नास्ति की खुन्नस

विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों से परिचित होने के लिए पिछले कुछ सप्ताह में डॉ मधु कपूर के चार लेख आप पहले पढ़ चुके हैं। आज के अपने लेख में डॉ मधु कपूर ने एक तरह से पिछली कड़ी को ही आगे बढ़ाया है वह प्रतिपादित करती हैं कि अस्ति और नास्ति का रिश्ता ही कुछ ऐसा है कि एक के बिना दूसरा अर्थहीन हो उठता है. नास्ति यानि अनंत संभावनाओं का स्रोत. बीज में निहित है पेड़ होने की सम्भावना, जो उसे ठेलता है और धीरे धीरे पेड़ बन जाता है. पेड़ बन जाने पर वह पुनः बीज देने लगता है और पुनः पेड़ बन जाने की यात्रा शुरू हो जाती है। भाव और अभाव की भी यह यात्रा निरंतर इसी तरह चलती रहती है. जिनके पास तथाकथित सब कुछ है, उन्हें भी रिक्तता या अभाव का  एहसास होता है, और जिनके पास ‘कुछ नहीं’ है उन्हें भी पूर्णता का अभाव महसूस होता है. अंकशास्त्र के शून्य का मूल्य कौन नहीं जानता! जैसा कि हम आपको प्रारंभ में ही स्मरण करा चुके हैं कि डॉ मधु कपूर का दार्शनिक सिद्धांतों पर यह पाँचवाँ लेख है। पहला था “मैं कहता आँखिन देखी” और दूसरा “कालः पचतीति वार्ता” – इन दोनों में उन्होंने अत्यंत रोचक ढंग से कुछ जटिल लगने वाले दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उसी कड़ी में उनके तीसरे लेख “रस गगन गुफा में”ने हमें रसास्वादन के विभिन्न पहलुओं के बारे परिचित कराया था। अपने चौथे लेख “अस्ति―अस्तित्व का झिंझोड़” में उन्होंने ‘अस्तित्व’ जैसे आधारभूत दार्शनिक विषय को हमारे लिए सरल बनाकर प्रस्तुत किया था। लीजिए, आज उसी कड़ी में ‘होने ‘ और ‘ना होने’ विरोधाभासी संबंध के बारे में मधु जी की सहज सुंदर शैली में समझिए।

नास्ति की खुन्नस

डॉ मधु कपूर*

अभाव की धारणा दार्शनिक महल में शताब्दियों से चिंतकों के लिए पहेली बनी हुई है. अभाव क्या है? किसी भी चीज़ की अनुपस्थिति. जब आप पूछते हैं: “वह तस्वीर कहां है जो यहां टंगी थी?” मतलब होता है ‘तस्वीर यहाँ नहीं है’ अर्थात मुझे उसका अभाव खल रहा है. सामान्यतया इन्हीं  प्रश्नों को  हम दर्शन की कक्षा में भी आलोचना करते हैं. अभाव की स्थिति ‘न होने’ का संकेत करती है. माँ ने कहा, ‘देखो, वहीं टंगी होगी’, मैंने कहा, ‘नहीं है, मैंने देख लिया, नहीं है वहां’. देखने का एकमात्र उपाय है चक्षुरिन्द्रिय, और आँख से उसी वस्तु को देख सकते जिसके साथ आँखों का संपर्क होता है, पर जो है ही नहीं उसे मैंने कैसे देख लिया? चक्षुरिन्द्रिय का संपर्क वस्तु से हुआ ही नहीं तो कैसे देखा? स्पष्ट है अभाव-ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ विषय और इन्द्रिय का संबंध ही नहीं होता है. प्रश्न है कि ‘दीवार पर तस्वीर का अभाव’ कहने पर हमारे सामने कौन सा पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होता है? सीधा उत्तर होता है खाली दीवार! अतएव मैंने कैसे देखा तस्वीर नहीं है? तस्वीर का अभाव हमारे वास्तविक प्रत्यक्ष ज्ञान को कि ‘मैंने देखा’ इसे चुनौती देता है.

कुछ लोगो का कहना है अभाव नकारात्मकता की बात करता जरूर है, किन्तु बिना भावात्मक ज्ञान के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता है. तस्वीर के अभाव का ज्ञान बिना तस्वीर के ज्ञान के नहीं हो सकता है. अतः तस्वीर आधेय है, जिसका अभाव किसी न किसी अधिकरण, जैसे दीवार, पर होता है. हम आये दिन सुनते है धन का अभाव, खाद्य का अभाव, पानी का अभाव, इनके गैर-अस्तित्व को हम स्वीकार करते है. लोकव्यवहार में हम मानते है कि ज्ञान का कोई न कोई विषय अवश्य होता है, तो ‘नास्तिप्रत्यय’ का भी विषय होना चाहिए. इस सन्दर्भ में अभावज्ञान की पहेली को सुलझाना जरूरी और महत्त्वपूर्ण है. पर उसके पहले यह समझ ले कि अभाव ज्ञान के विषय को प्रतियोगी कहते है, और जब तक प्रतियोगी का ज्ञान नहीं होता है, अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता. जैसे यदि हम कहे कि ‘कमरे में भूत नहीं है’, तो  इसका अर्थ हुआ हमने कभी कमरे में भूत देखा था जो अब नहीं है. भूत का अभाव यदि है तो उसकी सत्ता का अनुभव कभी न कभी तो होना ही चाहिए.

लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि अभाव अलीक पदार्थ जैसे आकाश-पुष्प, पक्षीराज घोड़ा शरलॉक होल्म्स, round square के समान नहीं है, जिनका अस्तित्व ही नहीं है. इन सबको  नकारने के पहले हमें इनकी सत्ता माननी पड़ेगी. नहीं तो शून्य में हाथ मलते रह जायेंगे. आर्थर कोनन डायल की कहानियों में शरलॉक होल्म्स का अस्तित्व है, पर हमारे चारो तरफ की वास्तव दुनिया में उसका अभाव है. सार्त्र, जो एक अस्तित्ववादी दार्शनिक, अभाव की उपस्थिति को अंजाम देते हुए कहते है, “काफी हॉउस में मैं पियरे से मिलने गया पर उसे वहां न देख कर  ‘उसके अभाव की उपस्थिति मैंने अनुभव की’ और मेरा  मन  झुंझला गया.”

अतएव ठोस वस्तुवादी इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि वस्तु का न होना (अभाव) उतना ही सत्य है जितना वस्तु का होना (भाव). एक मकान अपने निर्माण से पहले या उसके नष्ट होने के बाद जमीन पर अस्तित्वहीन हो जाता है, लेकिन यह अस्तित्वहीनता भी ज्ञान पैदा करने में समर्थ होती है― ज्ञान का आकार इस प्रकार होता है ‘मकान  नहीं है’, जो  ‘नास्ति’ के रूप में ज्ञान का विषय बनता है.

इतना तो स्पष्ट है कि अभाव एक ‘नकारात्मक उपस्थिति’ है. कुछ लोग इसे सकारात्मक श्रेणी से भिन्न एक स्वतंत्र पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं. अभाव का अस्तित्व है—सुनने में विरोधाभास लगता है. जैसे ‘तस्वीर है’ और  ‘तस्वीर नहीं है’ दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं. दोनों एक साथ नहीं रह सकते है. एक सत्य है, तो एक मिथ्या है.

अभाव के संदर्भा में हम एक और शब्द का प्रयोग करते है वह है ― ‘कुछ नहीं’, ‘कोई नहीं’ शब्द है, जिनका  अर्थ कुछ नहीं, कोई नहीं होता है. इसका तात्पर्य  किसी वस्तु के अभाव से ही होता है. दृष्टान्तस्वरूप एलिस (Alice in Wonderland में) कहती  हैं―“रास्ते  में ‘कोई नहीं’ हैं”

राजा ने थोडा क्षुब्ध होकर कहा. “मैं चाहता हूँ मेरी ऐसी आँखे होती जो ‘कोई नहीं’ को देख पाता वह भी इतनी दूर से.” राजा यहाँ एलिस की प्रशंसा करता है कि उसमे “कोई नहीं”, “कुछ-नहीं” को देखने की क्षमता है. अनुभव में ऐसे बहुत दृष्टान्त मिलेंगे जिनका लक्ष्य ‘कोई नहीं’, ‘कुछ-नहीं’ की व्याख्या करना है. जैसे छिद्र, शून्य स्थान, कमी, नुकसान, स्तब्धता, खालीपन, खालीस्थान इत्यादि. अभाव खालीपन का एहसास है. जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह भी खालीपन महसूस करता है जिसके पास वस्तुतः सब कुछ है वह भी खालीपन महसूस करता है. ख़ालीपन में बहुत सी चीज़ों को समाहित करने की ज़बरदस्त क्षमता होती है. गिलास ख़ाली है, इसलिये इसे भरा जा सकता है. व्यक्ति खालीपन महसूस करता है क्योंकि उसे किसी ऐसी चीज़ की चाहत है, जो उसे पूर्ण बनाती है. भाव की धारणा का जब निषेध किया जाता है, तो विपरीत अ-भाव की सृष्टि होती है. चमत्कार तो तब होता है जब  भाव और अ-भाव का मिलन हो जाता है और दोनों  संश्लेषित हो जाते है.

 The Last Mona Lisa पुस्तक के प्रारम्भ में लेखक Jonathan Santlofer लिखते हैं कि पेरिस के ल्युवर म्युजियम से मोनालिसा का चित्र गायब हो गया यह देखने के लिए लाखों की तादाद में दर्शक उपस्थित होते हैं उस स्थान को देखने के लिये जहाँ मोनालिसा का चित्र था. दर्शकों के अनुरोध पर ‘उस कलंकित दीवार’ को हफ्तों खाली रखा गया, क्योंकि  फोटोग्राफर आते थे ‘मोनालिसा के चित्र के अभाव की उपस्थिति’ को  कैमराबंदी कर ले जाते थे खाली  दीवार की फोटो.

