बाबूजी की संकल्प यात्रा 

सत्येंद्र प्रकाश*

सत्येंद्र प्रकाश इस वेब पत्रिका पर पिछले कुछ समय से निरंतर लिख रहे हैं और मानव मन की अतल गहराइयों को छू सकने की अपनी क्षमता से हमें अच्छे से वाक़िफ करवा चुके हैं।यहां प्रकाशितउनकी कुछ रचनाएंजैसे “और कल्लू राम को प्यारा हो गया”, “एक हरसिंगार दो कचनार“,  “तीन औरतें एक गांव की” और “टूर्नामेंट का वो आखिरी मैच” इत्यादि आप पढ़ ही चुके होंगे। इस बार का उनका लेख अपने पिता,  जिन्होंने अपने जीवन के 102 वर्षपूरे किये हैं,  के आध्यात्मिक पक्ष पर केंद्रित है और उनके पहले लेखों की ही तरह सूक्ष्म मन:स्थितियों की पड़ताल करता है।

अभी दो सप्ताह ही हुए हैं कि बाबूजी ने अपना 102वां  जन्मदिन हम सबके साथ मनाया। 102 वर्ष की आयु, शरीर ज़रूर कुछ क्षीण हुआ है पर मन मज़बूत है. – जैसा कि सदा ही रहा है।   अन्य दिनों की भाँति अपने जन्मदिवस 14 दिसम्बर 2023 को भी समय पर स्नान ध्यान, पूजा पाठ। बिल्कुल निर्विघ्न।  सामान्य दिनचर्या अभी भी ठीक वैसी ही जैसे 10  या 20  वर्ष पूर्व रही थी।   सुबह समय से जागना, शौचादि नित्य क्रिया से निवृत्त होना, स्नान के उपरांत ध्यान-पूजा,  फिर हल्का जलपान और उसके बाद लगभग ४५ मिनट टहलना। यह क्रम निर्बाध चलता रहा है। आज भी चल रहा है।

हाँ लगभग चार वर्ष पहले हुए एक हादसे ने इस क्रम में थोड़ा व्यवधान अवश्य डाल दिया है। हादसे से पूर्व बाबूजी का ज़्यादातर समय गाँव के खुले और स्वच्छ वातावरण में व्यतीत होता था, उन एक दो महीनों को छोड़कर जब वे हम दोनों भाइयों के परिवारों साथ बारी-बारी रहा करते थे। सुबह और शाम की उनकी सैर गाँव की खुली वादियों और हरे भरे खेतों के बीच होती या फिर बेटों के घरों के पास के पार्क में जब ये उनके वहाँ होते। पर उस हादसे में कूल्हे की हड्डी टूटने के कारण अब बेटों के साथ रहने की बाध्यता हो गई है और टहलने की क्रिया घर के अंदर उपलब्ध जगह में ही कर इन्हें संतोष करना पड़ रहा है।  

जीवन में चुनौती और संघर्ष के ऐसे कई पल और लम्हे आते हैं जो स्थिर चित और दृढ़ मन को भी विचलित कर दे किन्तु भगवत्कृपा और शिव की सत्ता में बाबू जी की आस्था सदैव अडिग रही। इसी अडिग आस्था ने जीवन में आए संघर्ष के हर पल को इनके दृढ़ संकल्प में परिवर्तित कर दिया। नहीं तो ९८ वर्ष की अवस्था में कूल्हे की हड्डी के टूटने और तकरीबन तीन माह बिस्तर पर पड़े रहने के बाद फिर से उठ खड़ा होना और अपनी दिनचर्या लगभग सामान्य कर लेना कभी संभव हो पाता क्या? इस उम्र में तीन माह बिस्तर पर पड़े रहने से मांसपेशियाँ प्रायः गलने लगती हैं, ऐसा चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना था। संत महात्माओं ने भी अंतिम घड़ी आ गई प्रतीत होती है,  ऐसी भविष्यवाणी कर इन्हें किसी मोक्षदायनी नगरी मसलन अयोध्या या काशीवास की सलाह दे डाली थी। ऐसे में बाबूजी का फिर से उठ खड़ा होना भगवत्कृपा ही तो है। ऐसी भगवत्कृपा इनपर कैसे रही है ये तो स्वयं भगवान ही जानते हैं। पर इनका जीवन इनके उस भगवत्कृपा के अधिकारी होने की खुली किताब है।   

