देश भर में वर्तमान में चल रहे छात्र आंदोलनों, नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनों या मोदी सरकार के कार्यकाल में उठने वाले अन्य संभावित प्रतिरोध के स्वरों से क्या ऐसी कोई ऊर्जा पैदा होगी जो समाज में पिछले कुछ वर्ष में व्याप्त हो गए सांप्रदायिकता के ज़हर को प्रभावी ढंग से धो सके?
आज की बात
मोदी सरकार के प्रति छात्रों का गुस्सा जे.एन.यू. में हो या देश भर के अन्य विश्वविद्यालयों में – एक उम्मीद तो जगाता है। साथ-साथ देश भर में मुसलमानों के साथ अन्य इंसाफ-पसंद लोगों ने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ स्वतः-स्फूर्त आंदोलन चला रखा है। प्रतिरोध के ये स्वर स्वाभाविक तौर पर ये उम्मीद जगाते हैं कि गांधीजी के नेतृत्व में चले हमारे अनूठे स्वतन्त्रता संग्राम से उपजे मूल्य जिनके आधार पर हमारे संविधान ने हमें समानता और बोलने की आज़ादी जैसे मौलिक अधिकार दिये, उन्हें ये समाज आसानी से हाथ से नहीं जाने देगा। सबसे अच्छी और संतोष की बात ये है कि ऐसे सभी प्रतिरोध अहिंसात्मक रहे हैं और जनता की तरफ से आम तौर पर कोई हिंसा नहीं हुई है। जो भी हिंसा हुई है, वह मुख्यत: सत्ता-पक्ष से हुई है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी संघर्ष की सफलता के लिए उसका अहिंसात्मक होना अनिवार्य है क्योंकि जनता की भागीदारी तभी होती है जब संघर्ष अहिंसात्मक हो।
लेकिन ये स्तंभकार कुछ निराशावादी है – सच कहें तो पिछले काफी समय से कुछ ना लिखने का एक बड़ा कारण ये भी रहा कि जो भी लिखा जाएगा, उसमें निराशा ही झलकेगी तो फिर नकारात्मकता को बढ़ाया क्यों जाये! अभी मानसिक स्थिति बहुत कुछ बदल गई हो, ऐसा बिलकुल नहीं है लेकिन फिर जब सोचा कि चुप रहना भी तो ‘ऑप्शन’ नहीं है तो फिर लगा कि अपनी चिंताएँ शेयर करने में हर्ज़ नहीं है।
इस स्तंभकार को छात्रों के आंदोलन से या नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ चल रहे प्रतिरोध से ज़्यादा उम्मीद क्यों नहीं जग रही? सच कहें तो थोड़ी उम्मीद जग रही है लेकिन वो सिर्फ तात्कालिक होती है और एक फ्लैश लाइट की तरह चमक कर गायब हो जाती है। सिर्फ इसलिए नहीं कि मोदी सरकार के दूसरी पारी के तो अभी साढ़े चार बरस बचे हैं और ऐसे में सरकार इंतज़ार कर रही है कि ये ‘हल्ला-गुल्ला’ धीरे-धीरे अपनी मौत मर जाएगा और फिर सब कुछ ‘नॉर्मल’ हो जाएगा। ज़्यादा संभावना यही है कि यही परिदृश्य सही साबित होगा लेकिन हमारी असल चिंता इससे बड़ी है। उसी चिंता को ज़ाहिर करने के लिए आज बहुत दिन बाद यह स्तम्भ लिखने का मन बना।
प्रश्न ये है कि देश भर में वर्तमान में चल रहे छात्र आंदोलनों, नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनों या मोदी सरकार के कार्यकाल में उठने वाले अन्य संभावित प्रतिरोध के स्वरों से क्या ऐसी कोई ऊर्जा पैदा होगी जो समाज में पिछले कुछ वर्ष में व्याप्त हो गए सांप्रदायिकता के ज़हर को प्रभावी ढंग से धो सके?
इस स्तंभकार को अपने निराशावादी होने में कोई संदेह नहीं है लेकिन अगर आप एक पाठक के तौर पर आशावादी भी हैं तो बताएं कि क्या आप इस समय भारतीय समाज (अगर मैं और स्पष्टता से कहूँ तो मोटे तौर पर गैर-दक्षिण भारतीय समाज) में फैले सांप्रदायिकता के ज़हर से चिंतित नहीं है? अगर आप चिंतित नहीं हैं तो फिर आप व्हाट्सएप्प पर लगातार फैलाये जा रहे ज़हर से भी अपरिचित हैं। यदि हम समाज के तौर पर उस ज़हर को अमृत समझ कर स्वीकार कर रहे हैं, या चलिये अमृत नहीं भी समझ रहे लेकिन समाज के तौर पर उसके प्रति पूरी तरह उदासीन हैं तो फिर शासक-वर्ग की एक समुदाय के प्रति भेदभाव की नीति का यह समाज सामूहिक तौर पर कैसे विरोध करेगा?
