उन्मादी न्यायाधीश

मोपांसा*

(अनुवाद एवं कहानी के अंत में समीक्षा राजेन्द्र भट्ट** द्वारा)

मृत्यु के समय वह गौरव के शिखर पर पहुँच गया था। बड़ी अदालत का मुख्य न्यायाधीश था वह – न्याय का साक्षात  अवतार जिसके निर्मल चरित्र को फ्रांस की हर अदालत में आदर्श के रूप में पूजा जाता था। उम्र के साथ सिकुड़ते और रंगत खोते उस चेहरे में कुछ ऐसी भव्यता थी; उन गहरी, भेदती आँखों में ऐसी चमक थी कि बड़े-बड़े न्यायाधीश और न्यायविद बैरिस्टरों के सिर भी अनायास झुक जाते।

      उसका पूरा जीवन अपराधियों को सज़ा दिलाने और मज़लूमों की हिफाज़त के लिए समर्पित था। लफंगों और हत्यारों का वह सबसे निर्मम शत्रु था। ऐसा लगता था कि वह उन के मन की गहराइयों में छिपे मंसूबों को भी पढ़ सकता था और एक नज़र में ही उनके इरादों की अबूझ गुत्थियों को सुलझा सकता था।   

      तो अब वह मर चुका था – बयासी साल की उम्र में, पूरे देश में सम्मानित। उसकी मृत्यु से देश भर में शोक की लहर फैल गई। शानदार लाल वर्दी में सजे सैनिकों ने अंतिम यात्रा में उसे कंधा दिया। सफ़ेद-संजीदा पोशाकों वाले  संभ्रांत जनों ने भरे गले से अपने सच्चे उद्गार व्यक्त किए।

      लेकिन जिस अलमारी में वह बड़े अपराधियों के रिकॉर्ड रखता था, वहाँ से अजीब से ब्योरों वाली डायरीनुमा पुस्तिका मिली, जिसके ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था – ‘क्यों?’

20 जून 1851: अदालत अभी-अभी उठी है। मैंने ब्लोंदे को मौत की सज़ा सुना दी। आखिर इस आदमी ने अपने पाँच बच्चों की हत्या क्यों कर दी? आखिर क्यों? अक्सर ऐसे लोगों से साबका पड़ता है जिन्हें जीवन को नष्ट करने – कुचल डालने में एक अजीब-सा मज़ा आता है। ये तो पक्की बात है कि ऐसे कामों में एक गुदगुदाता मज़ा तो है ही। एक बेहतरीन एहसास। आखिर हत्या करना एक नया सृजन, नई रचना करने जैसा अनुभव नहीं है क्या? रचो और नष्ट कर दो – क्या यही समूचे ब्रह्मांड के, हर चीज़ के – जी हाँ, हर चीज़ के इतिहास का सार नहीं है? आखिर हत्या का एहसास इतना मादक क्यों है?

25 जून: जब भी कोई सोचता है कि वह एक सजीव प्राणी है, चल सकता है, भाग सकता है … सजीव प्राणी ! आखिर सजीव प्राणी है ही क्या? महज़ एक ज़िंदा शै जो गति के सिद्धांतों से चलती है और ऐसी गति की इच्छा को खुद में समेटे है। बाकी तो कुछ भी नहीं। पैरों और ज़मीन के बीच कोई संबंध नहीं। जीवन की महज़ एक इकाई। ज़मीन पर चलता हुआ एक पुतला मात्र। और किसी के पास ताकत होती है कि इस इकाई को नष्ट कर दे – ऐसी इकाई को, जो कैसे बन गई, कोई नहीं जानता। और कुछ भी तो पीछे नहीं छूटता। सब कुछ तो सड़-गल जाता है। 

26 जून: लेकिन हत्या को अपराध माना ही क्यों जाए? आखिर क्यों? बल्कि यह तो प्रकृति का नियम है। हर जीवित प्राणी में हत्या की प्रवृत्ति होती है। किसी को मारा जाए, ताकि खुद जिया जा सके। या फिर महज़ मारने के लिए मार डाला जाए। हत्या करना तो हमारे वजूद में है – ज़रूरत है हमारी। जानवर लगातार – हर दिन, हर पल – किसी न किसी को मारते रहते हैं। आदमी भी अपना पेट भरने के लिए लगातार मारता ही है। लेकिन उसमें महज़ मज़ा लेने के लिए मारने की सहज प्रवृत्ति भी तो है। तभी तो उसने शिकार खेलने की शुरूआत की। बच्चे के सामने कोई कीड़ा-मकोड़ा आता है तो उसे मसल डालता है। फिर वह छोटे पक्षियों को मारता है। फिर छोटे जानवरों को – जिन्हें वह मार सके।

