वर्तमान आर्थिक नीतियाँ: हाशिये के समुदायों को और हाशिये की ओर धकेलना

Arun Kumar

प्रो. अरूण कुमार

साउथ एशियन डायलौग ऑन इकोलाजिकल डेमोक्रेसी का फोकस रहता है ‘हरित स्वराज‘ पर उसमें आज जो एक मिलता-जुलता शब्द निकला है और प्रचलन में है वो है ‘सस्टनेबल डेवलेपमेंट गोल्स’ (Sustainable Development Goals – SDGs) जिसके दुनिया में तीन स्तंभ माने जाते हैं। एक है पर्यावरणीय अनुकूलता कैसे रहे, सामाजिक न्याय कैसे हो और साथ-साथ आर्थिक विकास कैसे हो इन तीनों को मिलाकर ‘सस्टनेबल डेवलेपमेंट गोल्स’ की तरफ बढ़ने की कोशिश मानी जाती है और इन तीनों के चलते हमारी समझ ये है कि हरित स्वराज या इकोलाजिकल डेमोक्रेसी का जो नज़रिया है उसको नहीं जोडेंगे तो ‘सस्टनेबल डेवलेपमेंट गोल्स’ पाने की इस जद्द-जहद में जिस तरह का आर्थिक विकास का नजरिया चल रहा है वही आगे पनपेगा और उसमें बाकी सब मुद्दे पीछे छूट जा रहे हैं। इस पर बात रखेंगे अरूण कुमार जी आर्थिक नजरिए से..

आज की चर्चा का जो विषय है वो बहुत ही बड़ा विषय है तो जो एक छोटा सा मैंने नोट तैयार किया था अभी मोदी सरकार के चार साल पूरे होने पर, उसमें मैंने अभी ये बताने की कोशिश की कि आज हमारी अर्थव्यवस्था में ग्रोथ के  अलग-अलग कितने सर्किल हैं। एक तो जो संगठित क्षेत्र हैं और दूसरा असंगठित क्षेत्र है। संगठित क्षेत्र आजकल असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है और असंगठित क्षेत्र को नुकसान पहुंचा रहा है। अर्थव्यवस्था में आपने देखा पिछले डेढ़ दो साल में कई झटके आए हैं। पहला आया था नोटबंदी (Demonetization) का, दूसरा आया था जीएसटी के इमप्लीमेंटेशन का और तीसरा जो चल रहा है वो है डिजीटाइजेशन का। ये  तीनों ही असंगठित क्षेत्र को बहुत बुरी तरह से डैमेज कर रहे हैं। लेकिन सरकार के जो आंकड़ें हैं उसमें असंगठित क्षेत्र अभी आ नहीं रहा है। हम कहते हैं अर्थव्यवस्था की रेट आफ ग्रोथ क्या है? बढ़ने की दर क्या है तो वो जो बढ़ने की दर है उसमें समस्या ये है कि हर तिमाही का डेटा आता है और उसमें असंगठित क्षेत्र का डेटा नहीं होता है। असंगठित क्षेत्र का डेटा तीन या पांच साल के बाद आता है। वजह क्या है कि जो संगठित क्षेत्र है वो तो एक तरह से सरकार के पास रजिस्टर्ड है। तो उनका डेटा आता रहेगा लेकिन जो असंगठित क्षेत्र हैं उसके बारे में जिसे हम कहते हैं उसके बारे में जिसको हम कहते हैं रेफरेंस एयर। समय-समय पर हम एक सर्वे करते हैं और सर्वे के आधार पर ये पता करते हैं कि असंगठित क्षेत्र में हो क्या रहा है। तो कितने रिक्शे वाले हैं, कितने खोमचे वाले हैं, कितने ढाबे वाले हैं वो उसमें आते हैं। तो अभी जो डेटा है जो तिमाही डेटा आ रहा है, वो कारपोरेट सैक्टर का डेटा आ रहा है वो पूरे संगठित क्षेत्र का डेटा भी नहीं है तो कारपोरेट सैक्टर का बढ़ रहा है तो ये मान लिया जाता है कि जो बाकी असंगठित क्षेत्र हैं जो बाकी नान कारपोरेट सैक्टर है वो भी बढ़ रहा है। ये जो नीतियां अभी अपनाई गईं हैं उससे फर्क पड़ा है कि कारपोरेट सैक्टर को फायदा पहुंचे तो उसकी रेट आफ ग्रोथ कम नहीं हुई तो ये मान लिया जाता है कि बाकी अर्थव्यवस्था की रेट आफ ग्रोथ वही है जो कारपोरेट सैक्टर की है।

