प्रेमचंद की जयंती पर राजेन्द्र भट्ट* की श्रद्धांजलि
प्रेमचंद की प्रासंगिकता स्वत:सिद्ध है लेकिन फिर भी इस विषय पर लिखने की उस समय तत्काल ज़रूरत महसूस हुई जब पिछले दिनों हिन्दी की एक चर्चित कथा-पत्रिका के संपादक ने (संभवतः अपनी तरफ ध्यान खींचने की गरज़ से?) ये बात कही कि प्रेमचंद के लिखे में करीब बीस कहानियों को छोड़ कर बाकी सब कूड़ा है।
मैं साहित्यकार, संपादक, आलोचक-प्राध्यापक या किसी साहित्यिक धड़े से जुड़ा नहीं हूँ। कहानी-कविता को फ्रेम में लगा कर किस तरफ से कील लगा कर टांगना-देखना-समझना चाहिए, ये नहीं जानता। मतलब साहित्य का एम.बी.ए. नहीं हूँ।
बचपन से प्रेमचंद को पढ़ता आ रहा हूँ और उनकी लगभग सभी कहानियाँ पसंद हैं। 31 जुलाई को उनकी जयंती पर एक कम चर्चित कहानी से श्रद्धांजलि दे रहा हूँ जो एम.बी.ए. नज़रिए से शायद ज़्यादा ‘आइबॉल कैचिंग’ नहीं होगी और ‘कूड़ा’ कहानियों में शामिल होगी। लेकिन मुझे आजकल के हालात में ये कहानी मौजूं लगी और इसलिए याद आई।
दादी-नानी के ज़माने से हमें ‘कहानी’ शब्द कान में पड़ते ही ‘सुनने या सुनाने’ की याद आती है। यह कहानी भी ‘सुनाई’ जा सकती है, यानि इसमें कथा-किस्से की बुनावट और प्रवाह है और बिना किसी ‘साहित्य-एम.बी.ए.’ की मदद के इसे सुना-समझा जा सकता है।
तो संक्षेप में सुनिए। कहानी है – ‘तावान’। हालांकि यहाँ संक्षेप में देने से सुनने जैसी बात नहीं बनेगी। आनंद में कोई कमी नहीं चाहते तो पूरी कहानी इस ‘लिंक’ में है – पढ़ें तो सुनने जैसा ही लगेगा – प्रेमचंद की ‘सुनाई’ कहानियों का रस, सभी सहृदयों को ‘सरस’ बनाता है।
आज़ादी से पहले के ‘स्वदेशी’ आंदोलन का दौर है। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार हो रहा है । आंदोलनकारी विदेशी कपड़ा नहीं बिकने देते। बेचने वालों की दुकानों को (शांतिपूर्ण तरीके से) ‘सील’ कर देते हैं।
ऐसी ही एक छोटी सी दुकान छकौड़ीलाल की है। घर में पाँच बच्चे, बूढ़ी माँ और बीमार पत्नी है। स्वराज्य अभियान छिड़ते ही उसने भी अपने पास रखे विदेशी कपड़े ‘सील’ करवा लिए और अपनी हैसियत के हिसाब से दस-पाँच थान स्वदेशी कपड़े के उधार ले आया। पर कम और बेमेल कपड़े होने से बिक्री नहीं हुई। पूरी मेहनत के बावजूद उस पर कर्ज, गहने बिकने और बीमार पत्नी का रोग असाध्य होने की नौबत आ गई। मजबूर छकौड़ीलाल ने ‘सील’ तोड़ दी और कुछ विलायती कपड़ा बेच दिया। लेकिन पत्नी ने ये कह कर इलाज कराने से साफ मना कर दिया कि:
“देश को स्वराज्य मिले, लोग सुखी हों, बला से मैं मर जाऊँगी! हजारों आदमी जेल जा रहे हैं, कितने घर तबाह हो गये, तो क्या सबसे ज़्यादा प्यारी मेरी ही जान है ?”
