यादें कैमला गांव की; किस्सा एक लघु विद्रोह का।

अजीत सिंह*

 
       कैमला, जो चंद रोज़ पहले तक एक अज्ञात सा गांव था, हाल ही में मीडिया की सुर्खियों में आया है। गत रविवार दस जनवरी को हरियाणा के मुख्यमंत्री को वहां एक जनसभा को संबोधित करना था पर ग्रामवासियों के एक वर्ग तथा आस पास के गांवों से आए किसान आंदोलनकारियों ने भारी पुलिस बंदोबस्त के बावजूद उस जगह घुस कर धरना दे दिया जहां जनसभा होनी थी। मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर वहां नहीं उतर सका और वे वापस जिला मुख्यालय करनाल चले गए।

   कैमला गांव और वहां के राजकीय विद्यालय के साथ मेरा पुराना संबंध है। मैंने वहां छटी से लेकर नौवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की थी। यह 1958 से 1962 के बीच का समय था। मैं निकटवर्ती पैतृक गांव हरसिंहपुरा से पहले दो साल रोज़ाना तीन किलोमीटर पैदल चलकर और बाद के दो साल साइकिल द्वारा स्कूल जाता था।

बहुत अच्छा स्कूल था। छटी कक्षा में हम टाट पर बैठते थे, सातवीं से आगे बैंच आ गए थे। अध्यापक भी निष्ठावान थे। वे हमें बगैर पैसे लिए एक्स्ट्रा कोचिंग यानी ट्यूशन देते थे। बस एक बुरी बात थी। वहाँ ज़रा सी बात पर पिटाई हो जाती थी। थप्पड़, डंडे से ही नहीं, लात घूंसों से भी। हम भी ढीठ से हो गए थे। सब भूल जाते थे। असल में इसमें हमारे मां बाप का भी हाथ था। वे अक्सर स्कूल में आकर अध्यापक से कह जाते थे, भले ही बच्चे की चमड़ी उतार दो पर इसे सीधा कर दो और कुछ पढ़ा दो। सज़ा मिलने पर हम घर भी नहीं बताते थे। जो पिटता था, उसका मज़ाक उड़ाते थे पर वो आगे से कहता था, कल तेरी बारी आएगी बच्चू तब पूछूंगा कैसी रही।

  एक बात पिटाई से भी खराब थी। बहुत ही खराब। कुछ अध्यापक हमें गालियां भी देते थे। उल्लू का पट्ठा, हरामखोर, हरामजादा तो बात-बात पर कहते थे। हम कुछ नहीं कर सकते थे। बस हमने जो अध्यापक जैसी गाली देता था, उसका वही नाम रख दिया और एक तरह से बदला सा ले लिया।अगर कोई बच्चा दूसरे से पूछता कि अगला पीरियड किसका है, तो जवाब मिलता, उल्लू के पट्ठे का।एक अध्यापक तो बिल्कुल ही गिरा हुआ था। वह हमें बहन की गाली देने लगा। यह हमारी बर्दाश्त के बाहर था। सातवीं क्लास के हम सभी बच्चों ने इसका विरोध करने का फैसला किया। जिसे भी अध्यापक गाली दे, वही खड़ा होकर विरोध करेगा कि बहन की गाली न दी जाए।

अब इसे मेरी बुरी किस्मत कहिए कि उस दिन उस अध्यापक की गाली का शिकार मुझे बनना पड़ा। मैंने खड़े होकर डरते हुए कहा कि मास्टरजी  बहन की गाली मत दीजिए। मास्टरजी ने ज़ोर से कहा, क्या कहा तूने? मैंने अपनी बात फिर दोहरा दी। मास्टर कुछ हड़बड़ा सा गया और मेज़ पर रखा अपना डंडा उठा कर बड़ी तेज़ी से क्लास से बाहर चला गया।

