राजनीति पर विश्वास बनाए रखिएगा

आखिरी पन्ना*

आखिरी पन्ना चुनावों के बीच फंसा हुआ है। चुनाव-चर्चा हो कि ना हो, आपका स्तंभकार इस द्वंद में भी फंसा है। चुनाव चर्चा हो तो ये मुश्किल कि उत्तराखंड तो मतदान कर चुका है, और अगर आप चर्चा ना करें तो वैसे ही अजीब लगता है कि देश भर चुनाव की राजनीति में डूबा है और आप पता नहीं क्या हांक रहे हैं।

अब मसला ये है कि यदि राजनीति पर चर्चा करें तो पाठकों की अपेक्षा हो सकती है कि हम आपके लिए कोई अनुमान लगा कर दें कि आने वाली लोकसभा का क्या स्वरूप होगा? क्या भाजपा पिछली बार वाली अपनी बढ़त बनाए रखने में सफल होगी? या आप पूछ रहे हैं कि क्या भाजपा पहले से भी बेहतर करने वाली है और या फिर इसके उलट कि क्या भाजपा पहले से कम सीटें जीतेगी और अगर हाँ तो कितनी कम?

आगे बढ्ने से पहले ही कह दें कि ऐसे किसी अनुमान लगाने की क्षमता या संसाधन आपके इस स्तंभकार के पास नहीं है। ये अलग बात है कि उसने अच्छे-अच्छे संसाधन वाले लोगों के अनुमान गलत होते देखे हैं। लाखों रुपए खर्च करके किए जा रहे सर्वे भी गलत होते देखे हैं हमने। कई बार तो लगता है कि लोग ऐसे सर्वेक्षण अपने घर-दफ्तर-स्टुडियो में बैठकर ही बना देते हैं लेकिन फिलहाल सर्वेक्षणों के स्तर पर चर्चा फिर कभी के लिए छोड़ देते हैं।

जब चुनाव और उसके परिणामों पर बात हो रही है तो एक बार ईवीएम का भी ज़िक्र ज़रूरी है। उसका कारण ये है कि ईवीएम को लेकर देश के कई हिस्सों में मतदाता आश्वस्त महसूस नहीं कर रहे। यह लिखे जाने तक तीसरे फेज़ के चुनाव पूरे हो गए हैं और उस दिन में जैसे जैसे वोटिंग से संबन्धित खबरें आ रही थीं, वैसे वैसे साथ ही जगह जगह से ईवीएम में तकनीकी खराबियों की खबरें भी आ रही थीं।

जैसा कि इस स्तंभकार ने अन्यत्र लिखा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि ईवीएम मशीनों को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा है और हमेशा ही उन्होने ये परीक्षा पास की है किन्तु इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आम लोगों के अच्छे-खासे हिस्से में अब ईवीएम को लेकर एक संदेह की स्थिति पैदा हो गई है। इस स्तंभकार को हाल ही में उत्तरप्रदेश की तीन लोकसभा सीटों पर वोटरों से खासतौर पर युवा मतदाताओं से मिलने का मौका मिला। आश्चर्य की बात है कि तीनों ही चुनाव-क्षेत्रों में ऐसा कहने वाले मतदाता मिल गए कि उन्हें ईवीएम पर भरोसा नहीं है।

