इस कटुता से किसी का भला नहीं होगा

अजय तिवारी*

राजनीति में कटुता बढ़ती ही जा रही है जो लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से सरकारी आवास रिक्त कराना सिर्फ एक बंगले का मामला नहीं है। और ना ही इसे सिर्फ राहुल गांधी का मामला समझना चाहिए। राहुल गांधी कोई आर्थिक रूप से कमजोर राजनेता नहीं हैं। उनके पास साधनों की भी कोई कमी नहीं है।

यह घटना इसलिए विचारणीय है कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। राजनीति में विचारों के सम्मान की जो लंबी परंपरा है उस पर आघात होगा। नीतियों की आलोचना करना लोकतंत्र की जरूरत है। अगर ये न हो तो व्यवस्था राजतंत्र जैसा व्यवहार करने लग जाती है। लोकतंत्र में विपक्ष एक तरह से प्रतिपक्ष होता है। चुनाव नम्बर का खेल है और उसमें एक ही पक्ष जीत सकता है। यह मुकाबला सम्पन्न हो जाने के बाद सरकार और विपक्ष दोनों का मकसद यही होना चाहिए कि देश को आगे ले जाना है और जटिल मसलों का समाधान खोजना है।

चुनावी प्रतिद्वंदिता के बावजूद हमारे देश में भी नेताओं के निजी रिश्ते अच्छे रहे हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू के सबसे बड़े आलोचक डॉ राम मनोहर लोहिया ने भी हमेशा निजी रिश्तों का ख्याल रखा। लखनऊ में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की बैठक का किस्सा समाजवादी कार्यकर्ता आज भी लोहिया के सम्मान में गर्व से सुनाते हैं। उस बैठक में जब नेहरू और एडविना माउंटबेटन की निकटता को पार्टी के नेताओं ने मसालेदार अंदाज में सुनाया तो लोहिया ने डपट दिया। उन्होंने बैठक में कहा, ‘लोहिया, प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों का विरोधी है, न कि जवाहर लाल नेहरू का’!

इसी तरह से इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करने वाले जयप्रकाश नारायण के बीच भी हमेशा संवाद बना रहा। यह अलग बात है कि दोनों तरफ के कुछ व्यक्तियों के खराब रवैये की वजह से उनके बीच राजनीतिक सामंजस्य नहीं बैठा। इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण के लिए खरीदी गई डायलेसिस मशीन के लिए धन राशि भिजवाई थी। इसी तरह से इंदिरा गांधी के चुनाव हार जाने के बाद जयप्रकाश नारायण ने उनके घर जाकर यह फिक्र की थी कि अब उनका (इंदिरा गांधी) खर्च कैसे चलेगा।

भाजपा के नेता अटलबिहारी वाजपेयी दूसरे नेताओं को फोन करके पूछ लिया करते थे कि भोजन पर कब बुला रहे हो। लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के परिवार का सोनिया गांधी से अच्छा संवाद होता था। सार्वजनिक कार्यक्रमों में अकसर आडवाणी की पत्नी कमला आडवाणी को सोनिया गांधी से बात करते देखा जाता था। सुषमा स्वराज ने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का जमकर विरोध किया था लेकिन जब सोनिया गांधी की सेहत बिगड़ी थी तो वह उनका नियमित हाल मालूम करती थीं। जब सोनिया गांधी इलाज के बाद पहली बार संसद भवन आईं तो सुषमा स्वराज लोकसभा में उनकी सीट के पास जाकर ही बैठ गईं।

भैरोसिंह शेखावत के भी सभी दलों के नेताओं से मधुर सम्बंध रहे। शेखावत विपक्षी नेताओं को भी अधिकारपूर्वक कोई भी काम बता देते थे। जार्ज फर्नाडीस,देवीलाल दूसरे दलों के नेताओं को चुनाव में साधन उपलब्ध कराते रहे। शरद पवार मुंबई में उमर अब्दुल्ला के स्थानीय अभिभावक हुआ करते थे। गोवा में जब मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो उन्होंने अपने दफ्तर में पहले से लगी इंदिरा गांधी की फोटो को यह कहकर नहीं हटाया था कि वह भी महान नेता थीं। पर्रिकर कहा करते थे कि मुझे अगर कोई दूसरा नेता महान लगता है तो मैं उसकी फोटो लगा लूंगा लेकिन इसके लिए इंदिरा गांधी की फोटो हटाने की क्या जरूरत है। इसका भी स्मरण रखना चाहिए।

