द्विमुखी सत्य की संकल्पना

डॉ मधु कपूर*

आजकल पूरे विश्व में ‘उत्तर-सत्य काल’ या ‘Post-truth Era’ का बोलबाला है। ऐसे में उपलब्ध तथ्यों की पड़ताल करके सत्य की पहचान करना एक दुरूह कार्य हो गया है। यह और भी मुश्किल हो जाता है जब राजनीति और व्यवस्था में उच्च स्थानों पर विराजमान लोग भी सच और झूठ (सफेद और काले) के बीच वाले धुंधलाए हुए स्थानों या ‘ग्रे एरियाज़’ में विचरण कर रहे हैं। पिछले कुछ समय से इस वेब-पत्रिका में हम विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों पर डॉ मधु कपूर के लेख पढ़ रहे हैं जिनमें वह दर्शन या फिलोसॉफी की गूढ़ गुत्थियों को हमारे लिए सुलझाती हैं। इस बार वह ‘सत्य और तथ्य’ के बारे में क्या दार्शनिक परिप्रेक्ष्य है, यह हमें समझा रही हैं। आशा करते हैं कि सत्य की खोज में संलग्न हमारे पाठकों के लिए यह विषय उपयोगी होगा। स्मरण रहे दार्शनिक लेखों की शृंखला में यह उनका सातवाँ लेख है। उनके पूर्व के छः लेखों की सूची (लिंक सहित) हम इस लेख के नीचे दे रहे हैं। प्रस्तुत है, आज का लेख द्विमुखी सत्य की संकल्पना!

“….मै जो कुछ कहूँगा सच कहूँगा, सच के अलावा कुछ नहीं” – एक साक्षी जब कोर्ट में यह दावा करता है, और बाद में पता चलता है उसने जो कुछ कहा था वह झूठ था, झूठ के अलावा कुछ नहीं तो हम यह जानने के लिए उत्सुक  हो उठते है कि सत्य क्या है? दर्शन में विशुद्ध सत्य संभवतः तथ्य और तर्क की कसौटी पर कसी कसा जाता है  लेकिन फिर तत्काल प्रश्न उठता है कि ‘तर्क’ क्या है, ‘तथ्य’ क्या हैं? विषय के अनुरूप होने पर ज्ञान को यथार्थ कहा जाता है, और विपरीत होने पर अयथार्थ।   सीधी सी बात है ‘मेज़ पर चार पुस्तकें हैं’ कहने के बाद श्रोता यदि वहां जाकर देखें की चार पुस्तकें है, तो यह वाक्य सत्य माना जाता है।  

कभी कभी तथ्य‘ और ‘सत्य‘ दोनों का अर्थ समान समझ लिया जाता है।  बुद्ध को ‘तथागत’ इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि वे वस्तुओं को वैसा ही  देखते हैं जैसी कि वे है’।  तथ्य को जब सत्यापित किया जाता है, तब उसे सत्य कहा जाता है।  तथ्य होने के लिए वैध होना आवश्यक होता है।  जब एक वकील कहता है, “पहले आपको मामले के सभी तथ्य एकत्र करने होंगे, तभी मै जाँच आगे बढ़ाऊँगा”, इसका अर्थ है कि तथ्यों के आधार पर केस की सच्चाई परखी जाएगी।  इसी कारण जब अदालत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराती है, तो फैसला सुनाते समय न्यायाधीश कहता है, “प्रतिवादी को सबूतों के आधार पर दोषी करार किया जाता हैं” न कि प्रतिवादी दोषी है।   तथ्य यहाँ सबूत के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।  

कभी कभी तथ्य और सत्य बिल्कुल समानार्थी हो जाते है।  उदाहरण के लिए “कहानी का कितना भाग तथ्यात्मक (सत्य)  है और कितना काल्पनिक”― यह कथन सत्य और तथ्य को एक स्तर पर ला खड़ा कर देता  है। कभी कभी तथ्य का कार्य सूचनाएं बटोरना होता है, पर सत्य-असत्य का निर्णय उन तथ्यों की गुणवत्ता के आधार पर होता है।  दृष्टान्त स्वरूप कुछ वर्ष पहले यह तथ्य था कि “सौर मंडल में ग्रहों की संख्या नौ है” पर अब यह तथ्य सत्य नहीं रहा, क्योंकि प्लूटो अब ग्रह नहीं रहा।  ‘यह प्राणी घोड़ा है’, ऐसा कहने वालो के प्रति  मै दावा नहीं कर सकता कि ‘यह गाय है’, क्योंकि यह सार्वजनिक तौर पर निश्चित किया गया है कि इस प्राणी को घोड़ा कहा जायेगा।  दूसरी ओर ब्राह्मण और बकरे की कथा भी आप सबने सुनी ही होगी जो रास्ते में मिले ठगों के बार बार कहने पर कि उसके कंधे पर कुत्ता है, स्वयं के विवेक पर विश्वास खो बैठता है और वह बकरे को कुत्ता समझ, छोड़ कर भाग जाता है।  अतः विश्वास ज्ञान का पहला सोपान है, ज्ञान की पहली  शर्त है।  