इस पर ज़ोर देकर कहने की ज़रूरत नहीं कि ईवीएम के खिलाफ इस तरह का अविश्वास होना देश के लोकतन्त्र के लिए एक चिंताजनक स्थिति है। सच कहें तो ऐसा अविश्वास ना तो भारतीय लोकतन्त्र के लिए शुभ लक्षण है और ना ही भारत के चुनाव आयोग की निष्पक्षता दर्शाने के लिए कोई अच्छा विज्ञापन है। वैसे यहाँ यह भी जोड़ना चाहूँगा कि व्यक्तिगत तौर पर इस स्तंभकार को भी ये बात गले नहीं उतरती कि ईवीएम में कोई ऐसी छेड़छाड़ की जा सकती हो जो चुनाव के नतीजों पर कोई प्रभाव डाल सके किन्तु इसके बावजूद हमारा यह स्पष्ट मत है कि इस संबंध में जो भी शक़-शुबह हैं, उन्हें जहां तक संभव हो दूर करना चुनाव आयोग की ज़िम्मेवारी है। खासतौर पर ऐसे मौकों पर जबकि ये कहा जाता है कि खराबी वाली मशीनों में सभी वोट भाजपा को ही क्यों जा रहे होते हैं। क्या इस प्रकार के शक का निवारण चुनाव आयोग की ज़िम्मेवारी नहीं है? और फिर ये भी कह दें कि नतीजों की इतनी जल्दी क्या होती है? अगर बैलेट पेपर पर भी वापिस जाना पड़े तो ऐसी कोई बुराई नहीं है। आखिर कई विकसित देश भी तो ईवीएम को त्याग कर फिर से बैलेट पेपर पर आ गए हैं।

बहरहाल, जो भी हो, ये उम्मीद करनी चाहिए कि ईवीएम में यदि कहीं कोई खराबियाँ आती भी हैं तो उनसे इतना असर ना पड़े कि जन-भावनाओं का निरादर हो। सरकार चाहे किसी एक दल की हो या फिर मिलीजुली सरकार हो, जिसे खिचड़ी सरकार कहा जाता है – हो ऐसी की जो आम जनता को सबसे ऊपर रखे – किसानों की तरफ ध्यान दे, गाँव-देहात की बेरोजगारी पर ध्यान दे, शहरों की गरीब बस्तियों की तरफ ध्यान दे और सुनिश्चित करे कि देश का हर बच्चा पर्याप्त भोजन के साथ साथ शिक्षा और स्वास्थय भी पा रहा है।

वैसे तो भाजपा समर्थकों को पूरी उम्मीद है कि मोदी जी के नेतृत्व मे ही पूर्ण बहुमत की सरकार बनने जा रही है, लेकिन ऐसा ना हो सका और कोई ‘खिचड़ी सरकार’ भी बनी तो हम उत्तरांचल पत्रिका के पाठकों को ढाढ़स बंधाना चाहते हैं कि देश की आर्थिक प्रगति पर उसका कोई खराब असर नहीं पड़ता बल्कि इस बात के प्रमाण ज़्यादा मिले हैं कि खिचड़ी सरकारों के समय देश की प्रगति बेहतर ही हुई है।

यह आलेख पूरा करने के पहले ये भी कहना चाहेंगे कि चाहे आप दलगत राजनीति से कितना भी क्यों ना उकता गए हों, राजनीति से नफरत मत कीजिएगा क्योंकि यह हमारे स्वतंत्र्य आंदोलन के दौरान मिले राजनीतिक प्रशिक्षण का ही यह परिणाम है कि हमें एक परिपक्व राजनीतिक प्रणाली मिल गई है। आप सौभाग्यशाली हैं कि भारत जैसे देश में आप हैं जहां का संविधान आपको अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता देता है, समानता का अधिकार देता है और धार्मिक स्वतन्त्रता भी देता है। मोदी जी चाहे भूतपूर्व प्रधानमंत्री नेहरू को जितना भी बुरा-भला कह लें, यह गांधी, अंबेडकर और नेहरू जैसे नेताओं की विरासत के कारण ये संभव हुआ है कि हमें दुनिया का सबसे अच्छा संविधान मिला है।

उम्मीद करनी चाहिए कि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इन सब विशिष्टिताओं की कदर करेंगी और हम सब अपने अपने क्षेत्र में भारतीय संविधान का झण्डा ऊंचा रखेंगे।

*यह आलेख उत्तरांचल पत्रिका के मई 2019 में प्रकाशित हो रहा है।

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