बहुसंख्यकवाद का पोषण देश और लोकतन्त्र के लिए ठीक नहीं

आज की बात

आज सुबह के टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रथम पृष्ठ पर एक सिंगल-कॉलम खबर है कि मध्य प्रदेश की नव-निर्वाचित कॉंग्रेस सरकार ने गौ-कशी के तीन आरोपियों के विरुद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत मुकदमा दायर किया है।

पहले इन आरोपियों के विरुद्ध गौ-हत्या प्रतिबंध अधिनियम की कई धाराओं के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया था किन्तु खंडवा शहर के पुलिस अधीक्षक को वो काफी नहीं लगा तो उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत मुकदमा दायर करने का आदेश कर दिया। यह लिखे जाने तक इसका कोई कारण सामने नहीं आया कि गोकशी को प्रतिबंधित करने वाले कानून का इस्तेमाल करने की बजाय अति कठोर कानून NSA का सहारा क्यों लिया गया। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बने क़ानूनों का ऐसा इस्तेमाल सही ठहराया जा सकता है?

यह अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं कि पुलिस ने ये कदम अपनी समझदारी या अपनी मरज़ी से नहीं उठाया होगा बल्कि प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के निर्देश पर ऐसा किया होगा। कमलनाथ खाँटी राजनीतिज्ञ हैं। स्पष्ट है कि उन्होंने आने वाले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए अपनी हिन्दू पहचान को पुनः रेखांकित करने के लिए ऐसा किया होगा। हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान भी कमलनाथ ने राज्य में गौशालाएँ बनाने की घोषणा की थी।

कॉंग्रेस के राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी हिन्दू पहचान रेखांकित करने का प्रयास करना कोई पहली बार नहीं हो रहा। आज़ादी के आंदोलन से लेकर आज तक के कॉंग्रेस के इतिहास में ऐसे सैंकड़ों अवसर पहले भी आए हैं। यहाँ तक कि स्वयं महात्मा गांधी प्रत्यक्ष रूप से कई हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करते थे। कॉंग्रेस के ही कुछ प्रगतिशील नेताओं के दबे स्वर में आलोचना के स्वर उठे किन्तु मोटे तौर पर गांधी द्वारा उन प्रतीकों का इस्तेमाल किसी को नहीं खला।

आज़ादी के बाद भी कॉंग्रेस के इतिहास में ऐसे कई अवसर आए जब कॉंग्रेस के शीर्ष नेताओं ने हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल किया या ‘सॉफ्ट-हिंदुत्त्व’ को अपनाया। पचास के दशक में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा ब्राह्माणों के पैर धोने वाली घटना की आलोचना तो हुई किन्तु फिर भी उसको नज़रअंदाज़ ही किया गया। आने वाले वर्षों में अपने और कॉंग्रेस पर से मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप धोने के प्रयोजन से स्वयं इन्दिरा गांधी ने अस्सी के दशक में बहुसंख्यावाद को एक तरह से बढ़ावा दिया।

आगे चलकर राजीव गांधी के प्रधानमंत्री होने के दौरान तो केंद्र की मदद से राम मंदिर का ताला ही खुलवा दिया गया था जिसका श्रेय कॉंग्रेस के लोग आज भी दबी ज़बान से लेते हैं। उसके बाद 1989 में राजीव गांधी ने अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत ही अयोध्या से की थी। फिर हाल ही में हुए विधान सभा चुनावों में सबने देखा कि राहुल गांधी ने कैसे मंदिरों में दौड़-भाग की!

ये सब देखकर लग सकता है कि साधारणतः हमें ये चिंता क्यों होनी चाहिए कि अगर कुछ राजनीतिज्ञ अपने धर्म का खुलकर प्रदर्शन कर रहे हैं और उसे ‘सेलिब्रेट’ कर रहे हैं। लेकिन ये मामला इतना सीधा और ‘सिम्पल’ नहीं है।

कमलनाथ की सरकार द्वारा गौ-कशी के तीन आरोपियों के विरुद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत मुकदमा दायर करना इससे कहीं आगे की बात है। और इसीलिए ये चिंता की बात है।

मोदी सरकार के साढ़े-चार वर्षों में गौ तस्करी या गौ-कशी को मुद्दा बनाकर जिस तरह से अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को या फिर कुछ अवसरों पर दलित समुदाय के लोगों को तथाकथित ‘गौ-रक्षकों’ ने जिस तरह निशाना बनाया, उस पृष्ठभूमि में देखें तो कमलनाथ सरकार यह कदम एक तरह से उग्र हिन्दू राष्ट्रवादियों के सामने समर्पण जैसा लगता है।