लेकिन हम सब में – बहुतों का सफाया कर देने की, नरसंहार की जो अदम्य इच्छा है, वह इतने भर से तो पूरी नहीं हो सकती। जानवरों को मार डालना ही काफी नहीं है। इंसानों को मारने की इच्छा तो बनी रहती है।  पुराने ज़माने में नरबलि चढ़ा कर  यह कामना  पूरी की जाती थी। पर आज सामाजिक जीवन की मजबूरियों की वजह से हत्या को अपराध मान लिया गया है। हम हत्यारों को बुरा-भला कहते हैं, सज़ा देते हैं उन्हें – लेकिन मारने की इस प्रबल प्राकृतिक प्रवृत्ति के आगे बरबस हुए बगैर हम जी भी तो नहीं सकते। इसीलिए तो समय-समय पर युद्धों के ज़रिए हम राहत पाते रहते हैं जिनमें एक कौम दूसरी कौम का सफाया कर देती है। फिर फूट पड़ते हैं खून के वीभत्स परनाले – ऐसी वीभत्सता जो सेनाओं को जुनून से भर देती है; और जो आपके भद्र नागरिकों, उनके बीवी-बच्चों को भी मदमस्त कर देती है। हमारे ये नागरिक और उनके परिवार हर शाम दिया-बाती करते हैं कि हत्याओं की सनसनीखेज गाथाओं की वंदना कर सकें।

क्या यह सच है कि इंसानों को काट डालने वालों से घृणा की जाती है? कतई नहीं! उन्हें तो तमगों-सम्मानों से नवाज़ा जाता है। भड़कीली-जड़ाऊ पोशाकों से सजे इन सिपाहियों की टोपियों में कलगियाँ और  सीने पर पदक दिपदिपाते हैं और तमाम ताम-झाम वाली प्रशस्तियां लहराती हैं। वे गर्व से तने होते हैं, सम्मानित होते हैं, रमणियाँ उन्हें पूजती हैं, जन-सैलाब उनकी जय-जयकार करता है – महज़ इसलिए कि  उनका पेशा इंसानी खून बहाने का है। वे अपने खून बहाने वाले हथियारों को लहराते हुए गुज़रते हैं तो संजीदा और  संभ्रांत-जन ईर्ष्या से उन्हें देखते हैं। यह सब इसीलिए तो होता है क्योंकि हत्या करना वह महान विधान है जो प्राकृतिक रूप से मानव मन की गहराइयों में रचा-बसा है। हत्या करने से ज़्यादा गरिमामय और सम्मानजनक कुछ हो ही नहीं सकता।

30 जून: हत्या ही नियम है क्योंकि प्रकृति चिर यौवन चाहती है। ऐसा लगता है, प्रकृति अपनी समस्त अचेतन क्रियाओं में सीत्कार कर रही है: तेज़! तेज़! और तेज़! जितना अधिक वह विनाश करती है, उतनी ही नवयौवना होती है।

2 जुलाई: जीवित प्राणी आखिर है क्या? सब कुछ – और कुछ भी तो नहीं। दर्शन की दृष्टि से देखें तो यह सभ्यता की अनुकृति है। स्मृति और ज्ञान के नज़रिए से देखें तो  जीवन समूचे  विश्व का सार-तत्व है। विश्व का सम्पूर्ण इतिहास जीवन में ही जन्मता-पनपता है। जीवन सभी वस्तुओं को, तथ्यों को प्रतिबिंबित करता है। हर मानव, विराट ब्रह्मांड में स्थित जैसे स्वयं एक सम्पूर्ण ब्रह्मांड है।

