महाभारत से एक प्रेमकथा

राजेन्द्र भट्ट

नक्कारखाने में तूती – 2

पिछली बार ज़िक्र किया था कि गीता में कितने सुंदर तरीके से स्वयं कृष्ण कहते हैं कि अगर जड़ वैराग्य सही रास्ता होता तो सारी सृष्टि ही समाप्त हो जाती और एक तरीके से वह ( यानि ईश्वर  ही ) सृष्टि को नष्ट करने वाले माने जाते। इसलिए वह स्वयं कर्म करते हैं। चाहे जैसा भी संकट हो, कर्तव्य तो निभाना ही है। दैन्य, पलायन, निष्क्रियता और आत्महत्या – इनमें से कोई भी विकल्प नहीं हैं।

         वाकई अगर हम अपनी पोथियों से लाल कपड़ा हटा कर उन्हें अर्थ समझते हुए पढ़ें तो निश्चय ही हम ज़्यादा मानवीय और समझदार हो सकते हैं और इनको बिना पढ़े, इनके नाम पर आग लगाने वालों से बच सकते हैं। ये और बात है कि आग लगती है तो सबसे पहले गरीब-मजलूम ही मरते हैं लेकिन आग भड़काने वाले लोगों को याद रखना चाहिए कि ज़्यादा आग फैलने पर वह भी नहीं बचेंगे – शुरू में सत्ता के दंभ और लालच में भले ही उन्हें ऐसा न लगे कि वो आग से दूर रहकर सिर्फ तमाशा देखेंगे।

       बहरहाल, आज एक प्रेम-कथा – अपने देश के गौरव-ग्रंथ महाभारत से! इसके वनपर्व में नल-दमयंती की कथा है। प्रसंग है कि दमयंती का स्वयंवर होने वाला है। स्वर्ग के चार देवता भी उन्हें पाना चाहते हैं। देवता हैं तो ज्यादा समर्थ हैं  और पहुँच जाते हैं नल जैसा ही रूप और वेश-भूषा धारण कर स्वयंवर में। दमयंती भ्रमित होती हैं पर विवेक से सोच-समझ कर सही निर्णय ले पाती हैं। कैसे? 57वें अध्याय के श्लोक 24-25 का पक्के  – वही गीताप्रेस की धार्मिक पोथी वाले अनुवाद को थोड़ा संक्षिप्त किया है –

      दमयंती ने देखा कि (चार) देवताओं के किसी अंग में न पसीना है, न पलकें झुकती हैं, न फूलमालाएँ कुम्हलाई हैं, न उनपर धूल-कण हैं और उनकी परछाई भी नहीं पढ़ती। दूसरी ओर एक पुरुष (नल) की परछाई भी है, फूलमाला थोड़ा  कुम्हलाई है, शरीर पर धूल-कण और पसीना भी है, और पलकें भी झपकती हैं। बस, दमयंती (स्वर्ग के  सर्व-समर्थ  देवताओं का नहीं), अधूरे, थके  मानव – नल का वरण कर लेती हैं।

     यानी अपनी दुनिया में ‘सम्पूर्ण’ अच्छाइयों- सामर्थ्य वाले देवता और सम्पूर्ण बुराइयों वाले राक्षस नहीं बसते। यहाँ तो मानव बसते हैं – मिली जुली अच्छाइयों-बुराइयों, क्षमताओं-कमियों – और इनकी वजह से सुखी-दुखी होने वाले  – इसीलिए तो प्यारे-प्यारे, संभावनाओं से भरपूर !!

     कल्पना करें अगर हम देवताओं जैसे पूर्ण, सर्व-समर्थ होते तो क्या होता? सब कुछ सही तरीके से करते – सब कुछ पा जाते – एक रस सपाट सुख होता। न अभाव का दुख, न पाने की खुशी, न प्रेम, न घृणा, न उल्लास, न निराशा, न करुणा, न रिश्ते, न अनुराग-विराग, न जीवन की गुत्थियाँ-उलझनें, न सुलझाने के प्रयास। और आदिम काल से दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, प्रयोगों- अभियानों के जरिए मानव की जो विकास-यात्रा रही है, वह भी नहीं होती। बस, एक पूर्ण , अघायी जड़ता होती। ऐसा ‘बोरिंग’, बीमार होता अपना स्वर्ग !