गरीब दुकानदार ने पैसे फेंक दिए। दुकान पर लौटा तो इस बीच आंदोलनकारी आ गए और उनकी महिला नेता ने उसे फटकारा:
“…देश में यह संग्राम छिड़ा हुआ है और तुम विलायती कपड़ा बेच रहे हो, डूब मरना चाहिए। औरतें तक घरों से निकल पड़ी हैं, फिर भी तुम्हें लज्जा नहीं आती! तुम जैसे कायर देश में न होते तो….”
छकौड़ी ने स्वयंसेवक महिला को पूरा सम्मान दिया, अपनी विपदा सुनाई। महिला ने ‘थानेदारों के रोब’ से बात की तो हताशा-जन्य चिढ़ में पुलिस बुलाने की बात भी कर बैठा। पर महिला ने ‘सत्याग्रह-शक्ति के तेज’ से उसे लज्जित कर दिया। आखिरकार, छकौड़ीलाल पर आंदोलनकारियों ने 101 रुपए का तावान (जुर्माना) लगा दिया।
असहाय छकोडी ने एक बार फिर विदेशी स्टॉक बेच कर हालात से उबरने की कोशिश की, फिर पकड़ा गया। अबकी अपमानित करने के किए घर के आगे ‘स्यापा’ (सामूहिक रोना-धोना) भी किया गया। बीमार पत्नी और वृद्धा माँ ने सुझाया कि कॉंग्रेस कार्यकर्ताओं से ही आग्रह किया जाए कि वही कोई काम दे दें, ताकि परिवार जिंदा रह सके। छकौड़ीलाल वहाँ गिड़गिड़ाया कि घर में चूल्हा नहीं जला है, मरने के हालात हैं, तावान नहीं दे सकता।
आंदोलन के नेताओं का अपना तर्क था कि तावान तो देना ही पड़ेगा। अगर एक को छोड़ दें तो इसी तरह और लोग भी करेंगे। फिर विलायती कपड़े की रोकथाम कैसे होगी?
हताश छकौड़ीलाल तड़प उठा – “तो यह कहिए कि आप देश-सेवा नहीं कर रहे हैं, गरीबों का खून चूस रहे हैं! पुलिसवाले कानूनी पहलू से लेते हैं, आप गैरकानूनी पहलू से लेते हैं। नतीजा एक है। आप भी अपमान करते हैं, वह भी अपमान करते हैं। ….आप मुझे काँग्रेस का काम करने के लिए नौकर रख लीजिए। 25/- महीने दीजिएगा। इससे ज़्यादा अपनी गरीबी का और क्या प्रमाण दूँ।“
कॉंग्रेस के प्रधान ने हाथ झाड़ लिए, “…पहले तो इसका विश्वास नहीं आता कि आपकी हालत इतनी खराब है और अगर विश्वास आ भी जाये, तो भी मैं कुछ कर नहीं सकता। इतने महान आंदोलन में कितने ही घर तबाह हुए …हमारे सिर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। ….सभी अपनी गरीबी के प्रमाण देने लगेंगे। मैं किस-किस की तलाशी लेता फिरूँगा। …किसी तरह रुपये का प्रबंध कीजिए और दुकान खोलकर कारोबार कीजिए। ईश्वर चाहेगा, तो वह दिन भी आयेगा जब आपका नुकसान पूरा होगा।“
छकोडी ने घर में ये किस्सा बताया तो “स्त्री का मुरझाया हुआ बदन उत्तेजित हो उठा। उठ खड़ी हुई और बोली- ‘अच्छी बात है, हम उन्हें विश्वास दिला देंगे। मैं अब काँग्रेस दफ्तर के सामने ही मरूँगी। मेरे बच्चे उसी दफ्तर के सामने विकल हो-होकर तड़पेंगे। काँग्रेस हमारे साथ सत्याग्रह करती है, तो हम भी उसके साथ सत्याग्रह करके दिखा दें। मैं इसी मरी हुई दशा में भी काँग्रेस को तोड़ डालूँगी।‘
