मुजफ्फरपुर में मासूमों की मौतें और कुपोषण

अजय तिवारी*

बिहार में चमकी बुखार से 140 से अधिक बच्चों की मौत ने आगे बढ़ते भारत का नाम दुनिया में काफी खराब किया है। इन मौतों की वजह सिर्फ हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की लचर स्थिति नहीं है। जैसे-जैसे मौतों की संख्या बढ़ रही है, कुपोषण को भी बड़े कारण के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि इस बीमारी से मरने का खतरा उन्हीं बच्चों को ज़्यादा है जो कुपोषित हैं।

बिहार में बच्चों के साथ जो घट रहा है, उसके परिपेक्ष्य में यह समझ लेना आवश्यक हो जाता है कि क्या वास्तव में भारत के बच्चे अधिक कुपोषित हैं? हां, अभी तक तो यह भारत की लाइलाज समस्या है। 239 जिलों में 40% से अधिक बच्चे अविकसित हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा 4 करोड़ 66 लाख (यह संख्या लगातार बढ़ रही है) बच्चे भारत में कम आहार या आहार में पोषक तत्वों की कमी की वजह से कम लंबाई वाले हैं। हमारे 2 करोड़ 55 लाख बच्चे कम वजन वाले हैं।

खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन किए जाने की वजह से बच्चों के कुपोषण की जो तस्वीर पेश की जाती है, उस पर सहज विश्वास नहीं होता। हो भी तो कैसे जब देश में भोजन की कोई कमी नहीं है।

कुपोषण की चर्चा करते वक़्त यह विमर्श भी जरूरी हो जाता है कि बच्चों को कैलोरीयुक्त भोजन क्यों नहीं मिल रहा है? बच्चों को प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिज जैसे पोषक तत्व उनके भोजन में पर्याप्त मात्रा में क्यों नहीं मिल रहे हैं ? क्या हमें ऐसी स्थिति में बच्चों से परीक्षा में अच्छे अंक और खेल के मैदान में शानदार प्रदर्शन की उम्मीद करनी चाहिए ? क्या हमें सबसे ज्यादा चिंता इसकी नहीं करनी चाहिए कि हमारे बच्चे रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमजोर रहने की वजह से भविष्य में बीमारियों से ही अधिक घिरे रहने वाले हैं?

कुपोषण छोटी समस्या नहीं है। इसका दबाव बहुत सारे क्षेत्रों पर पड़ता है। हमारे साधनों पर पड़ता है। ऐसा नहीं है कि बच्चों को कुपोषण से बाहर लाने के लिए लड़ाई नहीं लड़ी गई। महिलाओं और बच्चों के लिए अलग मंत्रालय बनने से काफी वर्ष पहले 1975 से एकीकृत बाल विकास सेवाएं (आईसीडीएस) नाम से कार्यक्रम चल रहा है। इसके तहत हजारों करोड़ रुपए नवजात शिशु से लेकर छ: वर्ष तक की आयु के बच्चों को पूरक आहार उपलब्ध कराने पर खर्च किए जाते हैं।

12वीं योजना में इस कार्यक्रम का आधार बढ़ाकर 1,23,580 करोड़ रुपए का कर दिया गया। यह सारा पैसा लाभार्थियों की संख्या के आधार पर राज्यों को सौंप दिया जाता है। इसके तहत आठ करोड़ बच्चों में से हरेक को 800 कैलोरी वाला 20-25 ग्राम प्रोटीन वाला पूरक आहार दिया जा रहा है। सालाना 15 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा वाला यह कार्यक्रम इतना बड़ा हो चुका है कि इसमें ऐसे बड़े-बड़े कारोबारी भी प्रवेश कर गए हैं जिनके बिज़नेस बहुत साफ नहीं हैं। आपको याद होगा कुछ साल पहले आपसी रंजिश के चलते एक हिंसक वारदात में मारे गए शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा भी उत्तर प्रदेश में बच्चों के आहार की सप्लाई में के काम से भी जुड़े थे।

कुपोषित बच्चों के इस कार्यक्रम में बड़े-बड़े सुराख हो गए हैं और समस्या अभी भी भयावह बनी हुई है जबकि इस कार्यक्रम को शुरू हुए कई दशक बीत चुके हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने भी समय-समय पर कहा है कि बच्चों के आहार की चोरी हो रही है। कोर्ट ने पाया है कि यह कार्यक्रम इसलिए सफल नहीं रहा क्योंकि इसमें राजनेताओं, नौकरशाह और ठेकेदारों का गिरोह सक्रिय है। चार राज्यों उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में जब कोर्ट ने अपनी टीम से जांच कराई तो ऐसी ही बातें सामने आईं। कोर्ट को 2012 में 100 पेज की रिपोर्ट इस टीम से मिली थी।

इसके बाद से कोर्ट राज्यों को इस कार्यक्रम से बड़े कारोबारियों और ठेकेदारों को दूर रखने के कई निर्देश दे चुका है। कोर्ट ने स्थानीय स्वसहायता समूह के जरिए पूरक आहार के वितरण पर जोर दिया है। कई राज्यों ने इस पर अमल नहीं किया है और कई राज्यों में पुराने ठेकेदारों ने ही स्वसहायता समूह या सामाजिक संस्था का चोला पहन लिया है।

मानव अधिकार आयोग को भी इस कार्यक्रम में गड़बड़ियों की लगातार शिकायत मिली है। उसने भी राज्यों को सुधरने के लिए कहा है पर कहीं कुछ खास बदला नहीं है। बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए सरकार के ही भरोसे बने रहे तो बिहार जैसे हालात दूसरे राज्यों में भी बनेंगे।

बेहतर होगा कि कुपोषण से लड़ने के लिए जागरूक और समाज के ज़िम्मेवार लोग अपने-अपने  नजदीक ही जनभागीदारी के छोटे मॉडल विकसित कर लें। अपने आस-पास की ऐसी बस्तियों में जहां आर्थिक रूप से कमजोर लोग रहते हैं, कुपोषण को लेकर जागरूकता फैलाएं और बच्चों को बचाएं। ऐसा करना अधिक मुश्किल नहीं है। आपकी इन कोशिशों में ये भी शामिल होना चाहिए कि आपके पास जो अतिरिक्त भोजन है वह उन बच्चों तक व्यवस्थित ढंग से पहुँच सके जो कहीं आपके आस-पास ही रहते हैं।

*अजय तिवारी हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय सहारा में वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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