      तभी तो मानवी दमयंती ने थोड़ा थके-अधूरे से – लेकिन संभावनाओं, अनुराग-विराग, साहित्य, प्रेम, कला, विज्ञान से सम्पन्न मानव नल को चुना। समर्थ लेकिन सपाट,संवेदन, भावहीन ‘बोर’ देवताओं  को नहीं।

       यह सुंदर प्रसंग हमें व्यक्तियों, समाजों, प्रवृतियों को पूरी संवेदना, ‘एम्पेथी’ से समझने की दृष्टि देता है। इस धरती का इंसान महज़ गुणों-नेकियों- क्षमताओं का – या फिर सिर्फ बुराइयों-कमियों का पुतला नहीं है। वह कालिख-पुता ‘काला’ या दूध-धुला ‘सफ़ेद’ नहीं है। उसमें बहुत कुछ मिला-जुला ‘ग्रे’ है। (चूंकि जैसा हमने माना कि पीछे की ओर मुंह कर चलने और भविष्य के प्रति हताशा तथा आत्म-हत्या का विकल्प नहीं है, इसलिए) हम मानते हैं कि अधूरे से पूर्णता, बुराई से अच्छाई की ओर मानव और समाज की यह सतत यात्रा है। इस यात्रा का उत्साह और प्रयास ही तो हमें जीने का अर्थ देता है। तभी तो वेदों में हमारे पूर्वज ‘असत्य से सत्य, अंधेरे से उजाले और मृत्यु से अमरता की ओर’ निरंतर बढ़ते जाने की सुंदर कामना करते हैं।   

        सार्वजनिक जीवन के विविध – राजनैतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, नैतिक – पक्षों को लेकर हम अक्सर कोई एक पसंद-नापसंद  अथवा जीवन-दृष्टि विकसित कर लेते हैं या फिर हमारे संस्कारों, परिवेश, शिक्षा-दीक्षा और पूर्वाग्रहों से ऐसी दृष्टि ढल जाती है। इसी के आधार पर, अक्सर कुछ लोग व्यक्तियों-समूहों के अच्छे-बुरे, महान-तुच्छ, हीरो-विलेन होने के खांचे बना लेते हैं और उन्हीं खांचों में उन्हें आँकते हैं ।

       ऐसा होना स्वाभाविक है पर दिक्कत तब आती है जब हम यह बुनियादी बात भूल जाते हैं कि व्यक्ति/प्रवृति पूरी तरह काले-सफ़ेद नहीं, ‘ग्रे’ होते हैं – उजले-काले के अनुपात में फर्क हो सकता है।ऐसे में, हम व्यक्ति/ प्रवृत्ति के बारे में फैसले पहले कर लेते है, फिर उस फैसले के हिसाब से अपने तथ्य गढ़ लेते हैं, तर्कों को तोड़-मरोड़ लेते हैं।

       जाहिर है, यह अनजाने में हो तो अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण है।  और साजिश से हो तो समाज की समरसता नष्ट करने की, आग-लगाऊ प्रवृत्ति है । अगर हम पसंद न आने वाले व्यक्ति/ प्रवृत्ति के प्रति भी सहिष्णु और पूर्वाग्रह-मुक्त हो सकें, दूसरी ओर यह भी समझ सकें, कि हमारे पसंदीदा नल जैसे नायक में भी कुछ मानवीय कमियाँ हो सकती हैं, हम  मिली-जुली अच्छाइयों-बुराइयों वाले हम प्यारे-से इंसान है, तो अपनी दुनिया कम गुस्सैल, ज्यादा प्यारी हो सकेगी।

और फिर, देवताओं से भी बढ़ कर मनुष्य के पास तो प्रेम है न ! प्रेम ही तो मानव नल को देवताओं से बड़ा बना देता है। और प्रेम का अभाव भी, अक्सर मनुष्य को ज्यादा खुदगर्ज, ज्यादा गुस्सैल और ज्यादा उन्मादी बना देता है – जो व्यक्ति के लिए ही नहीं पूरे समाज के लिए खतरनाक हो जाता है।

       इसलिए स्वस्थ, शालीन और उम्मीदों भरा समाज बनाने के लिए प्रेम-अभागों को अपनाना, उनका इलाज ज़रूरी है। तो अगली बार प्रेम- अभागों को जादू-झप्पी देंगे।

लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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