पत्नी के इस ओजस्वी रूप से घबरा कर पति ने काँग्रेस के प्रधान जी को संवेदनशील दिखाने का अर्ध-सत्य बोला कि प्रधानजी को तो पूरी सहानुभूति थी पर एक को छोड़ देंगे तो दूसरे भी वैसा ही करेंगे और स्वराज आंदोलन कमजोर हो जाएगा।
बस, इतनी सी मिठास से प्रतिरोध की चट्टान भावमयी गंगा बन गई। गरीबी और अपमान की चोट खाई ओजस्विनी अब स्वराज-आंदोलन के लिए समर्पिता थी। विकल्पहीन पति को उसने संकल्प की दिशा दी –
‘हम तो यों ही मिटे हुए हैं…और कुछ नहीं है; घर तो है। इसे रेहन रख दो। और अब विलायती कपड़े भूलकर भी न बेचना। सड़ जायें, कोई परवाह नहीं। …मेरी दवा-दारू की चिंता न करो। ईश्वर की जो इच्छा होगी, वह होगा। बाल-बच्चे भूखों मरते हैं, मरने दो। देश में करोड़ों आदमी ऐसे हैं, जिनकी दशा हमारी दशा से भी खराब है। हम न रहेंगे, देश तो सुखी होगा।’
यहीं कहानी खत्म होती है।
एक सहृदय-साधारण पाठक की नज़र से मुझे यह कहानी कई तरह से बेहतर बनाती है।
एक तो, स्वदेशी आंदोलन की ‘बड़ी तस्वीर’ ही मैंने स्कूली किताबों से पढ़ी-समझी थी- मतलब विदेशी शासन और शोषण से मुक्ति का एक हिस्सा। लेकिन इस कहानी ने मुझे किसी भी बड़ी आंदोलन के दौर में एक मज़लूम को क्या झेलना पड़ सकता है,उसके जीवन से जुड़ा क्या पक्ष हो सकता है – यानि अनेक ‘छोटी तस्वीरों’ के सच, उनकी मजबूरियों के प्रति भी संवेदनशील बनाया।
दूसरे, गांधीजी के उस ताबीज़ की भी याद दिलाई कि हम जो भी काम करें, उस के सही-गलत का पैमाना यही हो कि उससे सबसे गरीब-दुबले की आँखों के आँसू पुछें।
गांधीजी की छांव तले आंदोलन चलने से यहाँ ‘देशभक्तों’ का उन्माद ‘महान’ राष्ट्रीय-धार्मिक उद्देश्यों के लिए आजकल हो रही हिंसा और ‘लिंचिंग’ तक तो नहीं पहुंचा, पर कहानी सजग करती है कि आंदोलनकारियों की ‘छोटी तस्वीर’ के दुख को न समझ पाने की ‘इनटोलेरेन्स’ यानि असहिष्णुता से गरीब के प्रति तिल-तिल हिंसा तो होती ही है। महिला नेता और प्रधान जी के शब्दों से उनके व्यक्तित्वों, और उनके ज़रिए आंदोलन में घुसपैठ कर गई उदासीनता, असहिष्णुता और संवेदनहीनता के प्रति कहानी आगाह करती है, जिनसे ऐसे आंदोलन हिंसक, उन्मादी हो सकते हैं।
लेकिन कहानी की ये भी खूबी है कि प्रधान जी और महिला नेता भी ‘विलेन’ नहीं गढ़े गए हैं। उनका आक्रोश, तर्क और मजबूरियाँ वाजिब हैं। विलेन व्यक्ति नहीं, परिस्थिति है। उसे बदलते हुए आगे बढ़ना है।