लेकिन ज़रा यात्रा पर निकल जाइए और इंसानों के भिनभिनाते रेवड़ को देखिए। लगता है, इंसान कुछ भी नहीं है। एकदम अस्तित्वहीन! भीड़-भरे समुद्र-तट से जहाज़ पर बैठ जाइए। थोड़ी देर में आपको, बस, समुद्र-तट ही नज़र आता है। सारे ज़लील इंसान एकदम गायब हो जाते हैं। कितने छोटे, कितने तुच्छ हैं ये! एक्सप्रेस ट्रेन से यूरोप से बाहर निकल जाएँ और खिड़की से बाहर का नज़ारा देखें। आपको सभी जगह आदमी नज़र आएंगे – अनगिनत, अजनबी, खेतों-गलियों में बजबजाते इंसान। आपको भोंदू किसान नज़र आएंगे जो महज़ खेत जोत सकते हैं। महज़ चूल्हा-चौका कर सकने वाली और बच्चे जन सकने वाली औरतें नज़र आएंगी। हिंदुस्तान या चीन चले जाएँ जहां आपको लाखों-करोड़ों इंसान नज़र आएंगे – पैदा होते, जीते और ऐसे ही गुमनाम मर जाते हुए, जैसे कि पाँवों तले कुचली गई चींटियों का कोई नाम-निशान नहीं रहता। मिट्टी के झोंपड़ों में ठुँसे रहने वाले काले हब्शियों के देश में चले जाइए। या फिर हवा से फड़फड़ाते खाकी तंबुओं में रहने वाले भूरे-भभूके अरबों को देखिए – तब आपको पता चलेगा कि आदमी अपने आप में कुछ भी नहीं है। कुछ भी तो नहीं! क्या आदमी की जान का कोई मतलब भी है? रेगिस्तान में भटकते किसी कबीले के किसी नमूने की आखिर क्या औकात है? ऐसे समझदार लोग भी हैं जो मौत की परवाह नहीं करते। वे इंसान को कुछ भी नहीं समझते। बस, अपने दुश्मन का सफाया कर देते हैं। यही तो युद्ध का मतलब है। युद्ध चाहे कबीलों के बीच हो, या फिर देशों के बीच।

जी हाँ, दुनिया का चक्कर लगा लीजिए और भिनभनाते-कुलबुलाते असंख्य अनजाने इंसानों को देखिए। अरे वाह! अब हम पहुंचे इस मसले की जड़ में! हत्या इसलिए अपराध हो गया है क्योंकि हमने इंसानों की गिनती शुरू कर दी। पैदा होते ही हम उनका पंजीकरण कर देते हैं।  उन्हें नाम दे देते हैं। बपतिस्मा कर देते हैं। वे कानून के दायरे में आ जाते हैं। यही तो समस्या है। जिस आदमी का कहीं नाम दर्ज ही नहीं है, वह तो किसी गिनती में ही नहीं आएगा। मैदान का हो या रेगिस्तान का, पहाड़ का हो या दलदल का – ऐसे अनजान और किसी रजिस्टर में दर्ज न किए गए आदमी को आप मार सकते हैं और इसकी कोई परवाह भी नहीं करेगा। प्रकृति मृत्यु से प्रेम करती है और प्रकृति हत्या की कोई सज़ा नहीं देती।

सब गड़बड़ झाला है! आखिर पवित्र क्या है? नागरिकता! इसी से किसी व्यक्ति को संरक्षण मिलता है। मानुष का जीवन पावन इसलिए है क्योंकि वह एक पंजीकृत नागरिक है। तो आरती उतारिए नागरिकता की, माननीय न्यायमूर्ति महोदय! घुटने टेक कर वंदना कीजिए!

लेकिन राज्य-सत्ता हत्या कर सकती है क्योंकि उसे नागरिक की स्थिति बदल देने का अधिकार है। अगर किसी देश की सरकार किसी युद्ध में अपने दो लाख लोगों को मरवा देती है तो महज़ अपने रजिस्टरों से उनके नाम उड़ा देती है। वह अपने रजिस्ट्री दफ्तरों के जरिए चुटकियों में उनके नाम गायब कर सकती है। मामला निपट जाता है। लेकिन व्यक्तिगत रूप से हम इन रजिस्टरों में बदलाव नहीं कर सकते। नहीं साहब! आपको तो जीवन के प्रति सम्मान व्यक्त करना होगा! नागरिकता! आपकी गरिमामयी पावनता धन्य है! रजिस्ट्रारों के कार्यालयों में आपका ही राज है! आपको प्रणाम! आप तो प्रकृति  से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं! … वाहियात!

