वर्षों में खूब सशक्तिकरण किया है। आदिवासियों के बारे में कहा जा सकता है कि उनकी वोटों की शक्ति बिखरी हुई है, इसलिए उनका उन्हीं की ज़मीनों और जंगलों से उनका विस्थापन हो जाता है लेकिन फिर भी इसी लोकतन्त्र में उनके लिए अभी भी उम्मीद बाकी है।

असल में अण्णा आंदोलन यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार के उठते मामलों से उकताए हुए मध्यम-वर्ग का मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ आंदोलन था। यह संयोग ही था कि उन उकताए हुए लोगों को अण्णा के रूप में एक ऐसा नेता मिल गया जिस पर गांधीवादी होने का ठप्पा लगा था।

उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने इस आंदोलन की ताकत में ये संभावनाएं देख लीं कि ये कॉंग्रेस को पूरी तरह बदनाम कर देगा और आने वाले चुनावों में उसे अपदस्थ करना आसान होगा। रामलीला मैदान में जिन वॉलंटियरज़ को भीड़ को स्वत:स्फुर्त माना जा रहा था, बाद में पता चला कि उनमें से अधिकांश संघ के स्वयंसेवक थे। हालांकि मानना होगा कि संघ ने आंदोलन के खुले समर्थन से कभी इंकार नहीं किया, ये अलग बात है कि अण्णा उससे इंकार करते रहे।

तो ऐसे आंदोलन से हुआ था लोकपाल का जन्म! इसीलिए उसके संविधान सम्मत होने में हमें हमेशा संदेह रहता है क्योंकि ये आंदोलन लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का मज़ाक उड़ाने वाले ‘एलिट’ या अभिजात वर्ग के विशिष्ट लोगों की अगुवाई में चला था।

बहरहाल, हमारे इस ‘पूर्वाग्रह’ की स्वीकारोक्ति के बाद हम लोकपाल आने का स्वागत तो अवश्य करेंगे किन्तु हमारा आग्रह रहेगा कि भ्रष्टाचार हटाने के लिए देश को आमूल-चूल परिवर्तनों की तरफ देखना होगा। वो परिवर्तन कैसे हों, उनपर चर्चा अगली किसी “आज की बात में”!

……..विद्या भूषण अरोरा

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