 मेरा मानना है कि इस समय अर्थव्यवस्था की जो रेट आफ ग्रोथ है, सरकार कह रही है 6 से 7 प्रतिशत की रेट आफ ग्रोथ है लेकिन मेरा मानना है कि एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। उसकी वजह ये है कि जो असंगठित क्षेत्र 2012-13 का सर्वे के अनुसार हमारी अर्थव्यवस्था में हैं 45 प्रतिशत उत्पादन करता है। हो सकता है वो अब और ज्यादा कम हो गया हो क्योंकि उसके बाद का ऐसा कोई और सर्वे आया नहीं है। और जो असंगठित क्षेत्र में, कृषि का योगदान 13 प्रतिशत जाता है। तो बाकी 32 प्रतिशत नान एग्रीकल्चर अनआर्गेनाइज्ड सैक्टर का है जो कृषि क्षेत्र से बाहर असंगठित क्षेत्र है। तो ये करीब-करीब एक तिहाई हो गया यदि एक तिहाई डैमेज हुआ और इसपर 10 प्रतिशत कभी नैगेटिव असर पड़ा तो यहां पर माइनस 3.3 प्रतिशत का ग्रोथ आएगा। और संगठित क्षेत्र जो कि 55 प्रतिशत है अगर उसको हम मान लें कि सरकार के जो आंकडे हैं कि साढ़े छह-सात प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है तो वहां प्लस 3 प्रतिशत की ग्रोथ होगी। तो माइनस 3.3 या 3.3 तो ये तो जीरो हो गया तो मेरा कहना है कि इस समय अर्थव्यवस्था की रेट आफ ग्रोथ एक प्रतिशत से कम है वो छह-सात प्रतिशत है ही नहीं। तो यदि अर्थव्यवस्था की रेट आफ ग्रोथ छह-सात प्रतिशत होती तो एक अर्थव्यवस्था में फील गुड होता। बिजनेस मैन खुश होते कि रेट आफ ग्रोथ अच्छी है उनका प्रोफिट ठीक से बढ़ रहा है, उनका ट्रेड अच्छे से बढ़ रहा है लेकिन यदि आप मार्केट में जाएं तो बिजनेस मैन अभी भी ये शिकायत करते हैं कि उनका बिजनेस पिक अप नहीं किया जो नोट बंदी का असर पड़ा उसके बाद उनका बिजनेस उस तरह से पिकअप नहीं किया जिस तरह से पहले चल रहा था तो सर्वे भी आए जैसे कि नोट बंदी के दौरान कई प्राइवेट सर्वे आए सरकार को तो मैंने तो अपने आर्टिकल में लिखा भी कि सरकार को तुरंत सर्वे करना चाहिए कि असंगठित क्षेत्र में क्या असर हुआ है। लेकिन कोई ऐसा सर्वे किया नहीं गया लेकिन जो सर्वे आए जैसे कि स्टेट बैंक आफ इंडिया ने किया। एक सर्वे आल इंडिया मैन्युफैक्चर आर्गेनाइजेशन ने किया। एक सर्वे पंजाब, हरियाणा की कामर्स एंड इंडस्ट्रीज ने किया उसी तरह कई एनजीओ ने सर्वे किए तो सभी दिखाते हैं कि पचास से अस्सी प्रतिशत का असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ा। तो यदि पचास से अस्सी प्रतिशत का असर पड़ा तो नोट बंदी के दौरान रेट आफ ग्रोथ -20 या -25 प्रतिशत के करीब चल रही होगी पर ये दिखता भी है कि इससे एक बहुत बड़े मात्रा में असंगठित क्षेत्र से गांव की तरफ पलायन हुआ। क्योंकि यहां पर नौकरी नहीं थी, रोजगार नहीं था, पैसा नहीं था तो लोग वापिस गए तो इसीलिए मनरेगा की डिमांड बहुत तेजी से बढ़ी तो ये जो मनरेगा की डिमांड बढ़ी तो ये दिखाता है कि लोग जो गए उन्होंने और जाब सीक किया तो इनसे आप कह सकते हैं कि डेटा आ रहा था कि असंगठित क्षेत्र पर बहुत असर पड़ा। उसी तरह से और भी डेटा है कि जैसे नोट बंदी के दौरान, अर्थव्यवस्था में होने वाला निवेश बड़ी तेजी से गिरा। उसकी वजह क्या थी, उसकी वजह ये थी कि जब डिमांड कम हो जाती है तो लोग इनवेस्ट करना कम कर देते हैं। तो सीएमआई का डेटा है कि अगर आप जिसे दिसम्बर का तिहाई जिसे कहते हैं उसका डेटा देखें तो उधर 1.16 लाख करोड़ का निवेश था जबकि उसके पहले यदि आप आठ क्वाटर्र का एवरेज देखें तो करीब 2.5 लाख करोड़ था। यानि कि उस क्वाटर्र में निवेश आधा हो गया। तो इनवेस्ट में जब कम हो जाती है तो रेट आफ ग्रोथ कम हो जाती है तो ये सपोर्ट करता है कि उस समय बहुत भारी मात्रा में उत्पादन कम हुआ। एक और डेटा है जो इसी को सपोर्ट