छकौड़ीलाल की पत्नी के मन की अन्याय के खिलाफ आग और बड़े उद्देश्य के लिए शीतल तरलता को तो कैसे समझाएँ! शायद अपने गाँव-देहात में ऐसी अनेक सच्ची स्त्रियाँ आपकी आँखों के आगे आ गई होंगी जो करती तो ऐसा ही हैं, पर समीक्षक-एक्टिविस्ट के तराशे हुए साँचे में न आ पाएं। ऐसे लोगों को वह एक ‘होपलेस’ चरित्र लगे, जिसने कहानी की ऐसी-तैसी कर दी। ये भी सच है कि आदर्श मूल्यों का मार्ग इस परिवार को शोषक सिस्टम में कर्ज़ और बरबादी के ज़्यादा करीब ले जाए। प्रेमचंद ने कथा को, जीवन की तरह ही ‘ओपन एंड’ पर छोड़ा है, निर्णय-निष्कर्ष नहीं सुनाया है।
लेकिन एम.बी.ए.-समीक्षक-सह-लेखक के उलट, प्रेमचंद जैसे लेखक खाँटी जीवन से आए अनगढ़ पात्रों को खुद चलने देते हैं, जैसे वे समाज में चलते हैं। उनको तराश कर अपनी सुविधा से ‘मैनेज’ नहीं करते। प्रेमचंद के पात्र याद करूँ तो मेरी आँखों के सामने चिमटा हिलाता ‘ईदगाह’ का हामिद याद आ जाता है जो गढ़े-तराशे खिलौनों को उनके नकलीपन और एकदम टूट जाने की औकात समझाता निकाल जाता है। प्रेमचंद हामिद को गढ़ कर, पकड़ कर नहीं रखते; बस, निहारते- बखानते हैं।
यहाँ मार्के की बात यह है कि इस कहानी से मेरा परिचय मेरे पिता ने कराया। पिता मामूली पढ़े-लिखे थे – न अंग्रेजी जानते थे, न समीक्षा की भाषा। बहरहाल, संस्कृत-मूल का एक शब्द है – सहृदय; यानि ऐसा व्यक्ति जो जिंदगी को, लोगों को महज़ नफे-नुकसान के चश्मे से न ‘मैनेज’ करे, बल्कि अपने और दूसरों के जीवन को सौम्य-सुंदर बनाने वाले व्यवहारों-कलाओं में उसका मन रमे, ‘सरस’ और ‘तरल’ बने।
तो पिता ऐसे ही सहृदय थे जो तब के साहित्यकारों – प्रसाद, निराला, मैथिलीशरण, महादेवी और प्रेमचंद की किताबें खरीद कर पढ़ते, पढ़ाते, सुनाते और समझ सकते थे। चूंकि वह कपड़े के बड़े कारोबारियों के मुलाज़िम रह चुके थे इस लिए ‘तावान’ के छकौड़ीलाल का दर्द करीब से समझ सके थे।
मतलब यह कि प्रेमचंद और उनके ज़माने के कवि-लेखक – मेरे पिता जैसे हज़ारों पाठकों को – कम साक्षरता, कम साधनों और कम सूचनाओं-संवाद के पुराने दौर में भी अपना लेखन पढ़ा कर, ‘सुना’ कर – बेहतर, ‘सहृदय’ इंसान बना सकते थे। प्राध्यापक-समीक्षक-संपादक-लेखकों के गुट के प्रयासों के बिना भी – और आज की बात करें तो सोशल मीडिया पर खुद खबर दे कर, ‘पोस्ट’ कर, पॉडकास्ट, वीडियो, वेबिनार और ‘लाइक’ की प्रार्थना किए बगैर, बिना ‘लिट-फेस्ट’ में गए और उनके आयोजकों के सर्टिफिकेट के – फटे जूते और अनगढ़ शक्ल-सूरत के प्रेमचंद – बिना कोई ताम-झाम ‘मैनेज’ किए हज़ारों लोगों तक पहुँच सकते थे, पहचाने जाते थे।