   हम सब हैरान थे, डरे हुए भी थे कि अब पता नहीं क्या होगा।
   कोई दस मिनट बाद चपरासी आया और मुझे व क्लास मॉनिटर  पृथ्वी सिंह को बुला कर ले गया, हेडमास्टर के दफ्तर में। हेडमास्टर ने हमें दो दो थप्पड़ लगाए और ‘मुर्गा’ बना दिया। खुद निकल गए साथ लगते स्टाफ रूम के लिए जहां सभी अध्यापक अपनी कक्षाएं छोड़ कर इकठ्ठा हो गए थे। गर्मागर्म बहस हो रही थी अंदर पर कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। कोई एक घंटे बाद फिर सभी टीचर अपनी अपनी क्लास में आए और बच्चों को समझाने लगे अनुशासन की बातें। हेडमास्टर गाली गलौज करने वाले टीचर के साथ हमारी क्लास में आए। मुझे और पृथ्वी मॉनिटर को भी  क्लास में बुला लिया हेडमास्टर के दफ्तर से जहां हम घंटे भर से ‘मुर्गा’ बन सजा काट रहे थे।

   “जिस तरह से इस विद्यार्थी ने गुस्ताखी की है, हम चाहें तो इसे अभी स्कूल से निकाल सकते हैं। आखरी चेतावनी दे रहे हैं सभी को। अगर फिर अनुशासनहीनता हुई तो कड़ी सज़ा मिलेगी। टीचर  कभी गुस्सा भी करते हैं तो वो तुम्हारी भलाई के लिए ही करते हैं। चलो माफी मांगो मास्टर जी से”, हेडमास्टर ने बड़े ही सख्त लहज़े में कहा।

   हम डरे हुए थे। हमने माफी मांग ली। अंदर से बड़ा गुस्सा भी आ रहा था सभी को। ग़लत बात करे मास्टर और माफी मांगे हम।

   अगले दिन कमाल हो गया। हम बड़े हैरान थे कि किसी भी अध्यापक ने गाली नहीं दी। हमारा विद्रोह सफल हो गया था। गाली-गलौज करने वाले टीचर हार गए थे। बाद में पता चला कि हमारे संस्कृत के अध्यापक राजपाल शास्त्री जी ने स्टाफ रूम मे गाली देने वाले अध्यापकों की कड़ी निन्दा करते हुए उन्हें फटकार लगाई थी।
  सभी विद्यार्थी बड़े ही खुश थे। एक बार तो उन्होंने नारे भी लगा दिए।
“विद्यार्थी एकता ज़िंदाबाद”
“गाली गलौज नहीं चलेगी”
“मार कुटाई नहीं चलेगी”।

और इस तरह हम डर-डर कर भी विद्यार्थी नेता बन गए। अब 62 साल बाद किसान आंदोलन के बीच मुझे यह घटना याद आई तो सहसा अपने सहपाठियों की भी याद आई। किसान आंदोलकारियों में मेरे सहपाठियों के बेटे या पोते भी हो सकते हैं। कुछ सहपाठी भी हो सकते हैं। आखिरकार हमने नारे लगाना तो 62 साल पहले सातवीं क्लास में ही सीख लिया था। पता नहीं मेरे सहपाठी या उनकी संतान आंदोलनकारियों के किस गुट में शामिल थे। मुख्यमंत्री को बुलाने वालों में या उसे भगाने वालों में। यह भी संभव है कि एक ही परिवार के कुछ व्यक्ति इधर हों और कुछ उधर। कुछ ऐसा ही तो हुआ था सदियों पहले केवल 50 किलोमीटर दूर कुरुक्षेत्र में जहांमहाभारत के युद्ध के आरंभ में ही श्रीमदभगवद्गीता की रचना हुई।

कैमला में भी एक कुरुक्षेत्र तो बन ही गया। भारत में जब बड़े जन आंदोलनों का नाम आएगा तो किसान आंदोलन का नाम भी कहीं सर्वोपरि स्थानों में होगा। इस आंदोलन में जब सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाज़ीपुर बॉर्डर का नाम आएगा तो मेरी शिक्षास्थली कैमला गांव का संदर्भ सूत्र भी जुड़ा मिलेगा।

   मेरे सहपाठी और उनकी संतान अपने-अपने खेमों में किसान एकता जिंदाबाद के नारे लगा रहे होंगे। मैं  उनकी सुरक्षा की मंगल कामना करता हूं तो मेरे मन मस्तिष्क में वे पुराने नारे भी गूंजने लगते हैं जब हम कहा करते थे – विद्यार्थी एकता ज़िंदाबाद,  कैमला स्कूल ज़िंदाबाद।

*अजीत सिंह  दूरदर्शन से सेवानिवृत्त निदेशक हैं। संपर्क: [email protected]

1 COMMENT

  1. बहुत अच्छा संदेश दिया है, अजीत जी ने।

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