कैसे भर गया हमारे समाज में सांप्रदायिकता का इतना ज़हर? यूं अगर थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल से ही सत्ता-प्रतिष्ठान की ओर से हिन्दू-मुस्लिम टकराव को बढ़ावा दिया जाने लगा था। स्वाभाविक था कि फिर दोनों धर्मों के कुछ अनुयाइयों के मन में परस्पर अविश्वास और असुरक्षा की भावना आती और महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले हमारे महान स्वतन्त्रता संग्राम के विशिष्ट चरित्र के बावजूद परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि देश का धर्म के आधार पर विभाजन हो गया।
1925 में हिन्दू समाज को संगठित करने के नाम पर बने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने कैसे इतनी ताकत बना ली कि उसने इन 95 वर्षों में भारतीय समाज के उस बहुलतावादी मूल चरित्र को कम से कम ऊपरी तौर पर बदल ही डाला है जो पिछले लगभग दो-ढाई हज़ार साल या शायद और पहले से बना था। आप यह याद मत दिलाइएगा कि मुसलिम धर्म से ज़्यादा संपर्क तो पिछले करीब हज़ार बरस से ही है, फिर हम बहुलतावादी चरित्र को ढाई हज़ार साल से क्यों जोड़ रहे हैं – हमारे इतना कहने से आपको याद आ गया होगा कि हम दक्षिण एशिया के उस समाज की बात कर रहे हैं जिसमें बौद्ध धर्म के प्रभाव वाली कुछ शताब्दियों के साथ-साथ, कई प्रकार के मत-मतांतर साथ रहना सीख रहे थे जिनके धार्मिक रीति-रिवाज़ चाहे भिन्न थे लेकिन वो धीरे-धीरे साथ रहना सीख रहे थे। शैव, वैष्णव, शाक्त आदि आपस में युद्धरत भी रहे लेकिन इतिहास के कई हिस्सों में विभिन्न संतों (और बाद की शताब्दियों में संतों के साथ सूफी भी जुड़ गए) के प्रभाव से परस्पर सहिष्णुता बढ़ रही थी।
क्या यह इस देश का सौभाग्य नहीं कि यहाँ महात्मा बुद्ध, कबीर, गुरु नानक और रविदास जैसे जाने कितने मानवतावादी संतों ने जन्म लिया जिन्होंने पश्चिम में आधुनिक युग में आई समानता और आपसी भाईचारे जैसी अवधारणाओं को सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही हमें दे दिया था। आधुनिक काल में भी स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे दार्शनिक विद्वानों ने हिन्दू समाज में व्याप्त हो गई जाति-प्रथा को नकारते हुए ‘वसुधेवकुटुंबकम’ जैसे सिद्धांतों को ‘पब्लिक डिसकोर्स’ में लाकर पुनर्जीवन दे दिया।
फिर उत्तर आधुनिक काल में महात्मा गांधी और डॉ बी. आर. अंबेडकर जैसे नेताओं ने समानता और भाई-चारे को आज़ादी की लड़ाई में ओझल नहीं होने दिया। स्वतन्त्रता के बाद भी देश की बागडोर जवाहर लाल नेहरू जैसे उदारवादी नेता के हाथ में रही जिन्हें सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और स्वतन्त्रता आंदोलन के उदात्त मूल्यों से जुड़े अन्य बहुत से नेताओं का साथ मिला। विपक्ष में भी आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे उदारचेता और विद्वान लोग थे। एक ही देश में इतने सारे महान नेताओं का एक ही समय की राजनीति में एक साथ होना एक तरह का आश्चर्य ही था।
लेकिन फिर साथ ही ये भी हैरानी की बात है कि इस तरह के आभामंडल वाले इतने सारे नेताओं के बावजूद सांप्रदायिकता का बीज पल्लवित-पुष्पित होता रहा और सत्तर सालों में यह किसी ज़िद्दी बेल की तरह हमारे समाज में चहुंओर व्याप्त हो गया है। कोई संदेह नहीं कि इसमें आरएसएस के लिए काम करने वाले उन ‘प्रचारकों’ की महती भूमिका है जो अपना पूरा जीवन संघ के लिए समर्पित कर देते हैं और इनमें से अधिकांश अविवाहित रहते हैं। हालांकि यहाँ ये प्रश्न भी उठाया जाना चाहिए कि आखिर इस विचार में ऐसा आकर्षण क्यों और कैसे आता है कि हज़ारों लोग अपना पूरा जीवन इसमें लगा देते हैं? कुछ वर्ष पहले तक तो प्रचारकों को ऐसा भी नहीं लगता होगा कि वह अपने जीवन काल में सत्ता से निकटता कर प्राप्त पाएंगे लेकिन फिर भी हिन्दू समाज की श्रेष्ठता स्थापित करने के विचार ने उन्हें इस तरह की कुर्बानी देने के लिए तैयार किया।