प्रेमचंद जैसे लेखकों की ये ‘रीच’ (आम पाठकों तक पहुँच) बहुत काम की है। मतलब उनकी कहानियाँ पढ़ बेहतर बने हज़ारों-हज़ार इंसान छकौड़ीलाल और हामिद के प्रति, उनके पक्ष के प्रति संवेदनशील-मानवीय होंगे। ऐसी ही अनेक कहानियों के मजलूम चरित्रों की ‘छोटी तस्वीरों’ के प्रति भी वे सदय- समझदार होंगे। ठाकुर का कुआं का जोखू, घासवाली की मुलिया, गुल्ली-डंडा का ‘गया’, सवा सेर गेहूं’ का शंकर और दो बैलों की कथा’ के हीरा-मोती के पक्ष को वे समझेंगे। स्वार्थ और सच्चाई की परीक्षा की घड़ियों में पंच परमेश्वर, मंत्र, नमक का दारोगा और बड़े घर की बेटी जैसीकहानियाँउन्हें राह दिखाएगी। बड़े भाई साहब, शतरंज के खिलाड़ी के मीर-मिर्ज़ा, नशा कहानी के बीर, घासवाली के चैनसिंह, सवा सेर गेहूं के विप्र जैसे पात्र उन्हें अपने मन में जाने-अनजाने घुस आई कमियों-विकृतियों-बेईमानियों से आगाह कराएंगे।
तो साहित्य में एक तरफ प्रेमचंद खड़े हैं जो अपने पाठकों तक पहुँच पा रहे हैं, तो ऐसे भी गंभीर, चिंतनशील, प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार भी हैं जो पूरे ईमानदार प्रयासों के बावजूद सहृदय पाठक तक नहीं पहुँच पाने की चुनौती के प्रति सजग हैं। हिन्दी के शिखर-कवियों में एक – केदारनाथ सिंह का एक भाषण मुझे याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके गाँव के एक व्यक्ति (ज़ाहिर है ‘सहृदय’ तो था ही) ने उनसे पूछा कि कोई ‘कवित्त’ सुनाओ। उस ‘सहृदय’ ग्राम-सखा को समझ आ सके, उसे थोड़ा ‘बेहतर’- थोड़ा समृद्ध बना सके – यह कवि की चुनौती है। प्रेमचंद इस चुनौती से पार पा सकते हैं – बाकी को सजग होना है। केदारनाथ सिंह सजग थे।
स्पष्ट कर दूँ कि इसका यह मतलब नहीं कि सब को समझ आ पाना ही साहित्य की कसौटी है और ऐसा न कर पाने वाला साहित्य व्यर्थ है। साहित्य और सभी कलाओं के दो छोर होते हैं – लोक और ‘क्लासिक’। लोक मार्मिक होता है, सबकी समझ में आता है – पर अनगढ़ होता है। ज्ञान और अवकाश का समय बढ्ने से, चाहे-अनचाहे ज़्यादा जटिल, ज़्यादा परतों वाली अभिव्यक्ति को ज़्यादा तराश के साथ प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति होती ही है और ‘लोक’ से ‘क्लासिक’ की यात्रा अनायास हो ही जाती है। क्लासिक साहित्य के अपने मानदंड होते हैं, होने भी चाहिए। फिर अगर इंजीनियरी-डॉक्टरी की समझ के लिए बुनियादी समझ जरूरी है, यहाँ तक कि अन्य कला-विधाओं, जैसे संगीत और शिल्प के लिए बुनियादी समझ ज़रूरी है तो साहित्य के लिए क्यों नहीं हो? बहरहाल, ये एक अलग लेख का विषय है।