चिंता की अगली बात ये है कि बहुसंख्यकवाद को पोषित करने की यह प्रवृत्ति अभी जल्दी रुकती नहीं लग रही। कम से कम इस लोकसभा चुनावों के दौरान तो इसके और बढ्ने की ही संभावना है।

यदि देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी जिसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता आंदोलन में एक सर्व-समावेशी संगठन के रूप में हिस्सेदारी की थी, आज के दौर में इतने खुलकर बहुसंख्यकवाद को पोषित करेगी तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

सबसे अहम बात तो ये है कि यदि जल्दी ही किसी राजनैतिक प्रक्रिया के चलते इस प्रक्रिया पर रोक ना लगी तो देश का अल्पसंख्यक खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यक जो अपने को पहले ही असुरक्षित महसूस कर रहा है, अब और ज़्यादा अकेला महसूस करेगा।

कहने की आवश्यकता नहीं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा सहित उनके फ्रंट सहभागी संगठनों ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी कि मुस्लिम समुदाय के लोग अपने को दूसरे दर्जे का नागरिक ही मानें। लेकिन इससे भी आगे यदि उन्हें ये अहसास होने लगा कि अब धीरे-धीरे मुख्य-धारा की सभी राजनीतिक पार्टियां उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ रही हैं तो उनमें एक किस्म का नैराश्य आने लगेगा।

और अगर ऐसा हुआ तो फिर इसकी तार्किक परिणति क्या होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं होना चाहिए। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सभी राजनीतिक दलों को ये याद रखना चाहिए कि अगर देश का इतना बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय अपने को अकेला और असुरक्षित महसूस करेगा तो इससे इस्लामिक कट्टरपंथियों को एक ऐसी उर्वर भूमि मिल जाएगी जिसमें वह आसानी से कट्टरता और यहाँ तक कि आतंकवाद तक के बीज बो सकते हैं।

और अगर कोई ये सोचे कि इससे सिर्फ मुसलमानों को ही नुकसान पहुंचेगा और बाकी देश “सबका साथ सबका विकास” करता रहेगा तो वह गलती पर है।

ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में ना सिर्फ देश में अमन-चैन कायम करना मुश्किल हो जाएगा बल्कि हमारी आर्थिक प्रगति भी रूक जाएगी। और इस सबसे बड़ी नकारात्मक बात ये हो सकती है कि हमारे लोकतन्त्र पर भी खतरा आ जाएगा।

इस स्तंभकार को ये अनुमान भी है कि आजकल ये सोचने वाले लोग भी कम संख्या में नहीं होंगे जो ये कह देंगे कि हमें लोकतन्त्र का क्या करना है तो उसका फिलहाल संक्षेप में इतना ही उत्तर दिया जा सकता है कि भारत विविधताओं से भरा देश है और यहाँ अगर लोकतन्त्र ना रहा तो हम कुछ दशक नहीं बल्कि राजनीतिक मानचित्र पर तो कुछ सदी पीछे जा सकते हैं।

तो देखना होगा कि क्या किसी किस्म के ऐसे राजनीतिक चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है कि जिससे बहुसंख्यावाद को पोषित करने की इस प्रवृत्ति पर रोक लगे और हम पाकिस्तान जैसे ना बन जाएँ, जिसने ना केवल हिन्दू अल्पसंख्यकों को पराया बना दिया बल्कि शिया और अहमदिया मुसलमानों को भी अपना नहीं बनने दिया। पाकिस्तान की आज क्या हालत है, हम सभी जानते हैं।

पाकिस्तान ही क्यों, दक्षिण पूर्व एशिया के हमारे अन्य पड़ोसी जैसे म्यांमार और श्रीलंका भी बहुसंख्यावाद को पोषित करते हुए अपने यहाँ घोर विषम परिस्थितियाँ झेल चुके हैं या झेल रहे हैं। बांग्लादेश ने भी अपनी आज़ादी के जल्दी ही बाद इस्लामीकरण की राह पकड़ ली थी और उस पर अभी भी कट्टरतावाद का साया मँडराता रहता है।

तो कैसे भी हो, हमारे देश की प्रगतिशील ताकतों को, अगर वो अभी कहीं बची हुई हैं तो, बहुसंख्यावाद को पोषित करने की प्रवृत्ति को रोकने का हर संभव प्रयास करना होगा ताकि देश का 18 करोड़ अल्पसंख्यक असुरक्षित और अकेला महसूस ना करे। अगर इस प्रवृत्ति पर रोक ना लगी तो फिर हमें अपने पड़ोसियों की तरह उसके परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा।

……..विद्या भूषण अरोरा

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