जब अटल बिहारी वाजपेई ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी मित्र राजकुमारी कौल को उनके परिवार के साथ प्रधानमंत्री निवास में रखा तो विपक्ष के किसी नेता ने इस पर सवाल नहीं उठाया। यहां तक कि राजकुमारी कौल सरकारी यात्राओं में भी प्रधानमंत्री के साथ जाती थीं लेकिन तब किसी ने भूल से भी यह नहीं पूछा कि ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट का क्या होगा ! वाजपेई के निधन के बाद मोदी सरकार ने राजकुमारी कौल की बेटी नमिता (जिसे वाजपई की दत्तक पुत्री कहा जाता था) और रंजन भट्टाचार्य को सरकारी आवास देने की पेशकश की थी। हालांकि उन्होंने सरकारी आवास नहीं लिया और अपने निजी आवास में रहने चले गए।

इन सब बातों को कहने का आशय यह है कि लंबा दौर रहा है जब पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बीच एक दूसरे का लिहाज हुआ करता था। इसका फायदा देश को यह होता था कि मुश्किल घड़ी में सरकार और विपक्ष मिलकर निर्णय लिया करते थे। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर अपना अधिकार जताने वाला प्रस्ताव 22 फरवरी 1994 को संसद ने सर्वसम्मति से पारित किया था। तब नरसिंह राव की सरकार थी और भाजपा नेता वाजपेई और आडवाणी ने इसका समर्थन किया था। अटल बिहारी वाजपेई की सरकार के समय में 24 दिसंबर 1999 को नेपाल से दिल्ली आ रहे एयर इंडिया के विमान को आतंकवादियों ने अगवा कर लिया था। इस विमान में 175 से अधिक व्यक्ति बंधक थे आतंकवादी इस विमान को कंधार (अफगानिस्तान) ले गए थे। यात्रियों के परिजनों ने प्रधानमंत्री वाजपेई के निवास के बाहर धरना शुरू कर दिया था। ऐसे मौके पर वाजपेई ने विपक्ष के सभी नेताओं से कई बार परामर्श किया। आतंकवादियों ने भारत में बंद अपने साथियों को रिहा करने की मांग की। वाजपेई ने सभी विपक्षी दलों को विश्वास में लेकर विमान यात्रियों को छुड़ाने के लिए तीन आतंकवादियों को रिहा करने का फैसला किया। विदेशी मीडिया में इस तरह की बातें सामने आई थीं कि बड़ी धनराशि भी आतंकवादियों को दी गई। देश हित की वजह से विपक्ष ने इस राशि को लेकर वाजपेयी सरकार को कभी परेशान नहीं किया।

पुराने दौर में विपक्ष और सरकार के बीच संवाद में संसदीय कार्य मंत्री पुल का काम करता था। यही वजह है कि तजुर्बे वाले नेताओं को ही संसदीय कार्य मंत्री बनाया जाता था। भीष्म नारायण सिंह, बूटा सिंह, एचकेएल भगत, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, गुलामनबी आजाद ने संसदीय कार्य मंत्री की भूमिका में विपक्ष के साथ बहुत अच्छे रिश्ते बनाए। सांसदों का वेतन-भत्ते बढ़ाने में विपक्ष की भी दिलचस्पी रहती है। भीष्म नारायण सिंह ने इंदिरा गांधी से वेतन-भत्ते बढ़वाकर संसद चलाने में विपक्ष का सहयोग लिया था। प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, गुलामनबी आजाद ने पसंद का सरकारी आवास और चुनाव हार जाने के बाद भी सरकारी आवास में बने रहने की सुविधा देकर असंख्य नेताओं की मदद की। दिल्ली का वीपी हाउस तो चुनाव हार जाने वाले नेताओं का ही ठिकाना रहा है।