3 जुलाई: हत्या करना विचित्र है, लेकिन है बड़ा सुखद और तसल्ली देने वाला! किसी जीते-जागते, सोच सकने वाले प्राणी के शरीर में एक छोटा सा छेद करना, छोटा सा छेद – और उस छेड़ से लाल-लाल तरल खून को बहते देखना – जीवनदायी तरल, और फिर आपके सामने, बस मांस का निष्क्रिय लोथड़ा  बचता है – विचारहीन लोथड़ा।

5 अगस्त: क्या फायदा कि मैंने पूरी जिंदगी न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठ कर मौत की सज़ा सुनते हुए गुज़ार दी। अपने फैसलों से हत्याएँ कीं, गिलोटिन के नीचे उनकी गर्दनें कटवाईं जिन्होंने चाकू से – खुद अपने हाथों से – हत्याएँ की थीं। क्या फर्क पड़ेगा अगर मैं – जी हाँ, मैं – अपने ही हाथों वह सब करने लगूँ जो उन तमाम हत्यारों ने किया था जिन्हें मैंने सज़ा-ए-मौत सुनाई। और हाँ, आखिर किसी को पता भी कैसे चलेगा कि मैंने ऐसा किया है।

15 अगस्त: उत्कट इच्छा – हाँ, यही वह शब्द है- यही प्रबल  इच्छा मेरी आत्मा में घर कर गई है – किसी कुलबुलाते कीड़े की तरह! यह कीड़ा जैसे छेद करके मुझ में घुस गया है और अब यह मेरे पूरे शरीर, मेरे  दिमाग को नियंत्रित कर रहा है। अब मैं एक ही बात सोचता हूँ: हत्या! इस इच्छा ने मेरी आँखों पर कब्जा कर लिया है और अब ये आँखें बहता लहू देखने के लिए तरसती हैं – किसी को मरता देखने को तरसती हैं। मेरे कान तड़पते हैं कि मैं कब ऐसा कुछ सुनूंगा जो आज तक नहीं सुना। मैं भयानक, कलेजा हिला देने वाली, दर्दनाक, तड़पती आवाज़ सुनूँ – किसी इंसान की आखिरी चीख जैसी! मेरे पैर मचल रहे हैं ऐसी जगह जाने के लिए जहां ऐसी हरकत को अंजाम दिया जा सके। मेरे हाथ किसी को मारने की लालसा में थरथरा रहे हैं। किसी बेलगाम इंसान के लिए यह कितना नेक, कितना अनोखा, कितना बढ़िया काम होगा – ऐसे इंसान के लिए जो यश के शिखर पर है, जो अपने दिल का राजा है और दुनिया के सबसे लज़ीज़ एहसास की तलाश में है।

22 अगस्त: मैं और नहीं रुक सका। मैंने एक नन्ही सी जान ले ली। हाथ साफ करने के लिए एक शुरूआत!

मेरे नौकर ज्यां के पास एक गोल्डफिंच थी जो उसने अपने रसोईघर की खिड़की पर टंगे पिंजड़े में रखी थी। मैंने उसे किसी काम  के बहाने बाहर भेजा और उस नन्ही चिड़िया को अपने हाथ में ले लिया। मैं उसके दिल की धड़कन महसूस कर रहा था। गरम-गरम लग रहा था। मैं चिड़िया को अपने कमरे में ले आया। बीच-बीच में उसे ज़ोर से दबाता रहा। उसका दिल ज्यादा तेजी से धड़कने लगा – डरा हुआ और लज़ीज़। मैंने उसका करीब-करीब दम ही घोंट दिया। लेकिन इस तरह तो मुझे खून टपकता नज़र नहीं आ सकता था! इसलिए मैंने नाखून काटने वाली छोटी कैंची निकाली और उसकी गर्दन काट डाली – बड़े करीने से, तीन जगह घाव करके। उसने अपनी चोंच खोली, मेरे शिकंजे से निकलने की कोशिश की, लेकिन मैंने उसे दबोचे रखा – जैसे मैंने किसी पागल कुत्ते को दबोच रखा हो। और तभी मैंने खून निकलते देखा। कितना सुंदर था यह – लाल-सुर्ख, चमकीला। खून! लगा, इसे पी जाऊं। मैंने अपनी जीभ की नोक खून में डुबोई। बढ़िया था। लेकिन बेचारी नन्ही चिड़िया में जरा-सा तो खून था। इस दृश्य का मज़ा लेने के लिए ज़्यादा वक्त ही नहीं था। अगर मैं किसी सांड के जिस्म से जम कर खून बहते देखता तो वाकई मज़ेदार होता। 

फिर मैंने वही किया जो असली हत्यारे करते हैं। मैंने कैंची साफ की, हाथ धोए, पानी फेंक दिया और चिड़िया के जिस्म को बगीचे में ले गया। मैंने उसे स्ट्रॉबेरी की झाड़ी के नीचे दफन कर दिया। किसी को इस बात का पता भी नहीं चलेगा। हर रोज मैं इस पेड़ की एक-एक स्ट्रॉबेरी खाऊँगा। जिंदगी कितनी मज़ेदार हो सकती है – अगर आदमी को मज़े लेने का तरीका आए!