102 वर्ष पूर्व 14 दिसम्बर 1921 को बिहार के तत्कालीन सारण ज़िले के सवनही-जगदीश गांव के निवासी पंडित श्री राम लखन पाण्डेय के घर एक बालक का जन्म होता है।। अपने से बड़े तीन और छोटे तीन भाइयों के बीच क्षीणकाय इस बालक की जीवन यात्रा कैसी होगी, इसकी चिंता इस बालक के सद्गृहस्थ  संत पिता को सदैव रही। उन्होनें भी शायद ही सोचा होगा कि उनके इस दुर्बल कृशकाय पुत्र की संघर्ष यात्रा वास्तव में एक अनुकरणीय संकल्प यात्रा भी सिद्ध होगी। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में गुलामी की बेड़ियों में जकड़े इस देश के गाँव दासत्व की त्रासद झेल रहे थे। उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम दोहन औपनिवेशिक अर्थ व्यवस्था का मूल मंत्र था। कभी सम्पन्न रहे किसान परिवार भी इस दोहन के शिकार होते रहे और उनकी  संपन्नता कब और कैसे विपन्नता में बदल गई इसका कारण भी इन परिवारों के समझ में नहीं आया। परिवार के अंदर और परिवार के सदस्यों में दोष ढूँढते परिवारों का टूटना विखरना आम हो चला था। “बाँटो और राज करो” की मंशा लिए तात्कालिक शासक एक तरफ ‘कान्वेन्ट’ और ‘पब्लिक’ स्कूल के माध्यम से पाश्चात्य सोच वाली आभिजात्य वर्ग की संरचना कर रहे थे, तो दूसरी तरफ गांवों में रहने वाले ‘आम जन’ बुनियादी शिक्षा को तरस रहे थे।

ऐसे सामाजिक और आर्थिक परिवेश में जन्मे भारतीय बच्चों को क्या ही शिक्षा नसीब होनी थी। घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित दूसरे गाँव के एक ‘मकतब’ से उस बालक की शिक्षा शुरु होती है। उसके एक बड़े भाई भी इसी मकतब से निकल मिडल स्कूल की पढ़ाई हथुआ राज के इडेन स्कूल में कर रहे थे। इन बच्चों के पास शिक्षा का कोई अन्य विकल्प नहीं था। भारत को आधुनिकता और विकास की राह पर ले जाने का दंभ भरने वाली ‘ब्रिटिश राज’ के लगभग डेढ़ सौ वर्षों के शासन के उपरांत भी शिक्षा की दशा और दिशा दयनीय थी।

इस बच्चे की गणित की समझ और स्वभाव की सरलता से मकतब के मौलवी साहब (शिक्षक) अत्यधिक प्रभावित थे। इस बालक पर उनके विशेष ध्यान का यह परिणाम था कि मकतब से निकलते समय यह बालक अंकगणित में पारंगत हो चुका था। हिन्दी और उर्दू की भी अच्छी समझ इस बालक ने मौलवी साहब के माध्यम से हासिल कर ली थी। इडेन स्कूल में नामांकन के पश्चात वहाँ के शिक्षकों का ध्यान आकृष्ट करने में इस बालक को तनिक भी देर नहीं लगी। अंकगणित में पारंगत इस बच्चे की अन्य विषयों में रुचि और उनकी समझ भी सामान्य से बेहतर थी। उस “अंधे युग” में मेधावी और तन्मयता से शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों के मिलने पर शिक्षकों को जो प्रसन्नता होती थी, उसका अंदाजा इस युग में मुश्किल है।

घर से लाए राशन से स्वयं खाना बनाकर इस बालक की पढ़ाई बदस्तूर चलती रही। बड़े भाई का अच्छे अंकों से हाई स्कूल कर महात्मा गाँधी के बुनियादी शिक्षण व्यवस्था से जुड़ जाना इस बालक की प्रेरणा बन गई। पढ़ाई निर्बाध चलती रही और कॉलेज की शिक्षा पूरी करने का संकल्प इस बालक के मन में दृढ़ होने लगा। बड़े भाई की नौकरी से आई परिवार की आर्थिक स्थिरता से इस बालक की उच्च शिक्षा के संकल्प को बल मिलना ही था। पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। अभी यह बालक अभी नवीं कक्षा में था कि परिवार में एक अप्रत्याशित घटना घटी और फिर इस बालक को भी हाई स्कूल के पश्चात नौकरी की शरण लेनी पड़ी। पहले कानपुर में एक अकाउन्टन्ट और उसके बाद बड़े भाई की तरह बुनियादी शिक्षण व्यवस्था में शिक्षक और प्रधानाध्यापक बन पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन अब इस बालक की नई नियति थी। छोटे भाई को स्नातक तक की शिक्षा पूरी करा किसी प्रशासनिक पद पर सुशोभित देखने का बड़े भाई का सपना अधूरा रह गया।