करता है वो है कि आपका क्रेडिट आफ टेक क्या है? बैंक से जो क्रेडिट लिया जाता है वो किसलिए लिया जाता है, उत्पादन करने के लिए और इनवेस्टमेंट करने के लिए तो ये जो क्रेडिट आफ टेक है इसमें बहुत भारी गिरावट आई ये गिरावट तो नोट बंदी के पहले से ही शुरू हो गई थी यदि आप देखें कि नवम्बर 8 में नोटबंदी हुई लेकिन अक्टूबर 2016 का डेटा देखें तो पिछले पचास साल का रिकार्ड 2 पर आ गया था और नवम्बर-दिसम्बर में वो 60 साल के न्यूनतम स्तर तक आ गया था क्योंकि क्रेडिट आफ टेक जबरदस्त गिरा ये भी दिखाता है कि अर्थव्यवस्था में मंदी बहुत तेजी से आई थी लेकिन सरकारी आंकडे ये नहीं दिखाते क्योंकि सरकारी आंकडे केवल कारपोरेट सैक्टर के आधार पर हैं।

अब अर्थव्यवस्था इससे ठीक से उभर भी नहीं पाई थी और जीएसटी आ गया। जीएसटी के आने से दोबारा से अर्थव्यवस्था में शॉक आया और इस शॉक से असर हुआ फिर से असंगठित क्षेत्र पर। उसकी वजह क्या है कि जीएसटी का असर फिर से असंगठित क्षेत्र पर क्यों पड़ा? उसके लिए मेरा मानना है कि संगठित क्षेत्र पर भी पड़ा और असंगठित क्षेत्र पर भी पड़ा लेकिन जो जीएसटी का कहा गया वो था कि वन नैशन वन टैक्स। कि इससे अर्थव्यवस्था में बहुत एफीसियेंसी आएगी। तो जीएसटी का असर असंगठित क्षेत्र पर क्यों पड़ा जबकि सरकार कह रही थी कि इससे तो रेट आफ ग्रोथ बढ़ जाएगी और दाम कम हो जाएंगे वगैरह। लेकिन सब उल्टा हुआ कि दाम भी बढ़ गए और अर्थव्यवस्था पर सब उल्टा असर हुआ। सरकार का ये कहना था कि जो गरीब लोगों के कन्जमशन की चीजें हैं उसपर तो हमने टैक्स लगाया नहीं। दूसरा उन्होंने कहा कि जो वन नैशन वन टैक्स है उससे जो ट्रांसपोटेशन वगैरह पर समस्या आती है वो कम हो जाएगी और तीसरा उन्होंने कहा कि जो बीस लाख से कम का टर्न ओवर है वहां पर तो हमने टैक्स लगाया ही नहीं। वो तो जीएसटी के दायरे से बाहर हैं और जो बीस लाख से दो करोड़ के बीच में हैं जिसको कम्पोजीशन स्कीम में कहा गया उसपर भी हमने टैक्स नहीं लगाया उसपर भी टैक्स में छूट है। तो फिर उन्होंने कहा कि इसका नैगेटिव असर नहीं होना चाहिए लेकिन मेरा मानना है कि इसमें नैगेटिव असर होता है क्योंकि जो जीएसटी है वो एक अप्रत्यक्ष कर है। इनडारेक्ट टैक्स है। और इनडारेक्ट टैक्स को लगाया तो कहीं और जाता है लेकिन उसका असर कहीं ओर ही होता है जैसे कि गेहूं पर जीएसटी का कोई टैक्स नहीं है लेकिन उसको ट्रांसपोर्ट करना है, डीजल पर यदि आपने टैक्स बढ़ा दिया तो फिर ट्रांसपोर्ट का खर्चा बढ़ गया। ट्रक पर आपने बढ़ा दिया तो ट्रांसपोर्ट कास्ट बढ़ गया फिर आपने उसमें फाइनेंस होगा या बाकी सैक्टर होंगे तो फिर उसका दाम बढ़ जाएगा तो इनडारेक्ट टैक्स लगाया कहीं जाता है और उसका असर कहीं और होता है तो जिन चीजों पर टैक्स नहीं भी लगाया है वहां पर भी असर महसूस हुआ तो सब चीजों के दाम बढ़े क्योंकि जीएसटी का जो रेट है वो उस प्रकार से लगाया गया कि सरकार को और ज्यादा कर की वसूली हो और यदि और ज्यादा कर की वसूली होगी तो दाम बढ़ेंगे तो उसका असर गरीब आदमी पर पड़ा।

