सच कहना क्यों मुश्किल है – फिल्मी गीत से भी मिल रहा जीवन दर्शन

सुधीरेन्द्र शर्मा*

‘सच’ सब सुनना चाहते हैं, लेकिन सच बोलना कोई-कोई! शायद इसलिए सच बोलने से सब कतराते हैं कि कहीं सच को हथियार बनाकर सच-बोलने वाले पर ही उसका इस्तेमाल न कर दिया जाये। हम सभी कभी-न-कभी ऐसी विडंबना का शिकार हुए होंगे या ऐसे अनुभवों से बावस्ता रहे होंगे। क्या यही कारण है कि सच बोलने से अक्सर लोग डरते/घबराते हैं? इंटरपर्सनल संबंधों पर इसका अप्रीतिकर प्रभाव तो पड़ता ही है। तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सच हमें कमजोर बनाता है?

निराश न हों क्योंकि कवियों ने इस तथ्य की गहराई को समझा है। इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि जो डरता है वो सच से बच कर रहता है। कई कारण दिए जाते हैं सच को छुपाने के, शायद इसलिए भी कि साधारण व्यक्ति के पास भावों की अभिव्यक्ति इतनी कमजोर होती है कि वो जानते हुए भी कह नहीं पाता है। मैं महसूस करता हूँ कि यदि इस डर का निडरता से मुक़ाबला न किया जाये तो वो घर कर जाता है जिसकी भारी कीमत देनी पड़ सकती है। मेरे कई मित्र हैं जो अनजाने डर से ग्रसित रहे हैं। छुपाते हैं उस कल को जो बीत गया है और परेशान रहते हैं आज में। आनेवाला कल भी इसी डर से पीड़ित रहता है।

राग दरबारी में स्वरबद्ध आनंद बक्शी की तीन दशक पुरानी रचना संगीत का तो एक नगीना है ही, गीत के शब्द स्वयं में बहुत कुछ कह जाते हैं। टूटा और बिखरा प्रेमी अपने अतीत को याद करते हुए कहता है ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है, वही आग सीने में फिर जल पड़ी है’ – यह गीत उन स्थितियों को बखूबी ब्यान करता है जिन में प्रेम की नींव रखी गई थी, और बदलते परिवेश को भी शब्दों में खूब कोमलता से पिरोता है. ‘कुछ ऐसे ही दिन थे जब हम मिले थे, वही तो है मौसम मगर रुत नहीं है’. दो ही  शब्दों – ‘मौसम’ और ‘रुत’ से बदलाव को इंगित करता है।

1989 में प्रदर्शित निदेशक यश चोपड़ा की रोमांटिक कृति ‘चांदनी’ का यह गीत कई कारणों से समझा जाना चाहिए। आनंद बक्शी की जीवन यात्रा को उनके सुपुत्र राकेश द्वारा लिखी जीवनी से जानने को मिला कि उन्होंने अपने अनुभवों को शब्दों में खूब पिरोया है। कुछ इस तरह की रचनाएँ जो सुनने वालों के जीवन का अटूट अंग बन गई हैं। मेरा तो कुछ ऐसा ही अनुभव है। गायक सुरेश वाडकर ने भी क्या भावात्मक प्रस्तुति दी है। लगभग तीन अंतरों में ही जीवन के एक बहुमूल्य समय का बखान किया। जीवन के उस दुखदायी मंज़र को शब्दों में कलात्मक ढंग से बांधा है।

ब्रेक-उप के इस युग में अपनी हार को छुपाने वाले जोड़ों को सीधा सन्देश है कि प्रेम की राह में हार भी सृजनात्मकता का सृजन कर सकती है, बशर्ते हार को एक पाठ की तरह माना जाये। सच तो ये है कि जीवन सिर्फ अनुभवों का संकलन ही तो है जिसे बांटने से लाभ ही होता है।

संतूर और बांसुरी इस गीत के मुख्य वाद्य हैं जो गीत को एक अहसास में परिवर्तित कर देते हैं। शिव कुमार शर्मा का संतूर वादन और हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी इस गीत को संगीत की ऊंचाई पर ले जाते हैं। इस गीत में आलाप न सिर्फ शब्दों को गति देता हैं परन्तु निःशब्दों को भी एक स्थान. इसी वजह से यह गीत एक सुन्दर अहसास का अनुभव देता है.

अपने अनुभव की छिपाने के बजाय प्रेमी कहता है ‘कोई काश दिल पे ज़रा हाथ रख दे, मेरे दिल के टुकड़ों को इक साथ रख दे’, और यह कहते हुए उसको यह भी आभास है कि ‘मगर है यह सब खावों-ख़यालों की बातें, कभी टूट कर चीज़ कोई जुडी है’! आनंद बक्शी की कलम को सलाम और शिव-हरी के संगीत को नमन! आशा है इस रचना से बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलेगा।

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सुधीरेन्द्र शर्मा * मूलत: पत्रकार हैं किन्तु बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी हैं। जे.एन.यू. से पर्यावरण विज्ञान में पीएचडी तो बरसों पहले पूरी कर ली किन्तु कहते हैं कि “पर्यावरण को समझने अब लगा हूँ – वो भी संगीत के माध्यम से”! संगीत वैसे इन्हें बचपन से ही प्रिय है। फिल्म-संगीत में भी फ़िलॉसफी खोज लेते हैं। इस वेब-पत्रिका में फिल्म-संगीत में छिपी जीवन की गहरी बातों के बारे में आप तान-तरंग नामक केटेगरी में कई लेख पढ़ सकते हैं। पिछले कई वर्षों से गहन विषयों पर लिखी पुस्तकों के गंभीर समीक्षक के रूप में अपनी खासी पहचान बनाई है। इनकी लिखी समीक्षाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं जिन्हें वह अपने ब्लॉग में संकलित कर लेते हैं।  

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