साधारणतः अभाव को  “शून्य” का समार्थक भी कहा जाता है, जिसे हम रिक्त या खाली स्थान मानते हैं, जहाँ कोई वस्तु नहीं रहती. पर बौद्ध दार्शनिक इसे पारमार्थिक तत्व मानते  है। “शून्य” अर्थात जो सत् , असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण, इन निम्नलिखित चार कोटियों से इतर/ मुक्त कहा जाता है. जैसे ―

  • अस्ति (विद्यमान है).
  • नास्ति (विद्यमान नहीं है),
  • तदुभयम् (एक साथ ही अस्ति नास्ति दोनों) तथा
  • नोभयम् (अस्ति नास्ति दोनों कल्पनाओं का निषेध).

बौद्ध मानते है कि व्यावहारिक रूप में जो सत्य दिखाई पड़ता है, वह असत्य या मिथ्याभास होता है, वह सिर्फ व्यावहारिक सत्य होता है. सत्य पारमार्थिक अर्थ में दिखाई नही पड़ता है पर सत्य होता है. बुद्धि से यह सत्य पकड़ा नहीं जा सकता, केवल अनुभव से ही हम उस नि:शब्दता को पकड सकते हैं, जो अस्ति और नास्ति से परे है. अतः शून्य कोई निषेधात्मक वस्तु नहीं है, शून्य का विवेचन बहुआयामी है.

उदाहरण के लिए किसी क्षेत्र का मानचित्र उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन मानचित्र को वास्तव क्षेत्र कहना न केवल एक बेतुकापन है, बल्कि  एक विरोधाभास भी है. अतः कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अभाव हमेशा अपने भाव प्रतियोगी के द्वारा निर्धारित होता है. ‘दीवार पर तस्वीर टंगी नहीं है’ कहने का तात्पर्य है कि “ऐसी दीवार जो तस्वीर के अभाव से विशिष्ट है” अर्थात दीवार विशेष्य है, और उसका विशेषण है ‘तस्वीर का अभाव’. अंत में अज्ञेय की ‘मैं वहाँ हूँ’ के एक अंश से इस लेख का समापन करती हूँ, जो इस द्वंद्व की ओर इंगित करती लगती है :-

दूर-दूर-दूर…मै वहां हूँ

यह नहीं कि मैं भागता हूँ

मै सेतु हूँ ―जो मैं हूँ और जो होगा उसको मिलाता हूँ

मैं हूँ, मैं यहाँ हूँ, पर सेतु हूँ इसलिए

दूर-दूर-दूर…मैं वहां हूँ.

किंतु मैं वहाँ हूँ तो ऐसा नहीं है कि मैं यहाँ नहीं हूँ

मैं दूर हूँ, जो है और जो होगा उसके बीच सेतु हूँ

(कविता संग्रह ‘सन्नाटे का छंद’ से)

*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुई है। इस वेब पत्रिका में प्रकाशित उनके अन्य लेखों के लिंक आप इस लेख के प्रारम्भिक पैरा में देख सकते हैं।

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3 COMMENTS

  1. लेखिका को असंख्य धन्यवाद। यह अस्ति और नास्ति का द्वंद ही श्रृष्टि का सार है। अगर यह द्वंद न हो तो जीवन बिना किसी सक्रियता के यो ही एक दर्रे पर चलता रहेगा और अंतत: आत्मघाती हो जायेगा ।द्वंद में सक्रियता है, नई खोज, नए विचार आते हैं। आप सहमत नही हो सकते हैं, किंतु विरोध करने के लिए तो सोचेंगे। यह सोच ही हम जिंदा रहने का एहसास देती है।

  2. बहुत रोचक तरीके से दर्शन की गुत्थियां सुलझाई हैं। ‘नहीं होने’ का ‘होना’ समझ में आ गया।
    कितना अच्छा हो कि अपने इंजीनियरिंग और एमबीए वाले सफल बालक-बालिकाओं को डॉ मधु कपूर के फिलॉसफी और कुछ ऐसे ही मानविकी के रिफ्रेशर कोर्स कराए जाएं ताकि वे ज्यादा पूर्ण और थ्री डाईमेशियल हो सकें।

    • नमस्कार राजेन्द्र भाईजी. आपने ठीक कहा, human resource और management के courses में कुछ भारतीय दर्शन के प्रत्ययों का ज्ञान दिया जाता है, जैसे रामायण , महाभारत, हितोपदेश, पंचतंत्र, चाणक्य इत्यादि. लॉजिक के कुछ ideas को lateral thinking के नाम से module तैयार कराये जाते है. कुछ सफल होते है पर अक्सर सिर पर पानी गुजरने की तरह ही होता. आपकी सोच को सलाम करती हूँ. होना चाहिये. चिंता का विस्तार और दूसरों के मतों का सम्मान करना तो आता ही है.

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