पारुल बंसल*
दुपट्टा – 1
सूर्य की किरणों की डोर बांधकर
सुखाया है मैंने अपना वह दुपट्टा
जिसे ओढ़ भीगी थी
यौवन के पहले सावन में
जिसे पहन आई थी तुम्हारे जीवन में
इसी ने तो रखी थी लाज मेरे आंसुओं की
और उन्हें यूं बेसहारा ना होने दिया
जानती हूँ कि वो दुपट्टा नहीं सूखेगा कभी
मेरे अंतस में ताजमहल बना चुकी
यादों की तरह……
दुपट्टा – 2
अब तुम तान दुपट्टा सो सकती हो
अपने मनपसंद संगीत की धुन
कानों में पिरोते हुए
क्योंकि हो चुकीं सदियां
तुम्हें जागती आंखों से सपने देखते हुए
अग्नि परीक्षा देते हुए
विष का प्याला पीते हुए
अपने चीर की रक्षा करते हुए
प्रेम में समर्पण करते हुए
स्वयंभू संरक्षकों की दकियानूसी बातें सुनते हुए
और पराई रूढ़ियों की गठरी अपनी पीठ पर ढोते हुए
अपना सब कुछ दांव पर लगाकर भी
तुम्हारे हाथ अनंतकाल से रीते ही रहे
तुम्हारी भाग्य रेखाओं को
वो नोच-नोच कर मिटाते ही रहे
कह दो कि बस बहुत हो गया
अब बारी उनकी है
क्योंकि ये धरती अपनी धुरी पर घूमने के अलावा
और ये दुपट्टे सर ढंकने के अलावा
और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
सूर्य-पुत्री बनने के बाद
सूरज की छाती से लिपटकर
उसकी उष्णता से
मैं अपनी देह की
सदियों से सुप्त पड़ी ग्रंथियों को
झकझोर कर जगाना चाहती हूं
ताकि मैं भी महसूस कर सकूं
कालिदास के मेघदूत के
यक्ष की प्रियतमा का दर्द
पा सकूँ वो दिव्य दृष्टि
जो कचरे में फेंकी गई नवजात को
ढूंढ सके अंधेरी काली रातों में भी
या कम से कम मिल जातीं
एक जोड़ी आंखें गांधारी की ही
क्या पता कि सूरज की छाती से लगकर
मुझे मिल जाये वो चामत्कारिक ताकत
जिससे ढाल बन सकती मैं
हर उस युवती के लिए
जिसे नोंच कर और रौंद कर
‘निर्भया’ बनाने का
वीभत्स नाटक खेला जा रहा है!
हे सूर्यदेव!
प्रस्तुत हूँ मैं कर्ण की भाँति
अपना सर्वस्व दाँव पर लगाने को
क्या बनाओगे तुम मुझे अपनी पुत्री?
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*पारुल हर्ष बंसल मूलत: वृन्दावन से हैं और आजकल कासगंज में हैं। इनकी कवितायें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल्स पर प्रकाशित होती रही हैं। स्त्री-अस्मिता पर कविताएं लिखना इनको विशेष प्रिय है। इनकी कवितायें पहले भी इस वेबपत्रिका में पढ़ चुके हैं। इस पोर्टल पर प्रकाशित कविताओं में से कुछ आप यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं।
बैनर इमेज : प्रवीणा जोशी (http://kukoowords.blogspot.com/)