लेकिन लेखन का उसके लक्षित पाठकों तक पहुँचना तो लाज़िमी है। मसलन मुक्तिबोध को लें – बेहद ईमानदार, बहुत बड़ी-सार्थक बात कहने वाले बड़े कवि हैं। लेकिन रेशा-रेशा उन्हें समझना कठिन है। उनकी ‘अंधेरे में’ कविता व्यवस्था की सारी कुटिलताओं- षडयंत्रों का ‘फेंटेसी’ के ज़रिए खुलासा करती है लेकिन जिस ‘जन’ के हित में, उसकी समझ के लिए यह खुलासा है, उसकी समझ में यह कविता नहीं आती। यही चुनौती है।
लेकिन यहाँ – केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध जैसे कवि अनेक कसौटियों पर खरे उतरते हैं – दोनों अपने कथ्य और लोगों को, समाज को बेहतर बनाने के प्रति ईमानदार हैं; दोनों प्रतिभा की एवज में ‘मैनेज’ करने के नए-पुराने तरीकों – बैसाखियों (नाटक की सटीक भाषा में कहें, तो ‘प्रौप्स’) का इस्तेमाल नहीं करते और दोनों ही ‘जन’ तक पहुँच पाने की चुनौती के प्रति पूरी संजीदगी के साथ सजग हैं। केदारनाथ सिंह के इस प्रसंग के साथ हम ‘अंधेरे में’ के एकाकी कवि की व्यथा, उसकी हत्या और फिर ‘अभिव्यक्ति के नए तरीकों’ के लिए मुक्तिबोध की सजगता को देखें जहां कविता अंत में जन-जन तक पहुँच जाती है।
तो प्रेमचंद अपने पाठकों तक पहुँच पा रहे हैं और लोगों को बेहतर इंसान बना रहे हैं, मुक्तिबोध और केदारनाथ सिंह पूरी ईमानदारी, प्रतिभा और निष्ठा से यही कर रहे हैं।
और तीसरे छोर पर – फिर दोहराना पड़ रहा है – ‘मैनेज’ करने वाले हैं। पहले वे समीक्षक, संपादक, प्राध्यापक, गुट के फतवे से महानता ‘मैनेज’ करते थे; पाठ्यपुस्तकों में रचना शामिल किया जाना, विश्वविद्यालयों-कॉलेजों के साहित्य विभागों, अकादमियों-कमेटियों-संस्थाओं में घुसा देना, सरकारी-गैरसरकारी पुरस्कार-समारोह-विमोचन-नेता के साथ फोटो वगैरह ‘मैनेज’ करते थे। अब वेबिनार, पॉडकास्ट, ‘लाइक’, फेसबुक पौल्स’, राज्य सरकारों के सम्मान, लालकिले, आकाशवाणी और दुबई तक के यथायोग्य कवि-सम्मेलन और पाठ से ‘लिट-फेस्ट’ की संभ्रांत भागीदारी तक ‘मैनेज’ की जाती है। राजनीति की तरह साहित्य में भी अब मैनेजर हैं।
लेकिन मैनेज करना बुरा शब्द है। साहित्य के क्षेत्र में, ऐसे लोग या प्रवृतियाँ पाठक का एक तरह से तिरस्कार या अनादर करने वाली हैं। दूसरे, मैनेज करके सरकारी खरीद हो जाती है, ‘काम’ निकाल जाते हैं, ‘नाम’ भी हो जाता है पर पाठक के दिल में जगह बनाने वाले प्रेमचंद नहीं बन पाते। इसे समझना हो तो ऐसे ही किसी सोशल मीडिया के लेखक-कवि का दर्द नजदीक से देखें जब तमाम पॉडकास्ट, वेबिनार, निजी स्तर पर अनुरोध करके, पहले से बता कर भी (बाकी ‘लेखक-पाठक-श्रोताओं’ के) 50 ‘लाइक’ भी नहीं मिल पाते।
इन बिखरे छोरों को समेटें तो :