देश में हिन्दू श्रेष्ठता स्थापित करने के विचार को बढ़ाने में आरएसएस को एक बहुत बड़ी मदद पिछले कई दशकों से विश्व के विभिन्न हिस्सों में बढ़ रहे इस्लामी कट्टरपंथियों से खास तौर पर सऊदी अरब के वहाबी कट्टरपंथियों से मिली। यह स्थापित सत्य है कि एक किस्म की धर्मांधता दूसरे धर्म में धर्मांध लोगों को आगे बढ़ाने में मदद करती है।
कुछ वर्ष पहले तक भारतीय इस बात का गर्व कर सकते थे कि विश्व के कई हिस्सों में इस्लामिक धर्मांधता बढ़ने के बावजूद हिंदुस्तानी मुसलमान उससे अछूता है। अब यह बात विश्वास से कहनी मुश्किल है क्योंकि 1990 के दशक के शुरू से ही राम मंदिर – बाबरी मस्जिद विवाद को जब हिंदुवादी संगठनों ने हवा दी तब से मुस्लिम युवकों में भी अपने सुरक्षित भविष्य को लेकर बेचैनी नज़र आने लगी। इस विषय पर अमेरिका के प्रख्यात संस्थानों और विश्वविद्यालयों से जुड़े प्रोफेसर मोहम्मद अयूब ने हिन्दू अखबार के अपने इस लेख में विस्तार से प्रकाश डाला है।
इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि पाकिस्तान और अन्य मुस्लिम-बहुल देशों में अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार ने भी यहाँ के कट्टरवादियों को लगातार मुस्लिम-विरोधी ‘नैरेटिव’ बनाने में मदद की। कुल मिलाकर यह कि 1975 में आपातकाल की घोषणा के साथ ही स्वतन्त्रता के बाद उदारवादी संस्थानों और मूल्यों का जो क्षरण शुरू हुआ था, आपातकाल हटने पर उस पर कुछ ब्रेक तो लगा किन्तु वह पूरी तरह रुका नहीं। इसके साथ-साथ सांप्रदायिकता का पोषण और तेज़ी से होने लगा और उसकी महता कितनी बढ़ गई, इसका अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि स्वयं इन्दिरा गांधी ने अपनी दूसरी पारी में कई मौकों पर ‘हिन्दू – कार्ड’ खेला।
अगर हम संक्षेप में भी भारत में हिन्दू सांप्रदायिकता बढ्ने के कारणों पर विचार कर रहे हैं तो एक महत्वपूर्ण कारक है हिंदुओं में ‘विक्टिमहुड’ की भावना भरने के मौके पैदा होना। ऐसा क्यों हुआ कि हिन्दू सांप्रदायिक तत्वों को ये अवसर मिला? इसका कोई आसान या सर्वमान्य जवाब तो खैर हो ही नहीं सकता लेकिन एक विचार ये है कि देश के बुद्धिजीवियों द्वारा मुस्लिम सांप्रदायिकता पर चुप्पी साध जाना इसका बड़ा कारण हो सकता है। इस स्तंभकार को स्वयं अपने उदाहरण से ये याद है कि ऐसा कोई मुद्दा उठने पर हमारे गांधीवादी-समाजवादी-लोहियावादी मार्गदर्शक ये लाइन लेते थे कि मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं और अल्पसंख्यक स्वभावतः थोड़े ‘एग्ग्रेस्सिव’ (आक्रामक) होते हैं और इसलिए उनके साथ उदारता बरतना आवश्यक होता है।
सिद्धांत: इस तर्क मेँ कोई गलती नहीं है बल्कि ये आदर्श स्थिति है लेकिन व्यवहारत: इसमें कोई गड़बड़ हो गई लगती है। उन दशकों में एक गड़बड़ तो शायद ये भी हुई कि जहां मुस्लिम सांप्रदायिकता को अक्सर नज़र-अंदाज़ किया गया, वहीं इस बात को खूब फैलाया गया कि हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं पर निस्संकोच प्रहार किए जाते हैं जिसमें बोलने की स्वतन्त्रता के मौलिक आधार के तहत आदर्शत: कोई गलती नहीं है। स्वाभाविक था कि इससे अति-हिंदुवादी समूहों को यह अवसर मिला कि वो बहुसंख्यक समाज एक बड़े वर्ग में ‘विक्टिमहुड’ (हम पर हमले हो रहे हैं और किसी को परवाह नहीं है) की भावना को मजबूत करने में सफल रहे। फ़िल्मकार और लेखक जावेद अख्तर चार वर्ष पूर्व पीटीआई से एक बातचीत में कहा कि वह 1975 में एक मंदिर में कोई कॉमेडी सीन दिखा सकते थे किन्तु मस्जिद में नहीं और अब वह मंदिर में भी नहीं दिखा सकते। बताने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दू सांप्रदायिक तत्व इस बात को कैसे पेश करेंगे।