आईएमएफ और बाकी सब एजेंसीज से सबने कहा कि भारत में जीएसटी लागू होना चाहिए ये 1993 के बाद से ये प्रेशर काफी तेजी से बढ़ा कि जीएसटी आना चाहिए क्योंकि उससे एमएनसीज को फायदा हैं। उनके जो आपरेशनस हैं इंटरनैशनल आपरेशनस हैं और सारा एक्रोस द बोर्ड नैशनस हैं तो उनको फायदा है। तो ये  जीएसटी का नैगेटिव असर है वो पड़ रहा है हमारे असंगठित क्षेत्र पर। उसका जो असर है उससे हमारे एम्पलायमेंट पर असर पड़ेगा, उसके आउटपुट पर असर पड़ेगा। और उससे मार्जिनेलाइजेशन हो जाएगा। तीसरी बात डिजिटाइजेशन की है तो डिजिटाइजेशन भी जो लार्ज स्कैल सैक्टर है उसके बहुत बेनिफिट में है क्योंकि वो तो अपनी एक एफीसियेंसी अचीव कर लेगा लेकिन जो असंगठित सैक्टर है वो डिजिटाइजेशन को बर्दाशत नहीं कर सकता। तो मैंने जब ये नोट बंदी हुई थी तो उस समय जो ये कैश लैस सोसाइटी और लैस कैश सोसाइटी की बात हुई थी तो मैंने तीन-चार मुद्दे रखे थे कि ये जो डिजिटिलाइजेशन का पुश है इस डिजिटाइजेशन के पुश से माइक्रो सैक्टर डील नहीं कर पाएगा क्योंकि न तो उनके पास बैंक अकाउंट उस तरह के हैं न ही उनकी कैपेसिटी है कि ये उस तरह से ट्रांजैक्ट कर सकें, न हमारे देश में इस तरह का इन्फ्रास्ट्रक्चर है कि हर जगह पर बिजली हो, हर जगह स्टीम मशीन हो और दूसरी बात है कि फाइनेंशसल लिटरेट्री हो वो भी इस प्रकार की नहीं है कि लोगों को समझ में आए कि किस तरह से इस तरह के डिजिटाइजेशन से डील कर सकें। तीसरी बात ये है कि रैग्यूलेशन की जरूरत है नही ंतो पेटीएम जैसी जो कंपनियां हैं वो बैंक में ही डिजिटाइजेशन में अपने रेटस वहां से बढ़ाकर अपने प्रोफिट वहां से कमाने की कोशिश कर रहे हैं। तो जब तक रेग्यूलेशन नहीं होगा तब तक कोई संभावना नहीं है। और चौथी जो बात है जो बार-बार सामने आ रही है कि साइबर सिक्योरिटी के बिना ये डिजिटाइजेशन काम नहीं करेगा। जैसै कि अक्टूबर 2016 में आपने देखा कि पांच मिलियन क्रेडिट कार्ड का डेटा चोरी हो गया और सारे नए क्रेडिट कार्ड इश्यू करने पड़े। इसके अलावा बार-बार न्यूज आती है कि ये वाइरस आया और उसने जगह-जगह बिजनेस को प्रभावित किया जो-जो छोटे बिजनेस हैं वो उससे बिल्कुल डील नहीं कर पाएंगे। उनको इस तरह से साइबर सिक्योरिटी चाहिए और फिर जैसे कि जीएसटी है अगर कोई छोटा उद्योग जीएसटी में आना भी चाहे जिससे वो इंटरस्टेट सेल कर पाए जिससे कि वो इंपोट क्रेडिट की वो दे पाए तो उसको कम्प्यूटराइज्ड करना पड़ेगा। और कम्प्यूटराइज्ड करके अकाउंटेंट रखना पड़ेगा तो उसका कोस्ट बढ़ जाएगा तो यदि कोस्ट बढ़ जाएगा तो उसका नकारात्मक असर पड़ेगा। तो मेरा मानना है कि ये जो सारी चीजें अभी अर्थव्यवस्था पर हो रही हैं तो उसका असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ेगा और वो मार्जिनाइज्ड होता चला जाएगा। इसके बहुत नकारात्मक असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेंगे क्योंकि 93 प्रतिशत रोजगार असंगठित क्षेत्र में है। आउटपुट में वहां पर 45 प्रतिशत है यदि इतने बड़े क्षेत्र पर असर पड़ेगा तो अर्थव्यवस्था में समस्या आएगी। अगर हम उसको ज्यादा बड़े फ्रेम पर देखें तो क्या हो रहा है कि आज अर्थव्यवस्था में कई कान्ट्रेडिक्शन सामने नजर आ रहे हैं। सबसे पहला कान्ट्रेडिक्शन सरकार कह रही है कि रेट आफ ग्रोथ हमारी 7 या साढ़े सात प्रतिशत और फारेन जो मल्टीनैशनल कंपनीज उसको सपोर्ट कर रहे हैं और जो मल्टीनैशनल ईसीजी हैं वो भी सपोर्ट कर रहे हंैं कि एडीबी कह रहा है, आईएमएफ कह रहा है, वल्र्ड बैंक कह रहा है कि रेट आफ ग्रोथ सात-साढ़े सात प्रतिशत हो जाएगी और उसका सरकार यूज करेगी कि देखो हमें तो बाहर से सर्टिफिकेट मिल गया कि हमारी अर्थव्यवस्था सात-साढ़े सात प्रतिशत पर बढ़ेगी लेकिन हमें सोचना ये है कि क्या ये जो आंकड़े फारेन एजेंसीज दे रहे हैं ये आंकडे इंडीपेंडेट