1. चल पड़े भ्रम
मनोज पाण्डे*
अपनी पुरानी घड़ी
इतराती थी
जब चलती थी
टक टक कर।
शांत हो जाती थी,
जब रुकती थी
थक थक कर।
तब हिलाते थे
थप-थपाते थे
चलती घड़ी से मिलाते थे।
धुंधलाए डायल को
पास से देखते
कान के पास लाते थे।
चल पड़ती थी
पड़ी-पड़ी
फिर दो घड़ी।
कुछ न लेती-देती थी
भ्रम देती थी चलने का
लेते-देते रहने का।
ठक-ठकाने के बाद,
एक दिन जानकार को
दिखाने के बाद।
पता लगा, वह रुकी है
फिर न चलने के लिए
सब थम सा गया।
अगली घड़ी
चल पड़े भ्रम
एक नयी घड़ी के साथ।
2.जो ये तुम हो, मैं ही तो हूँ
जो ये तुम हो
मैं ही तो हूँ
मेरा है यह संसार
मेरा बनाया हुआ।
जब मैंने तुम्हें चूमा
या फटकारा
तुम्हें कहाँ पता लगा
लेकिन मैंने महसूस किया
तुम्हारा प्यार, तुम्हारा दर्द
मैं ने, जिसमें तुम समाये हुए थे।
यह सपना ही तो है
जिसमें तुम भी हो
मैं भी
यह संसार भी।
जागूँगा जब
मिलोगे तुम
बिना चूमे, बिना फटकार के।
मैं महसूस करूँगा खुद को
तुम को
सपने को नहीं।
*मनोज पाण्डे पूर्व सिविल सेवा अधिकारी हैं। उनका ब्लॉग आप https://manoj-pandey.blogspot.com पर देख सकते हैं।