एक और बात जो इस संदर्भ में संक्षेप में ही सही कहने को मन हो रहा है कि हिन्दू सांप्रदायिक तत्वों को इसलिए भी बल मिला कि बहुलता और भाईचारे में ज़्यादा भरोसा रखने वाले हिंदुओं ने प्रगतिशीलता के नाम पर धर्म का मैदान सांप्रदायिक लोगों के लिए खाली छोड़ दिया। वामपंथियों और वामोन्मुखी ‘प्रगतिशील’ कांग्रेसियों की भी इसमें खासी भूमिका रही। इसमें कोई बुराई नहीं थी कि इन लोगों ने धर्म को राजनीति से अलग रखा लेकिन गांधी जी की पार्टी का उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी इनमें से कोई नेता ये अनुमान नहीं लगा पाया कि उन्हें राजनीति के लिए धर्म का सकारात्मक इस्तेमाल कैसे करना है।
अगर हम अपनी मूल चिंता पर वापिस आयें तो फिर एक बार पूछना होगा कि देश के 20 से 25 करोड़ मुसलमानों के खिलाफ बहुसंख्यक समाज में नफरत भर कर आखिर आरएसएस क्या पाना चाहता है? अगर मैं एक प्रैक्टिसिंग हिन्दू के तौर पर बहुत स्वार्थी भी हो जाऊँ तो मुझे जानने की कोशिश करनी चाहिए कि हिंदुओं की श्रेष्ठता और उनका इस देश पर पहला अधिकार अगर साबित हो जाने से हिन्दू समाज का क्या भला होगा? क्या उससे गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, भुखमरी और कुपोषण समाप्त हो जाएगा? या फिर उससे हिंदुओं के बीच से जाति-प्रथा समाप्त हो जाएगी? और या फिर महिलाओं की सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन आ जाएगा? क्या अंतर्राष्ट्रीय पंचायत में हमारी इज़्ज़त बढ़ जाएगी?
हम सब जानते हैं कि उपरोक्त सभी सवालों का उत्तर ना में होगा और कोई कारण नहीं कि धुर दक्षिणपंथी भी ये ना सोच सकें कि देश की इतनी बड़ी जनसंख्या को आप दोयम दर्जे का महसूस तो करवा लेने में सफल हो जाएंगे लेकिन इससे वो सब कहीं गायब नहीं हो जाएंगे बल्कि वो सब इसी समाज में ‘एडवरसरी’ या असंतुष्ट विरोधी बनकर रहने पर मजबूर होंगे। किसी मोटी बुद्धि वाले को भी ये बात समझ आ जानी चाहिए कि कोई भी देश या समाज अपने इतने बड़े हिस्से को विरोधी बना कर रखने से हमेशा द्वंद, विवाद और नकारात्मकता से घिरा रहेगा और ऊपर उठाए गए मुद्दों (गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, कुपोषण और सामाजिक बुराइयाँ) को ऐसा समाज कभी हल ना कर पाएगा।
लेकिन असल बात ये है कि इन सवालों को हल करने में उन लोगों की कोई रुचि ही नहीं है। ऐसे लोग अपनी एक काल्पनिक सोच के ग़ुलाम हैं कि हिन्दू एक हज़ार साल मुसलमानों के ग़ुलाम रहे हैं और देश विभाजन के समय जब हिन्दू श्रेष्ठता स्थापित करने का समय आया तो महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू जैसे मुस्लिम-परस्तों ने उस मौके को गंवा दिया। हीन भावना से ग्रस्त ऐसे लोगों को लगता है कि अब उनके पास यह एक और अवसर आ गया है जब निर्णायक रूप से देश को हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्थापित किया जा सकता है। इसीलिए 2014 के चुनावों से ही भाजपा ने खुले तौर पर ये रणनीति अपना ली है कि उन्हें मुस्लिम वोटों की कोई परवाह नहीं है और इसीलिए वह सांप्रदायिक मुद्दों पर हिन्दू वोटों को एकजुट करके उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में पाने का प्रयास करते हैं।
इस स्तंभकार को आरएसएस की देशभक्ति में कोई संदेह नहीं किन्तु इस बात पर आश्चर्य है कि क्या उन्हें वास्तव ये लगता है कि हिन्दू श्रेष्ठता स्थापित करने के इस महायज्ञ के पूरा होने के बाद सचमुच इस राष्ट्र का कल्याण होगा? क्या उन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आती कि इतने बड़ी आबादी को अगर दोयम दर्जे का बनाने के प्रयास सफल हो गए तो यह देश के लिए किसी भी हालत में सुखद स्थिति नहीं होगी?