तकनीकी अर्थ में, तथ्य ‘कहाँ’ या ‘कब’, और ‘कैसे’ का उल्लेख करता है, जबकि सत्य ‘क्यों’ प्रश्न का उत्तर देता है।  उदाहरण के लिए, जब यह कहा जाता हैं कि सूर्य हमेशा पूर्व से उगेगा और पश्चिम में डूबेगा, तो यह एक तथ्य हैं, लेकिन जब इस घटना का कारण खोजते है, तो पृथिवी की गति आदि की वैज्ञानिक व्याख्या देनी पड़ती है।  तथ्य का एक रोचक उदाहरण इस प्रकार दिया जाता है कि एक बार यदि किसी को दोपहर साढ़े बारह बजे कुछ दे दिया तो अब इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता है, भले ही हम उससे बाद में वह वस्तु वापस ले लें, लेकिन जानकारी का एक टुकड़ा ’साढ़े बारह बजे दिया गया’ बदला नहीं जा सकता।  इस तरह ‘तथ्य’ शब्द की दो विरोधी परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं।   पहली, कि तथ्य एक ऐसा कथन है जो निर्विवाद रूप से सत्य होना चाहिए।  दूसरी, कि तथ्य अप्रमाणित होने पर झूठ, संदिग्ध या विवादित भी हो सकता है।  

बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक लुडविग विट्गेन्स्टाइन (Ludwig Wittgenstein) कहते है कि ‘the world is the totality of facts, and not of things’ विश्व वस्तुओं का समूह न होकर तथ्यों का समूह है।  अर्थात मान लीजिये आपके कमरे में 20 वस्तुएं है टीवी, फ्रिज, खाट, आलमारी आदि।  प्रत्येक दिन आप इनका स्थान परिवर्तन करके नई तरह से कमरे को सजाते हैं और उससे इन वस्तुओं के बीच भी नए अंतरसंबंध बनते हैं। प्रतिदिन उन्हीं बीस वस्तुओं से आप कमरे को तथ्यात्मक रूप से बदलते रहते हैं।  इसी तरह दुनिया में जितनी भी तथाकथित वस्तुएं है, उनकी संरचनायें भी प्रतिक्षण बदलती रहती हैं।  इस तरह तथ्य का अर्थ है एक विशेष प्रकार की संगति जो तमाम वस्तुओं के अन्दर परस्पर देखी जाती है, जिसे एक सार्थक वचन के माध्यम से जो प्रतिबिंबित (पिक्चर) किया जाता है।  दृष्टान्त स्वरूप ‘काली बिल्ली चटाई पर बैठी है ‘ इस वाक्य में काली बिल्ली, चटाई  और उनका सम्बन्ध उपादान है।  इनकी स्थिति बदल कर यदि कहा जाए ‘चटाई पर बिल्ली है’ तो उपादान वही है पर तथ्य एक नहीं है।  दोनों वाक्यों का प्रतिनिधित्व एक जैसा नहीं होता है।  तथ्य सिर्फ इतना कहता है ‘अमुक घटना ऐसी है’ पर अपना कोई निर्णय नहीं देता है।   जबकि सत्य उस पर बाकायदा निर्णय देता है कि ‘अमुक तथ्य सत्य है’।   उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति किसी का पुत्र, किसी का पिता और भाई, शिक्षक हो सकता है, किन्तु उसका पुत्र यदि उसे सबका पिता ही मान कर अन्य रिश्तों का निषेध करने लगे तो वह बेवकूफ कहलायेगा।  जैन दार्शनिकों का ‘अनेकान्तता का सिद्धांत’ इस बात की पुष्टि करता है कि हमारे देखने का रवैया एकांगी होता है, जबकि होना चाहिए बहुमुखी।  