मेरा नौकर लगातार रो रहा है। उसे लगता है, चिड़िया उड़ कर भाग गई है। मुझ पर शक भी भला कैसे होगा! वाह!

25 अगस्त: मुझे एक इंसान को मारना ही है! साफ बात है – मारना ही है!

30 अगस्त: काम हो गया। कितना आसान था। मैं वर्नेस वुड में टहलने निकला था – निश्चिंत! उस समय, मन में ऐसा कोई इरादा ही नहीं था। तभी रास्ते में वह लड़का नज़र आया – मक्खन लगी डबल रोटी खाता हुआ। मुझे देख कर रुका। बोला,”गुड मॉर्निंग, प्रेसिडेंट सर।“

मुझे लगा, इसे तो मारा जा सकता है।

मैंने पूछा, “अकेले हो, बच्चे।“

“हाँ, सर।“

“इस जंगल में एकदम अकेले?”

“हाँ, सर।“

उसको मारने की तलब एकदम शराब की तलब जैसी थी। मैं धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा। मुझे लगा, वह भागने ही वाला था। मैंने उसका गला पकड़ लिया… दबाता गया, दबाता गया – पूरी ताकत से। आतंक भरी आँखों से वह मुझे देख रहा था। कैसी आँखें थी वे! इससे पहले मुझे कभी ऐसा बर्बर एहसास नहीं हुआ – लेकिन बस थोड़ी देर के लिए। उसने अपने कमज़ोर  हाथों से मेरी कलाइयाँ जकड़नी चाहीं और आग में गिर रहे पंख के मानिंद उसकी देह तड़पी। फिर सब शांत हो गया।

मैं घर लौट आया। जम कर खाया। कितना मामूली काम था यह! उस शाम मैं काफी खुश था – मस्त। जैसे बदन में नई जान आ गई हो।

मैंने शाम प्रीफ़ैक्ट (प्रधान न्यायाधीश) के घर गुजारी। सभी लोग मेरी हाजिर-जवाबी के कायल हो गए उस शाम।

लेकिन मैं खून तो नहीं देख सका। मज़ा नहीं आया।

30 अगस्त: लाश बरामद हो गई है। हत्यारे की तलाश की जा रही है। क्या बात है!

1 सितंबर: दो लफंगों को गिरफ्तार किया गया है लेकिन उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिल पाए  हैं।

2 सितंबर: लड़के के माता-पिता मुझे मिलने आए। रो रहे थे। वाह!

6 अक्तूबर: हत्यारे का अभी तक पता नहीं चल पाया है। किसी गुंडे-मवाली ने ही हत्या की होगी। आह! अगर मैंने खून बहता देखा होता, तभी मुझे तसल्ली होती।

10 अक्तूबर: मेरे नस-नस में किसी की जान लेने की तलब जग गई है, जैसे बीस साल की उम्र में सेक्स की इच्छा भड़क उठे।

20 अक्तूबर: एक और मौका मिल ही गया। मैं लंच के बाद नदी किनारे टहल रहा था। अचानक विलो की छांव में सोये मछुआरे को देख कर मेरी आँखें चमक उठीं। दोपहर का वक्त था। पास ही आलू के खेत थे। जैसे मेरे ही खुशकिस्मती से,किसी ने फावड़ा छोड़ रखा था – जमीन में धंसा हुआ।

मैं फावड़ा लेकर वापस आया। बल्लम की तरह उठाया और फावड़े के एक ही वार से मछुआरे की खोपड़ी फोड़ डाली। आह! कैसा झर-झर खून बह रहा था! अब की बार तो वाकई मज़ा आ गया! दिमाग की गुड्डी के साथ मिला लाल-गुलाबी खून! धीरे-धीरे बह कर पानी में मिलता हुआ! और में अपनी भव्य चाल से आगे बढ़ निकला। वाकई मैं कितना शानदार हत्यारा बन गया हूँ!

25 अक्तूबर: मछुआरे का केस बड़ा सनसनीखेज और दिलचस्प होता जा रहा है। उसके भतीजे को गिरफ्तार कर लिया गया है। वह मछली पकड़ने अपने चाचा के साथ गया था।

26 अक्तूबर: मामले की तफ़्तीश कर रहे मजिस्ट्रेट का मानना है कि भतीजे ने ही हत्या की। सारा शहर इस बात पर यकीन कर रहा है। वाह!