और फिर उन लोगों का कहना गलत नहीं लगता जो ये मानते हैं कि अगर हम हिंदुस्तानियों को भी लड़ते रहने की आदत पड़ गई तो हम भी पाकिस्तानियों जैसे बन जाएंगे जो पहले हिंदुओं का डर दिखाकर अलग देश बनाकर बैठ गए और जब इस नए देश में हिंदुओं का डर नहीं रहा तो उन्होँने अपने एक के बाद एक नए दुश्मन बनाने शुरू कर दिये। कभी वो अहमदिया मुसलमानों को मारने दौड़ते हैं तो कभी शिया मुसलमानों को निशाना बनाते हैं। बीच-बीच में वे उन श्रद्धालुओं को बमों से उड़ाते रहते हैं जो ऐसी सूफी दरगाहों पर जाते हैं जो सैंकड़ों साल से भारतीय उपमहाद्वीप में हर तरह के लोगों की श्रद्धा का केंद्र रही हैं। क्या भारत का समाज मुखर होकर कभी कहेगा कि हमें पाकिस्तान जैसा नहीं बनना?
लेकिन दिक्कत ये है कि देश के राजनीतिक दलों की काहिली और सिद्धान्तहीन राजनीति के चलते हिंदुत्ववादी तत्व अपने आपको सबसे बड़े राष्ट्रवादी के रूप में स्थापित कर चुके हैं। उनके द्वारा चलाये जा रहे झूठ के ‘नैरेटिव्ज़’ का मुक़ाबला करने के लिए फिलहाल तो समाज में कोई इच्छाशक्ति ही नज़र नहीं आ रही। हिन्दू समाज की तरफ से भी ऐसी कोई आवाज़ उठती नहीं लग रही जो प्रभावी ढंग से यह कहे कि हमारा हिन्दू धर्म नफरत नहीं सिखाता! हिन्दू समाज के धर्माचार्यों में भी कोई ऐसा नहीं दिख रहा जो ‘वसुधेवकुटुंबकम’ जैसे सिद्धान्त का एक बार फिर प्रतिपादन कर सके और स्वामी विवेकानन्द के तरह ऊंचे स्वर में ये कहे कि “मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं”।
काश कि नफरत के विरुद्ध विरोध के स्वर हिन्दू समाज से ही उठें और वहीं से ऐसी आवाज़ें आयें जो ये कहें कि हमें केवल स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी वाला प्रेम और भाईचारे वाला हिन्दू धर्म ही स्वीकार है और हम नफरत के किसी भी ‘नैरेटिव’ को हिन्दू धर्म के विरुद्ध मानकर अस्वीकार करते हैं।
काश कि हमारा देश गुरु नानक, कबीर, रविदास की शिक्षाओं वाला भारत बने और यहाँ महात्मा गांधी की अहिंसा की ही जय हो और उनके ईश्वर-अल्लाह की जय हो। काश कि ऐसा ही हो!
विद्या भूषण अरोरा
… [Trackback]
[…] Information on that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Info on that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Information to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Information to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Find More to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Info to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Find More here to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Read More Info here on that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Find More Information here to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Find More to that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Find More on that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Here you can find 69823 additional Information on that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]
… [Trackback]
[…] Find More on on that Topic: raagdelhi.com/no-more-hatred/ […]