हैं क्या? ये इंडीपेंडेट नहीं है क्योंकि सरकार के सिवा और कोई दूसरी एजेंसी ये आंकडे इक्ट्ठा नहीं करती तो जो ईडीबी के आंकडे हैं, आईएमएफ के आंकड़े हैं, वर्ल्ड बैंक के आंकड़ें हैं वो सरकार के आंकडों पर निर्धारित हैं क्योंकि जैसे मैंने कहा कि क्वाटरर्ली डेटा जो आता है उसी के आधार पर आगे चलाया जाता है। तो ऐसा नहीं कि ईडीबी का कोई इंडीपेंडेट स्टैंड है या वल्र्ड बैंका का कोई इंडीपेंडेट स्टैंड है, आईएमएफ का कोई इंडीपेंडेट स्टडी है जिसके आधार पर वो कैरी होगी। तो जो कमी सरकार के डेटा में है वही कमी उनके डेटा में भी कमजोरी है तो मेरा मानना है कि अभी जैसे मैंने कहा कि इस समय रेट आफ ग्रोथ एक प्रतिशत से कम है तो वो उनका भी आईएमएफ, ईडीबी वगैरह का है वो भी उसी तरह से मेरा मानना है उनको ये समझ नहीं है कि क्या हो रहा है, कहां पर हमारे असंगठित क्षेत्र पर असर पड़ रहा है। क्योंकि उनका इंटरेस्ट तो ये है कि जो संगठित क्षेत्र है जिसमें MNCs की रुचि है वो बराबर बढ़ता चला जाए तो इसलिए इस बात को सपोर्ट कर रहे हैं तो यदि ये माना जाए कि अर्थव्यवस्था में सात प्रतिशत की ग्रोथ हो रही है तो सवाल ये है कि कान्ट्रेडिक्शन जबरदस्त है। एक तरफ सात प्रतिशत रेट आफ ग्रोथ की बात हो रही है, दूसरी तरह जो पावरटी लाइन है उससे जो नीचे के लोग हैं वो कितने हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा लोग हमारे यहां पर हैं। दूसरी बात जो असमानता है वो बेतहाशा बढ़ रही है। जैसे कि अभी असमानता की रिपोर्ट आई तो एक प्रतिशत 70 प्रतिशत वैल्थ को कंट्रोल कर रहे हैं। और जो टाप 3 प्रतिशत हैं वो टाप 30 प्रतिशत इनकम को कंट्रोल कर रहे हैं। और इसमें काले धन की अर्थव्यवस्था को जोड़ा नहीं गया है क्योंकि इसके आंकड़े उनके पास नहीं हैं। पर मेरा मानना है काली अर्थव्यवस्था को भी इनक्लूड कर लिया जाए क्योंकि इससे इनक्वेलिटी और ज्यादा होगी तो ये काली अर्थव्यवस्था तीन प्रतिशत लोगों में केन्द्रित है। मेरा मानना है कि एक प्रतिशत के पास आज 80 प्रतिशत से ज्यादा वैल्थ का कंट्रोल है। और जो इनकम का कंट्रोल है वो तीन प्रतिशत के पास जो अभी आंकडे कह रहे हैं तीन-पैंतीस प्रतिशत है तो वो कम से कम 50 प्रतिशत पर उनका इनकम पर कंट्रोल है। तो एक तरफ रेट आफ ग्रोथ और दूसरी तरफ इनइक्वेलिटी बढ़ती जा रही है उसी तरह से यदि आप देखें तो सबसे ज्यादा शिक्षा का अभाव है वो हमारे यहां। हैल्थ की सिचुएशन है उसकी सबसे ज्यादा समस्या हमारे यहां है। उसी तरह होमलेसनैस, उसकी सबसे बड़ी समस्या हमारे यहां पर है तो हर स्तर पर आप देखंें तो आज इकोनामी में बड़े-बड़े कान्ट्रेडिक्शनस हैं। इम्पलाइमेंट जनरेशन का कांट्रेडिक्शन ये है कि आपने देखा कि रेलवे ने 90,000 नौकरियों के लिए विज्ञापन दिया और उसके लिए 2.3 करोड़ लोगों ने अप्लाई किया और उसमें इंजीनियर भी थे, उसमें एमबीए भी थे। उसी तरह से यूपी में आपने 2015 में देखा कि 360 नौकरियां निकली पिउन की और उसके लिए तैईस लाख लोगों ने अप्लाई किया और तैईस लाख लोगों में 380 पीएडडी थे। दो लाख बीटेक, एमटेक थे। दो लाख बीकाम, एमकाम थे। यानि कि आज देश में जाब की परेशानी क्या है। कि जाब जनरेशन बहुत बड़े लेवल पर खत्म होता जा रहा है। अब सरकार का प्रोमिस था कि हम दो करोड़ जाब क्रियेट करेंगे लेकिन आपरेशन अटैक कर रहा है तो अब उन्होंने आंकड़ों का खेल करना शुरू कर दिया।

Today technology is biggest destructor.