गोविंदाचार्य सरीखे तमाम ऐसे नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भी वीपी हाउस का इस्तेमाल किया है जो कभी सांसद नहीं रहे। बड़ी संख्या में नेता किसी सांसद के अतिथि बनकर सरकारी आवास में सालों रहे हैं। अर्जुन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, दिग्विजय सिंह समेत कई नेताओं ने इस सुविधा का लाभ उठाया। नेताओं की सुविधा के लिए सरकारी आवास का पूल लोकसभा से राज्यसभा या राज्यसभा से लोकसभा भी किया गया है। भाजपा नेता विजयकुमार मल्होत्रा को विशंभर दास रोड के बंगले में रखने के लिए सारे नियमों को शिथिल किया गया। जिस मकान में वह सांसद के तौर पर रहते थे 2009 में उन्हें दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर मिल गया। यह सुविधा उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने प्रदान की। मलहोत्रा ने 2013 और 2015 का विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़ा लेकिन वह बंगले में बने रहे। भुवनेश्वर कलिता राज्यसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए लेकिन वह सांसद रहे बिना सरकारी आवास में बने रहे। जब भाजपा ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बना दिया तो वह बंगला औपचारिक रूप से उन्हें फिर आवंटित हो गया। ऐसे उदाहरणों की भरमार है।

इस सरकार में विपक्ष से संवाद इसलिए नहीं है कि क्योंकि ऐसी कोई खिड़की खोल कर नहीं रखी गई है। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी के तालुकात विपक्षी नेताओं से बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं। प्रहलाद जोशी संभवतः पहले संसदीय कार्य मंत्री हैं जो संसद के भीतर विपक्षी नेताओं की जमकर आलोचना करते हैं। पहले अरुण जेटली विपक्ष के साथ तालमेल बिठाने का काम कर लिया करते थे। उनके निधन के बाद इस जिम्मेदारी को निभाने की छोटी कोशिश राजनाथ सिंह ने की लेकिन शायद बाद में उन्हें रोक दिया गया। सरकार की दिलचस्पी विपक्ष से तालमेल बनाने में नहीं है।

विपक्ष ने भी इधर प्रधानमंत्री पर निजी हमले करके अमर्यादित आचरण में कसर नहीं छोड़ी। प्रधानमंत्री की पत्नी को लेकर कांग्रेस नेताओं ने तरह-तरह की टिप्पणियां कीं जो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराई जा सकती। प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर भी आप के नेता अरविंद केजरीवाल की टिप्पणियां भी सारी सीमाएं लांघने वाली थीं। नीतियों और भ्रष्टाचार को लेकर आरोप जायज हैं। अगर विपक्ष उस मामले में सरकार की अच्छे से खबर नहीं लेता है तो वह अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभा रहा है। सरकार को घेरने के लिए मुद्दों की कमी नहीं है। महंगाई और बेरोजगारी दोनों चरम पर हैं। सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वादे को पूरा नहीं किया है। एमएसपी के मुद्दे पर किसान सरकार से खुश नहीं हैं। कृषि उपकरणों पर जीएसटी लगने से उनकी नाराजगी ज्यादा बढ़ी हुई है। रजिस्ट्रेशन के बावजूद श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं मिला है। एक तरफ बड़ी संख्या में खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं दूसरी तरफ़ व्यवसाय नहीं चलने से अधिक संख्या में कारोबारियों ने आत्महत्या की है। अडाणी मामला उठाने का भी विपक्ष को अधिकार है। संयुक्त संसदीय समिति से जांच नहीं कराने से संदेह पैदा हुए हैं। जांच एजेंसियों का राजनीतिकरण भी बड़ा मुद्दा है।

यह कोई पहली बार नहीं है जब विपक्ष इस तरह के मुद्दे उठा रहा है। हमेशा से विपक्ष ऐसे ही मुद्दों पर सरकार को घेरता रहा है। लोकतांत्रिक प्रणाली में विपक्ष का काम ही यह है कि सरकार को आईना दिखाए और जन सामान्य के पक्ष में दृढ़ता से खड़ा रहे। लेकिन मुद्दे उठाने के लिए कमर के नीचे प्रहार करने की कोई जरूरत नहीं है। हमेशा शब्दों से ज्यादा मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं।

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*अजय तिवारी सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार हैं और किसान, मजदूर, महिला और बच्चों के मुद्दों पर जागरूकता के लिए लिखते हैं।

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