27 अक्तूबर: अपने बचाव में भतीजा एकदम लचर दलील दे रहा है कि वह ब्रैड और चीज़ लेने  गाँव चला गया था। वह बार-बार कह रह है कि जब उसके चाचा की हत्या हुई, वह वहाँ नहीं था। उसकी बात पर कौन यकीन करेगा!

28 अक्तूबर: भतीजे ने अपना गुनाह करीब-करीब कबूल कर लिया है। लगातार पूछताछ-जिरह से उन्होंने उस गरीब के दिमाग को पूरी तरह चकरा दिया है। इसे कहते हैं इंसाफ! भई वाह!

15 नवंबर: भतीजे के खिलाफ लगातार नए-नए पुख्ता सबूत मिल रहे हैं। वह अपने चाचा की जायदाद का वारिस भी था। बड़ी अदालत की अध्यक्षता मुझे ही करनी है।

25 जनवरी: सज़ा-ए-मौत! सज़ा-ए-मौत! सज़ा-ए-मौत! मैंने उसे मृत्यु-दंड सुना डाला। वाह! सरकारी वकील ने जोरदार तकरीर की। जज़्बात से लबालब! मैं उसे गिलोटिन से कटते खुद देखने जाऊंगा।

10 मार्च: सब निबट गया। आज सुबह उसे गिलोटिन से ज़िबह कर दिया गया।वाकई मज़ेदार!किसी इंसान का सिर कटता देखना कितना प्यारा लगता है!खून झर-झर करता बह निकला!झर-झर करता! काश! मैं इस खून में नहा सकता! खून मेरे बालों, मेरे चेहरे, मेरे पूरे बदन से बहता हुआ जमीन पर फैल जाता! चारों तरफ लाल लहू! कैसा नशीला होता यह सब! काश! अगर सारे लोग यह समझ पाते!

अब मैं इंतजार करूंगा – इंतजार कर सकता हूँ अब मैं!

इस डायरी में और भी कई पृष्ठ लिखे हुए थे। लेकिन उनमें फिर किसी अपराध का ज़िक्र नहीं था। जब डॉक्टरों को यह डायरी दिखाई गई तो उनकी आम राय थी कि दुनिया में ऐसे धूर्त और खतरनाक पागलों की कमी नहीं है। 

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‘उन्मादी न्यायाधीश’ – आज के संदर्भ में एक टिप्पणी

2014 में अंग्रेजी में अनूदित एक संस्करण से फ्रेंच भाषा के विख्यात कथाकार गाई दे मोपांसा (1850-1893) की (अं फ़ू -एक पागल) इस कहानी का मैंने हिन्दी अनुवाद किया जो ‘हंस’ पत्रिका के दिसंबर 2014 के अंक में छपा। मोपांसा मानवीय नियति की विचित्रताओं को झटका देते हुए व्यक्त करने वाले कथाकार हैं। तब इस कहानी को मैंने वैसे ही देखा था। अचानक इस पर नज़र पड़ी तो ‘देजा वू’ जैसा भाव आया। लगा,ऐसा तो जैसे अभी-अभी तो अपने समय में यही सब घट रहा है। आइए, उन खतरों का भी ज़िक्र कर लें जिनसे यह कहानी आगाह कर रही है।

1-  यह एक मानसिक विकृति से ग्रस्त व्यक्ति की कहानी है। ऐसा बीमार व्यक्ति अगर न्याय या तंत्र के किसी हिस्से में निर्णयों  को ले सकने या प्रभावित कर सकने वाले सत्ता-वर्णक्रम में किसी स्तर पर हो तो पूरे तंत्र, पूरे समाज को सड़ा सकता है – एक सड़े सेब की तरह।