चुनौती तो यही है कि साहित्य ‘सहृदय’ पाठकों तक पहुंचे; ज़्यादा से ज़्यादा गहरी संवेदनाओं वाले सहृदय पाठक बनें; साहित्य उन्हें इतना बेहतर-समझदार बनाए कि वे समाज में उन्माद, ज़हर फैला कर राजनीति और धंधों की रोटियाँ सेंकने वालों से छकोडी, गया, हीरा-मोती, हामिद जैसे लोगों को बचाएं।
‘मैनेज’ करने वाले साहित्य की गंगा से घोंघों-रोड़ों की तरह किनारे ही जाएँ। वे न प्रवाह को रोकें, न सड़ा पाएँ। ।उन्हें महत्व न मिले, उनकी दुकानें बंद हो जाएँ। ताकि ये संदेश जाए कि मेहनत और प्रतिभा से ही पाठक और उनका सम्मान मिलता है, छिछोरेपन, तिकड़म और ‘शॉर्ट कट’ से नहीं।
और प्रेमचंद को कूड़ा बताने वाले विद्वान, मर्मज्ञ लेखक, संपादक, प्राध्यापक, जनमुखी या कलामुखी खेमों के लेखक इस चुनौती को समझें कि उनको न कोई पढ़ता है, न पहचानता है। जितने लेखक, उतने ही पाठक। पिछले अनेक दशकों से उन्होंने जो भाषा और मुहावरे गढ़े हैं, उससे उन्हें पुरस्कार तो मिले होंगे, अहम भी बढ़ा होगा; लेकिन ‘जन’ उनसे अपरिचित-उदासीन हो कर टेलीविज़न चैनलों के सीरियलों के उथलेपन या समाचार चैनलों के उन्माद में मज़े लेने लगा है, जिसका नतीजा- सीधे-सीधे नफ़रत, बहुसंख्यकवाद, और संकीर्णता के उन्माद की खेती में हो रहा है जिसे राजनीति बो-काट रही है। क्लासिक रूपवादी या जनवादी लेखकों को समझना होगा कि ये राह उनके लिए भी आत्महत्या की राह है। उनकी महानता और मुहावरे का उन्मादी सत्ता के लिए कोई महत्व नहीं है; ‘जन’ के पाठक बनने से ही वे जिंदा रहेंगे। और इसके लिए प्रेमचंद जैसी भाषा और मुहावरा गढ़ना ही होगा।
और फिर प्रेमचंद से लेकर मुक्तिबोध और अब तक के साहित्यकर्मी और सहृदय पाठक ऐसा समाज बना सकें जिसमें उन्माद न हो; हिन्दू-मुसलमान-कब्रिस्तान-श्मशान न हो; कोई छकौड़ी, हामिद, गया की ‘लिंचिंग’ न करे; हर ‘छोटी तस्वीर’ को समझने की उदारता हो और उदार, न्यायपूर्ण भारत की बड़ी तस्वीर बनाने में साहित्य और कलाएं योगदान करें। प्रेमचंद अपनी कहानियों से ऐसे ही बेहतर इंसान और समाज बनाते हैं। लेखक भी तभी बचेगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठक ही उसे बचाएंगे।
इसीलिए, प्रेमचंद निरंतर प्रासंगिक हैं – बल्कि जब तक अपने तमाम कुरूप आयामों के साथ ‘महाजनी सभ्यता’ रहेगी, प्रेमचंद, पूरे विश्वास और निडरता के साथ यह कहते हुए प्रासंगिक रहेंगे –
जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है। वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
प्रेमचंद की रचनाओं पर इतनी बढ़िया टिप्पणी कब पड़ी याद नहीं!