टैक्नोलाजी जो आ रही है वो रोजगार सृजन का जबरदस्त डिस्टरब कर रही है। तो उदाहरण के तौर पर देखिए आने वाले समय में जब ड्राइवरलैस कार आएंगी, ड्राइवरलैस ट्रक आएंगे तो इसके चलते ‘ऊबर‘ वगैरह तो एक्सपेरीमेंट कर ही रहे हैं कि कैसे टैक्सी बिना ड्राइवर के चलेंगी। तो मिलियन आफ जाबस जो ड्राइवर के हैं, ट्रक ड्राइवर के हैं, टैक्सी के हैं वो खत्म हो जाएंगे। उसी तरह से और जो तकनीकें आ रही हैं आर्टिफिशियल एंटेलीजेंश की तो उसमें स्पीच रेकगेनाइजेशन, पैटर्न रिकगेनाइजेशन आ रहा है इसके चलते हमारे जो काल सेंटर और बीपीओ चलते हैं वहां पर अमेरिका से किसी डाक्टर ने अपना प्रिस्क्रिपशन दिया और यहां पर डाक्टर ने अपना टाइप करके  वापिस कर दिया। अब कम्प्यूटर उसे स्पीच रिकोग्नेशन से उसको वहीं पर टाइप करके दे देगा तो बड़ी मात्रा में ये जो काल सेंटर और बीपीओ का जाब जो लौ वैल्यू वाला जाब है वो भी खत्म होने वाला है और उसी तरह से आप देखिए कि हर क्षेत्र में टैक्नोलाजी इसी तरह की आ रही है जो आटोमेशन की तरफ जा रही है। काल सेंटर और बीपीओ ये सब जो हमारे यहां बड़ी मात्रा में युवा लोगों को नौकरी दे रहे थे। दूसरा ट्रंप साहब ने पहले से ही कह दिया कि आप जाब अमेरिका में क्रियेट करिए तो इम्पोसिस और ये सारी कंपनियां जाब अमेरिका में ही क्रियेट कर रहे हैं बनस्पत कि उनको यहां से वहां भेजने का। तो आईटी सैक्टर में भी बहुत बड़ी मात्रा में ये लग रहा है कि जाब क्रियेट नहीं होंगे जो पिछले कई सालों से क्रियेट हो रहे थे। तो आने वाले समय में जो एजुकेटेड यूथ हैं उनमें बेरोजागारी का संकट बढ़ता चला जाएगा। तो जहां-जहां इनवेस्टमेंट हो रहा है वहां पर रोजगार का सर्जन नहीं हो रहा है। क्योंकि टैक्नोलाजी का बहुत बड़ा रोल है फिर आप देखेंगे कि काले धन की अर्थव्यवस्था का भी बहुत बड़ा रोल है रोजगार को नष्ट करने में। और काले धन की अर्थव्यवस्था बढ़ती चली जा रही है वजह क्या है कि काले धन की अर्थव्यवस्था से इकोनामी में इनएफीसियेंसी आ जाती हैं यानि कि उसको जैसे मैं उसके विस्तार में तो नहीं जाऊंगा क्योंकि मैंने कई बार इसमें बोला है पर काले धन की अर्थव्यवस्था को मैं करैक्टराइज्ड करता हूं उसका करैक्टराइजेशन है कि आप गड्ढे खोदिए और भरिए। काले धन की अर्थव्यवस्था जिसको मैं करैक्टराइज्ड करता हूं एज डिगिंग होल्स एडं फिलिंग होलस। तो काले धन की अर्थव्यवस्था की ज्यादातर जो एक्टिविटी होती हैं वो इस तरह की होती हैं कि आपने दिन में एक व्यक्ति को गड्ढा खोदने में लगा दिया और फिर रात को एक व्यक्ति को लगा दिया गड्ढा भरने के लिए तो अगले दिन जीरो प्रोडक्शन होगा लेकिन दो लोगों की आमदनी होगी। तो अर्थव्यवस्था में एक्टिविटी तो चल रही है लेकिन उसकी कोई प्रोडेक्टिविटी नहीं है। यानि कि जैसे उदाहरण के तौर पर देखिए कि आपने सड़क बनाई लेकिन उसमें कोलतार ठीक से नहीं डाला। बारिश आई और वो बह गई तो आप उसी सड़क को रिपेयर करते रहते हैं कि ना कि नई सड़क बनाते हैं। तो उसी तरह से पुलिस हफ्ता इक्ट्ठा करती है तो क्राइम बढ़ता रहता है वो ला और आर्डर को कंट्रोल करने के लिए नहीं है बल्कि वो क्राइम बढ़ाने के लिए है तो मैंने अपनी ब्लैक इकोनामी वाली किताब में जैसे हमारे एक रिलेटिव बम्बई के डीजीपी थे उनसे चर्चा की और यहां दिल्ली में इंस्पेक्टर जनरल उस समय हुआ करते थे आई जी उनसे चर्चा की तो उन्होंने बताया कि किस तरह से ये पैरलल सर्किट बन गया है तो पुलिस वाला जो है वो बीट कांस्टेबल वो लोकल कौन पिक पाकेट है, कौन क्रिमिनल है, कौन कहां पर इनक्रोच कर रहा है वो सब जानता है और हर एक से हफ्ता वसूल करता है उनको प्रोटेक्शन देता है। तो वो ला और आर्डर को कंट्रोल करने के लिए नहीं है। मेरा मानना है कि ब्लैक इकोनामी के चलते हुए भी जो रेट आफ ग्रोथ कम हुई है उसका सबसे ज्यादा असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ा है।