2-  हम सब के अंदर कोई न कोई विकृति, बीमारी या कमी हो सकती है। लेकिन अगर हम सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक अथवा न्यायिक वर्णक्रम में किसी जिम्मेदार स्तर पर हों तो हमें निरंतर निर्मम होकर अपने मन-मस्तिष्क का विश्लेषण और चीर-फाड़ करते रहनी चाहिए। यहाँ नेहरू का ‘चाणक्य’ छद्म नाम से 1937 में लिखा लेख याद आता है।1937 में प्रतिष्ठित चिंतक-संपादक रामानन्द चट्टोपाध्याय के अखबार ‘दि मॉडर्न रिव्यू’ में यह लेख छपा था। नेहरू जी को लगातार तीसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष ( तब इस पद को ‘राष्ट्रपति’ कहा जाता था) बनाए जाने की पेशकश के बीच, खुद उन्होंने ही निर्मम आत्म-विश्लेषण करते हुए यह लेख – ‘वी वांट नो सीजर्स’ लिखा था। ‘चाणक्य’ ( यानि नेहरू का छद्म-नाम) ने लिखा था कि उत्कट देशभक्त होते हुए भी, नेहरू में बहुत तेजी से कामों को कर लेने की बेचैनी है, वह कमजोरी और काम में ढीलापन बर्दाश्त नहीं कर सकता और सबसे बड़ी बात – वह बेहद लोकप्रिय है। इसलिए अगर उसे ज्यादा सिर चढ़ाया जाए तो वह तानाशाह बन सकता है। (इसलिए उसे तीसरी बार कांग्रेस नहीं बनाया जाए।) किसी भी क्षेत्र के नायकों की आत्म-विश्लेषण और आत्म-अनुशासन की ऐसी श्रेष्ठ कसौटी ही लोकतन्त्र या फिर इसके अंतर्गत दूसरी संस्थाओं ( इस कहानी में न्यायपालिका ) को बचा सकती है।

3-  लेकिन अगर नेता (या न्यायाधीश) ऐसा सजग और नैतिक आत्म-विश्लेषण  करने में समर्थ नहीं हो तो वह अपने भ्रष्ट आचरण, मानसिक विकृति या कुंठा के पक्ष में तर्क और ‘नरेटिव’ गढ़ने लगता है, उन पर खतरनाक तरीके से विश्वास भी करने लगता है और फिर उन भ्रष्ट, बीमार उद्देश्यों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, अपनी सत्ता की मशीनरी और प्रचार-तंत्र का किसी भी हद तक इस्तेमाल कर सकता है।

4-  न्यायाधीश के हिंसा के विश्लेषण के जरिए यह कहानी हमारे सामने आईना रख देती है कि कैसे तमाम युद्ध, युद्धों का गौरव-गायन, सैनिकों को मिले चमकीले तमगे, भड़कीली पोशाकें, ‘रमणियों और जन-सैलाब’ का उनपर दिल लुटाना – यह सब (हमारे जैसे भी)  सभ्य-सुसंस्कृत लोगों के अंदर के हत्या-प्रेमी को उजागर करता है। सामाजिक स्थिरता की मजबूरियों के चलते एक व्यक्ति की हत्या तो अपराध है लेकिन युद्ध में लाखों लोगों को मार दिए जाने का गौरव-गान हो सकता है। युद्धों के अपने तर्क और संभवतः न्याय-पक्ष भी हो सकता है।  लेकिन यह कहानी हमें आगाह करती है कि कहीं हम युद्धोन्माद में इसलिए तो नहीं फंस रहे हैं, या फंसाए जा रहे हैं – क्योंकि इसके पीछे हमारी या हमारे  नेतृत्व की हिंसा-वृत्ति, युद्ध के ‘जायज़-देशभक्त’ तरीके से खून देखने की लालसा, या किसी भी तरह सत्ता पर बने रहने और दूसरों के संसाधन जल्दी से हड़प लेने के स्वार्थ काम कर रहे हैं। ‘युद्धम देहि’ कहने से पहले, अपने हिंसा-भाव और तर्कों की निर्मम पड़ताल करने का संदेश देने वाली यह ‘एंटी वार’ और ‘एंटी वायलेन्स’ कहानी भी है।   

5-  इसके (खल)नायक के हिंसा में ‘थ्रिल’ पाने के विवरण वीभत्स हैं। लेकिन उन्हीं के ज़रिए समाज में सम्मानित-सुसंस्कृत हिंसक व्यक्तित्व का असली कुरूप चेहरा पूरी वीभत्सता से सामने आता है।

6-      हर हिंसा के पीछे साधारण, विपन्न, असहाय  लोगों को तुच्छ और घृणित समझने का कुतर्क होता है। अगर आप खाते-पीते मध्य वर्ग से हैं तो ज़रा सोचिए, कितनी बार आपने, अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी और जुड़ाव से विरक्त होकर,  अपनी ‘निर्दोष’ गप-शप में ‘जाहिल-गरीब लोगों द्वारा जनसंख्या बढ़ा देने और शहरों में भीड़-भाड़ कर देने’ के खतरों पर फतवे दिए हैं?  क्या आपने उन लोगों के जीवन की किल्लतों, जनसंख्या के आंकड़ों, उसके बढ्ने-टिक जाने-कम होने के चक्रों, उसके सामाजिक-आर्थिक कारणों और  अन्य देश-समाजों के अनुभवों को सहृदयता और संजीदगी से जानने-समझने की कोशिश की है? अगर नहीं,तो यकीन मानिए, आप इस कहानी के न्यायाधीश के करीब हैं। 