छोटी-छोटी तीन बातें कहना चाहता हूँ। पहली बात, प्रेमचंद और और उनका लेखन कालातीत है। वे सदैव प्रासंगिक रहेंगे। अपने हर अंक में प्रेमचंद के नाम का इस्तेमाल करने वाली पत्रिका के संपादक द्वारा उनकी अवमानना या उनके साहित्य को कूड़ा बताने की हरकत इस पत्रिका को, संपादक को और यदि वे कथाकार हैं तो उनके कथाकार को छोटा बनाती है, प्रेमचंद को नहीं।
दूसरी बात, उनकी यह कहानी शेष अन्य कहानियों की तरह ही एक श्रेष्ठ रचना है, श्रेष्ठ और कालजयी ।इसलिए हमेशा प्रासंगिक बनी रहेगी। और जैसा आपने कहा, किसी बड़े उद्देश्य के लिए किए गए आंदोलन या किसी भी अन्य प्रयास का जो वंचित तबके का अथवा निम्न-मध्यवर्गीय लोगों पर असर होता है, उसे रेखांकित करती है। इसलिए यह हमेशा याद करने योग्य बनी रहेगी।
तीसरी बात यह कि अचानक एमबीए के पीछे आप क्यों पड़ गए? साहित्य को मैनेज करने का संदर्भ न तो इस कहानी से और न ही आपके लेख से समझ में आ पाया।
अत्यंत भावपूर्ण टिप्पणी।
प्रेमचन्द को पढ़ते समय लगता है कि कहानी का लेखक कोई अपने मोहल्ले का ही है और न जाने क्यों यह लगता है यह कहानी भी किसी न किसी अपने बंधु – बाँधव की ही होगी। यही वजह है कि उनका साहित्य लोगों की समझ के अनुकूल है। प्रेमचन्द की प्रासंगिकता पर प्रश्न तो कभी नहीं उठने चाहिए लेकिन जब मूल्य ही बदलने लगे और समाज के आदर्श ही बदल दिए जाए तो प्रासंगिकता फिर प्रासंगिक नहीं रहती ।
प्रेमचंद के संदर्भ में निश्चय ही ये लेख सारगर्भित है। मैंने यह कहानी अब तक नहीं पढ़ी थी। आपने परिचय कराया आभार।
प्रेमचंद के अधिकतर साहित्य को कूड़ा कहने वाले लेखक महोदय का भी आभार। उनकी यह टिप्पणी बहुत से उन पाठकों को शायद प्रेमचंद तक ले जाएगी जो अब तक उनसे अपरिचित रहे होंगे।
विवाद भी प्रचार का एक माध्यम है।
मुझे लगता है संपादक लेखक शिक्षक आदि आदि और वेबनारी विशेषज्ञों एवं एमबीए पर व्यंग्य बाण वर्षा किए बिना भी यह रचना उतनी ही सार्थक एवं पठनीय होती। ऐसे महात्मनों पर इतनी पंक्तियां दूषित करना भी उनका महिमामंडन है।
आपके पाठक की दिलचस्पी आपकी दृष्टि में प्रेमचंद में अधिक है। उतनी जगह में आप एक आध कहानी का रसास्वादन और करा सकते थे। ऐसी मेरी व्यक्तिगत राय है।
Sir.
Bahut hi sunder
Sargarbhit lekh hai
Suriya ko deepak deekhana hoga
Uss par tipanni karna.
Aapko bahut bahut badhai.
Bahut dino baad aisa lekh padha.
Congratulations sir.
बहुत ख़ूब!! प्रेमचंद और साहित्य का महत्व तो कभी क्षीण हो ही नहीं सकता। प्रेमचंद की रचनायें किसी भी इंसान को सहृदय और समवेदनशील बनाने में आज भी उतनी ही सक्षम हैं जितनी पहले थी और यह ही उनकी ताक़त और ख़ूबसूरती हैं!! लेखक ने बेहतरीन ढंग से बदलते दौर और साहित्य के बाज़ारीकरण पर अपनी बात कही है।
प्रेमचंद जैसे लेखक जिनकी लिखी हुई कहानियां, तथा अनेक लेखन हमें समाज से जोड़ने का प्रयास करते है और समाज की अनेक कमियों को साफ तौर पर हमारे समक्ष रखते है। उनके लेखन को कूड़ा कहना बहुत ही निंदनीय है क्योंकि उन कहानियों की आज भी प्रसंगिकता है , उन्हें हम आज के परिवेश से जोड़कर भी देख सकते हैं। उनका हमारे समाज को सही दिशा प्रदान करने में बहुत बड़ा योगदान रहा है।
मुंशी प्रेमचंद का लेखन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कल था ।प्रेमचंद ने समाज के मध्यम एवं निम्न वर्ग की समस्याओं,त्याग,आत्मसम्मान को बड़ी सरलता से बताते हुए समाज को सही दिशा देने की कोशिश की ।प्रेमचंद के लेखन को कूड़ा कहनेवाले संपादक बहुत सटीक जवाब देने तथा प्रेमचंद की एक अपठित कहानी से अवगत कराने के लिए भट्ट साहब को बहुत बहुत धन्यवाद