हमारे डेवलेपमेंट पैरामीटरस हैं उनपर जो असर पड़ा है उसका भी सबसे ज्यादा असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ा है तो आप देखिए जो असंगठित क्षेत्र है तो ये जो तीन शोकस् हैं उसके बाद कन्टिनूइंग फैक्टर है कि काले धन की अर्थव्यवस्था का, इनवेस्टमेंट पैटर्न का, टैक्नोलाजी का ये कनटीनुइंग फैक्टरस हैं तो ये सारा जो खेल है तो इससे हमारा असंगठित क्षेत्र और ज्यादा मार्जिनेलाइज्ड होता चला जा रहा है। अब सवाल उठता है कि इसके और समाज में क्या आयाम हैं जिन्हें हमें समझना चाहिए तो मेरा मानना है कि एक बहुत की अहम जो बात है कि आज एक समाज में फिलोसिफिकल चेंज आ गया है। जिसके चलते हुए जो हाशिए पर खड़ा व्यक्ति और ज्यादा हाशिए पर चला गया है और हमें उसका चिंता नहीं है। ये मेरा मानना है कि आज का जो वैश्वीकरण है वो सब उसकी वजह से हो रहा है। तो आज का जो वैश्वीकरण है वो एकतरफा वैश्वीकरण है। ये ढाई सौ साल पुराना है। सन् 1750 से चल रहा है और इसके अलग-अलग दौर रहे हैं। 1947 में जैसे हमें आजादी मिली तो उस समय भी हमने जो डेवलेपमेंट का माडल अपनाया वो था टाप डाउन अप्रोच। जैसे मैंने कहा कि आर्थर गलूज का जो माडल था वो था कि आप जो ऊपरी सतह है उसको ग्रो करिए जिसको हम डेवलेपड सैक्टर बोलते हैं जिसको फारमर सैक्टर बोलते हैं और वो जब बढ़ता जाएगा तो नीचे से ओबजरब होता चला जाएगा यानि कि टोप डाउन अप्रोच सही अप्रोच है तो इसको हमने अपनाया और ट्रिकल डाउन का आधार हमारी अर्थव्यवस्था की बढ़त का हुआ। ये ट्रिकल डाउन से अरओरगेनाइज्ड सैक्टर मार्जिनेलाइज्ड हुआ क्योंकि वो हाशिए पर था और हम कह रहे हैं कि टैक्नोलाजी का डेवलेपमेंट होगा, ऊपर से डेवलपमेंट होगा तो ये लोग ऊपर से नीचे आ जाएंगे लेकिन ऐसा हमारी अर्थव्यवस्था में हुआ नहीं तो ये माडल था जो ट्रिकल डाउन वाला वो यूरोप में सही था दो सौ साल पहले। वो इंडिया के लिए सही नहीं था क्योंकि उस समय यूरोप के पास इकोनामीज थी जितना भी सरप्लस लेबर होता था वो कालोनीज भेज देते थे। अमेरिका बढ़ रहा था सारा अमेरिका में एक्ट्रा लेबर चला गया उनके पास एक्सट्रा कैपिटल कालोनीज से आ गया हमारे पास तो एक्ट्रा कैपिटल कहीं से आने की गुंजाइश है नहीं और न ही हम लेबर को कहीं भेज सकते हैं तो जो माडल जो टैक्नोलाजी के डेवलेपमेंट का था आर्थर लुइए के माडल में जिसको हमने अपनाया वो माडल हमारे लिए सूटेबल नहीं था। अब जो भी समस्याएं हैं वो व्यक्तिगत हैं और उनको अपने आप उसको सुधारना पड़ेगा तो कैसे करेंगे तो उसका उत्तर है मार्केट जाकर। हर चीज में आप मार्केट में जाइए यदि आपको रोजगार चाहिए तो बाजार में जाइए। यदि आपको स्वास्थ्य चाहिए तो बाजार में जाइए यदि आपको शिक्षा चाहिए तो आप बाजार में जाइए। तो उसको मैं मानता हूं कि ये नया फेज़ है वन वे ग्लोबलाइजेशन का जिसको मैंने कहा है ये बाजारीकरण है। तो बाजार तो हर समय से थे यानि कि बार्टर भी जो है वो भी बाजार है। यदि मैंने जूता बनाया और किसी ने कपड़ा बनाया और किसी ने खेती करके खेती करके गेहूं पैदा किया तो वो बार्टर करके जो किया वो एक्सचेंज है। तो बाजार में एक्सचेंज होता है मैंने कुछ दिया उसके बदले में मुझे कुछ मिला। अब जब मोनिटाइज्ड हुआ तो उसे मैं पैसा देता हूं और उससे कुछ ले लेता हूं लेकिन है बाजार ही। अब बाजारीकरण