7-      (अ)न्याय की प्रक्रिया और प्रचार के पक्ष में ‘नरेटिव’ गढ़े जा सकता हैं जो समय के साथ ‘प्रशस्ति-गाथाएँ’ भी बन जाती है। इस कहानी के न्यायाधीश के मरते ही उसे न्याय का मसीहा, अपराधियों का शत्रु और गरीब- मज़लूमों का सच्चा मित्र बता कर उसे ‘राष्ट्रीय सम्मान’ दिया जाता है। दूसरी ओर, (अ)न्याय-प्रक्रिया के दौरान, निर्दोष और असहाय के खिलाफ कैसे ‘शानदार और पुख्ता’ दलीलें गढ़ी जा सकती हैं – सनसनी और ‘मीडिया ट्रायल’ और ‘मीडिया कोरोनेशन’ के युग में हमें इन स्थितियों की आशंकाओं के प्रति भी सजग रहना है। इसकी एक ही काट है – गांधीजी की तरह अंतिम पंक्ति में जो ‘जन’ बैठा है, उसके प्रति सदय रहना, उसे सम्मान और महत्व देना।

8-      एक जबर्दस्त ‘देजा वू’ इस कहानी में (खल)नायक की यह चिंता और ‘दुख’ है कि “जनसंख्या रजिस्टरों’ में नाम आ जाने के बाद आम लोगों को पहचान और ‘नागरिकता’ मिल जाती है – जिसके बाद उनका सफाया नहीं किया जा सकता। क्या जनसंख्या रजिस्टरों से ‘दीमक’ जैसे लोगों के नाम काटने के पीछे भी यही ‘चिंता’ काम कर रही है। दूर परदेश – फ्रांस में किसी कहानी को लिखे जाने के करीब 140 साल बाद, वैसा ही विचार उन्हीं शब्दों – ‘जनसंख्या रजिस्टर’ में ‘नाम दर्ज’ होने की ‘नाराजी’ उसी रूप में आ जाए – यह कैसा विचित्र संयोग है!

9-      अभी-अभी तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद स्त्रियों (और अपने विरोधी कबीलों,पंथों और लोगों) की हिंसा के जरिए पहचान मिटा देने के अभियान को भी आप इस कहानी के (खल)नायक के ‘विचारों’ में देख सकते हैं। पहचान मिटी,  ‘जनसंख्या रजिस्टर’ से नाम मिटा – फिर तो हर असुविधाजनक, तुच्छ प्राणी को मार सकते हो।

शायद मोपांसां ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि यह कहानी कभी – एकदम दूसरे देश-काल के यथार्थ जैसी लगने लगेगी। यों जॉर्ज ऑरवेल ने भी कहाँ सोचा होगा कि ‘1984’ के दशक के अंत तक, कम्यूनिज़्म के “खतरे’ के समाप्त हो जाने के तीन दशक बाद ‘बिग ब्रदर’ पूरी क्रूरता और धूर्तता, टेक्नोलॉजी और मीडिया के शस्त्रों से लैस, दुनिया के अनेक देशों में प्रकट हो जाएगा।  

यही तो समय का चक्र है जो कृति को कृतिकार से भी ज्यादा बड़ा बना देता है।

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फ्रेंच कथाकार *मोपांसा (1850-1893) का पूरा नाम गाय दी मोपासां था। यदि आप उनके बारे में ज़्यादा जानना चाहें तो आप जानकीपुल वैबसाइट पर यह निबंध देख सकते हैं।

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक/समीक्षक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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3 COMMENTS

  1. आज के नरेटिव में वहते हुए आम आदमी में ” कहानी के न्यायधीश के नजदीक होने ” का अपराध बोध जगाना, जनसं ख्या पंजीकरण रजिस्टर से नामों को हटाने के खतरे की ओर संकेत, और भी …….
    राजेन्द्र जी ने कहानी की मीमांसा से आज की स्थितियों पर गौर करने पर मजबूर कर दिया हैं। बहुत सुंदर।

  2. Hindi translation of original story is commendable. Had it not been a literal translation, it would probably had left a better impact. Secondly, this story deserves a standalone mention. Readers would have enjoyed it more. Your comments deserve a special mention. These are highly thought provoking. As such these should have come as an independent story to capture readers’ unmitigated attention. Congrats for laudable narrative.

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