गौतम बुद्ध के अनुसार ज्ञान की सभी वस्तुएं संपूर्ण रूप से दो सत्यों में बंटी होती हैं– संवृत्ति-सत्य (व्यावहारिक सत्य) और पारमार्थिक-सत्य।  संवृति-सत्य वह है जो उत्पन्न होता है और नष्ट हो जाता है।  जैसे  “घड़े” का अस्तित्व कुम्भकार के चाक पर निर्मित होता है और फिर जब वह टूट जाता है तो उसका अस्तित्व भी नष्ट हो जाता है। घड़े की रचना जिस अणु-समान सूक्ष्म इकाई से उत्पन्न होती है, नष्ट होकर उसी मूल सत्ता में विलीन हो जाती हैं। तो यह सत्य समय-समय पर बदल सकता है। दूसरी ओर मूल सत्ता को पारमार्थिक सत कहते है, जो अपरिवर्तनीय, नित्य कही जाती है।  वह प्रत्यक्ष योग्य नहीं अनुमेय होती है।  

दो सत्यों का सिद्धांत इस दावे को प्रतिपादित करता है कि व्यावहारिक रूप से जो बाह्य जगत हम देखते हैं वह सिर्फ हमारे विचारों और कल्पना की रचना है, जो एक सपना, एक मृगतृष्णा, एक जादुई भ्रम से अधिक कुछ नहीं होता है।  पारमार्थिक  सत्य को  आचार्य नागार्जुन शून्य तक कह देते है, यद्यपि इस शून्यता के  ज्ञान को किसी तर्क के द्वारा न समझा जाता है न ही समझाया जा सकता है।  हम इसे एक उदाहरण से समझ सकते है –‘रथ’ एक शब्द है जो रथ एक विषय की ओर संकेत करता है।  लेकिन रथ का पहिया सिर्फ रथ नहीं कहा जाता है, उसका छत्र भी रथ नहीं कहा जाता है, घोड़े भी रथ नहीं कहे जाते है, उसमे बैठने का स्थान भी रथ नहीं होता है, तो फिर रथ कहाँ है? इनका समूह भी रथ नहीं कहा जा सकता है।  यह फेविकोल का जोड़ नहीं है।   रथ  एक शून्य है और वही उसकी वास्तविकता है।  यद्यपि सत्य सम्बन्धी यह व्याख्या बौद्ध दर्शन को आधार मान कर की  गयी है, पर कमोबेश सभी भारतीय दार्शनिक इस द्विमुखी सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए बाध्य है।  

विशुद्ध सत्य की आलोचना से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण सवाल जो अक्सर उठाया जाता है कि इसका सम्बन्ध मानवीय स्तर पर खोखला साबित होता है।  वैज्ञानिक गवेषणा की दृष्टि से देखे तो एटम बम का अविष्कार एक सत्य की ही खोज थी, पर नैतिकता की दृष्टि से उसके अविष्कार से मानवीय मूल्यों का अधःपतन ही हुआ।  विशुद्ध सत्य और मानवीय दुर्बलताएं हमारे सत्य की सीमा का निर्धारण कर देती है।  लोकव्यवहार में ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ मुहावरा कोई अच्छा सन्देश नहीं देता है, पर शास्त्र चिकने चुपड़े कलेवर में यही परोसता है कि हम द्विमुखी ही होते है।   मै इस पहलू को कमतर नहीं कह रही हूँ, अपनी नियति की सच्चाई  की बात कर रही हूँ।   

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इस वेब पत्रिका में प्रकाशित डॉ मधु कपूर के अन्य लेखों को आप इन लिंक्स पर जाकर देख सकते हैं :

  1. मैं कहता आंखिन देखी
  2. कालः पचतीति वार्ता
  3. रस गगन गुफा में
  4. अस्ति-अस्तित्व का झिंझोड़
  5. नास्ति की खुन्नस
  6. काल की चपेट  
*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। दर्शन पर उनके निबंधों का एक संग्रह Dice Doodle Droll Dance हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक मेला में रिलीज़ हुई है।

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2 COMMENTS

  1. सत्य शोधक का सत्य बोध.
    ‘रथ एक शून्य है और वहीं उसकी वास्तविकता है. ‘
    अद्भुत.

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