क्या है? बाजार का मतलब है कि जो बाजार के प्रिंसिपल हैं वो सोशल इंस्टिट्यूशन में घर कर गए। तो बाजार के जो प्रिंसिपल हैं उनको हमें समझना बहुत जरूरी है तो ये जो मार्केटाइजेशन का प्रोसेस है ये हमारी अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे गहराता चला गया है मिड 70 से। जब से चीन ने आपने देखा होगा 180 डिग्री टर्न हुआ माओ के बाद तो वो भी उन्होंने बाजार का ही रास्ता अख्तियार किया। उन्होंने कैपटलिज्म का रास्ता अख्तियार किया। सोवियन यूनियन कमजोर पड़ता चला गया वो तीसरी दुनिया के देशों को हेल्प नहीं दे पा रहा था उस लेवल पर वो था। इसीलिए एस.पी. शुक्ला जी ने मुझे एक बार बताया कि 1982 में जब डब्लूटीओ के नेगोसिएशन चल रहे थे प्रोगो राउंड से पहले तो उन्हेांने कहा कि अमेरिकन ऐंबेसडर ने मुझे कहा कि अब हम आपके एग्रीकल्चर मार्केट को कैपचर कर लेंगे क्योंकि अब आपको बचाने वाला कोई नहीं है। अब सोवियन यूनियन से आपको मदद नहीं मिलेगी। चीन ने 180 डिग्री टर्न ले लिया है और दुनिया में जो आइडोलिजिकली फेज था वो बदल रहा था तो एग्रीकल्चर मार्केट में इंडिया और चीन का कैपचर करना चाह रहे थे और इसीलिए आपने देखा कि ……ऊरग्वे का 1987 का आया तो उसमें ट्रेड एन एग्रीकल्चर, ट्रेड इन सर्विसेस और इंट्रीकल प्रोपर्टी राइटस, इनवेस्टमेंट मेजरस, डब्लूटीओ का क्रियेशन। डिस्पयूट मैकेनिज्म ये सारे नए इश्यूज आ गये क्योंकि अब तो उनको पता था कि अब तो सोवियत यूनियन तीसरी दुुनिया के देशों को मदद नहीं कर पाएगा। तो जो रा कैपटलिज्म है वो अपने को ज्यादा दिखाता चला गया जो तब तक जब तक सोवियन यूनियन की मदद थी या चीन में था तब तक वो फेवर फार्म में था जिसे कहते हैं किड यार्ड ट्रीटमेंट लेकिन वो रा फार्म में था। तो 1990 के पहले एडवांस कंट्रीज बोलते थे कि हम एड देंगे तीसरी दुनिया के देशों में उसके बाद उन्होंने कहना शुरू किया कि अब कैपिटल को आपको एटरेक्ट करना पड़े कनसेशन देकर। तो अब कैपिटल मूवमेंट की तरफ बढ़े कि आप कैपिटल को कैसे अटरैक्ट करेंगे क्या कनसेशन देंगे मल्टीनैशनल को तो उसके आधार पर अब ये हो रहा है। तो मेरा मानना है कि ये जो बाजारीकरण का दौर है ये देश में बढ़ता चला गया लेकिन 1991 एक वाटरशेड है। तो 1991 में बाजारीकरण की जो नई आर्थिक नीतियां आईं उनमें ये क्लीयर हो गया कि अब इंडीविजुअल इज रिसपोंसिबल फोर हर प्रोबलम और हिज प्रोबलम और उसको मार्केट से जाकर मिलना पड़ेगा तो ये जो हम इसके प्रिंसिपल क्या हैं बाजारीकरण

 मेरा मानना है कि ये सारा जो मसला है शार्ट टर्मिज्म का और जो समाज से हम कट रहे हैं उसमें सबसे बुरा असर जो पड़ रहा है वो असंगठित क्षेत्र का पड़ रहा है। क्योंकि असंगठित क्षेत्र अपने आपको खुद से कोप नहीं कर पाएगा क्योंकि आज का जो इनवेस्टमेंट है जो जाब क्रिएशन का जो आज की मार्डन इकोनामी है वहां पर वो मार्जिनेलाइज्ड हो रहा है तो जो मार्जिनेलाइजेशन आ रहा है वो बाजार से भी आ रहा है, वो असंगठित क्षेत्र का है। जो इनवेस्टमेंट भी है जो टैक्नोलाजी भी है जो काले धन की अर्थव्यवस्था है तो ये सब मिलाकर जो मार्जिनल है उसको और मार्जिनल करता चला जा रहा है। तो सवाल ये उठता है कि करना क्या है तो वो हम सब लोग डिस्कस कर सकते हैं। वो हम सब आपस में डिस्कस कर लेते हैं।

(16 मई 2018 को गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में “साउथ एशियन डायलौग ऑन इकोलाजिकल डेमोक्रेसी” द्वारा आयोजित एक संवाद में प्रोफेसर अरुण कुमार द्वारा दिये गए व्याख्यान के कुछ अंश)

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