मनोज पांडे*
कैक्टस हँस रहे हैं – एक
वर्षों से बरबस बरसती गर्म रेत,
टीला बनाते-बिगाड़ते अंधड़ों
और सूखा उगलती रातों के बाद
आज यहां टपक रही हैं बूँदें
जलती ज़मीन पर.
गरज रहे हैं बौखलाए से बादल
एक पहर से,
और धूल जमने लगी है.
लो, सब थम गया घंटे भर में.
इस तलैया को छोड़
सब कुछ पुराना सा हो गया.
अब कैक्टस हँस रहे हैं.
उन्हें पता है –
जल्दी ही वह देखेंगे
टिड्डी को छिपकली के,
छिपकली को सांप के मुंह में.
जिनकी पत्तियां कांटे बन चुकी हों,
क्या फ़रक पड़ता है उन्हें
रेत से, मौत से,
गरमी से, बारिश से?
हम अभी नए थे,
सो बादल साथ ले आए थे,
बरसा चुके.
गरमी से रीत गए
बादलों के हल्केपन जैसे
हमारे हालात पर
कैक्टस हँस रहे हैं.
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कैक्टस हँस रहे हैं – दो
मरुस्थल में आज टपक रही हैं बूँदें
जलती रेत पर.
मरीचिका के सताए जानवर
तलैया से डर रहे हैं.
उन्हें डर है,
इस बार ठगे गए
तो लौट भी नहीं पाएंगे.
पूछ नहीं सकते:
दोस्ती की परम्परा नहीं है यहां,
चूँकि सहोदर की हड्डी
अपनी जिंदगी को
दो घड़ी बढ़ा सकती है.
भ्रूण से, अण्डों से
सीधे अधेड़ पैदा होते हैं.
डंक, विष-दंत और मोटी खाल न हो
तो यह जगह रेगिस्तान लगती है.
लो, इतनी देर में तलैया सूख गई
और रेत भरी हवा
उस पर टीला खड़ा कर गई.
काँटों के बीच
जाले में फँस रहा टिड्डा,
जिसकी ओर बढ़ रही है छिपकली.
घात लगाए, बिल से
आँख बाहर निकाल रहा है सांप.
काँटों के पीछे
बाज सांस रोके छिपा है.
देखने को बेताब
रेतीली, मटमैली
लुकाछिपी का अगला खेल,
कैक्टस हँस रहे हैं.
असाधारण स्थितियां, अद्भुत कल्पना का ताना-बाना, स्तब्ध कर देने वाली कैफियत की कविताएं। आपका तो genre ही अनूठा है।