नौकरी में आने के बाद भी इस बालक की शिक्षा साधना विराम नहीं लेती। माँ शारदा सहाय रहीं और इस बालक का स्वाध्याय जारी रहा। इस बालक ने स्नातक ही नहीं, हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर की डिग्री एक निजी विद्यार्थी के रूप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्जित की। बिहार के बुनियादी शिक्षण व्यवस्था में एक शिक्षक के रूप में अपनी सेवा आरंभ कर कालांतर में यह बालक बिहार शिक्षा सेवा का एक राजपत्रित अधिकारी बन सेवा निवृत हुआ।

आप समझ ही गए होंगे कि ये बालक कोई और नहीं मेरे बाबूजी हैं। भौतिक जीवन की अनेक उपलब्धियों और अनुपलब्धियों से गुजरती बाबूजी की संकल्प यात्रा कई मायनों में काफी खास है। इस संकल्प यात्रा के उन खास पहलुओं की चर्चा बाबूजी द्वारा कही एक बात से ही शुरू हो तो बेहतर रहेगा। संदर्भ था उनके बच्चों के बीच आपसी सौहार्द्र और स्नेह पर चर्चा।  किसी ने प्रश्न किया आप बच्चों को ऐसे अच्छे संस्कार देने में कैसे सक्षम हो पाए? बाबूजी का सहज जबाब था, “बीज का संकल्प”। इस सार गर्भित उत्तर को समझना सहज नहीं था। आगे प्रश्न करने पर बाबूजी ने स्पष्ट किया। बरगद के छोटे बीज को पता नहीं होता है कि उसमें एक विशाल बरगद को जन्म देने का सामर्थ्य है। लेकिन अपने अस्तित्व को मिट्टी में मिला वही बीज बरगद के विशाल और दीर्घजीवी वृक्ष को जन्म देता है, उसके अस्तित्व का आधार बनता है। बाबूजी ने फिर बताया कि उस बीज की तरह उन्हें भी नहीं पता था। और उनका क्या हर मनुष्य का बालावस्था उस बीज की तरह ही जीवन रहस्य से अनभिज्ञ होता है। लेकिन बीज की तरह स्वबोध को लुप्त कर बरगद रूपी परम पिता परमेश्वर से जुड़ जाने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

बाबूजी से मैंने आध्यात्म पर कभी कोई भाषण नहीं सुना था या सुना है। उनसे बातचीत के क्रम में भी कभी ऐसा नहीं लगता कि उन्होनें जीवन के इस “बीज मंत्र” को स्वाध्याय या सत्संग से प्राप्त किया है। हाँ ईश्वर प्रदत भक्ति और समर्पण उनके जीवन का सार रहा है, ऐसा मैंने अनुभव किया है। आपस की बातचीत में भी वे अपने जीवन में आए कष्टों की चर्चा सामान्यतया नहीं करते। ऐसा उनका मानना रहा है कि इससे उनके इष्ट की चिंता बढ़ जाएगी। अपने इष्ट से तो उन्हें संघर्षों से जूझने के लिए अपने आत्मबल को अक्षुण्ण रखने की ही अपेक्षा रही है। मनुज तनधारी प्रभु श्री राम और भगवान श्री कृष्ण को भी तो मानव जीवन के तमाम संघर्षों का सामना करना पड़ा था। पूर्ण सामर्थ्यवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी स्वत्व को शिव (काल) और शक्ति में विलीन करने का उदाहरण ही हमारे सामने रखा है।

बाबूजी ने इस रहस्य को कब कैसे आत्मसात कर लिया शायद उन्हें भी ठीक से पता ना हो। परंतु शुद्ध अंतःकरण से अपने इष्ट और गुरु के स्मरण और उनमें अपने स्वत्व के विलय के मनोभाव से ही शायद बाबूजी के जीवन में यह गुत्थी सुलझती गई। कर्ता भाव का नाश कर्मों के बंधन से मुक्ति की राह है। तभी तो भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:
“चातुरवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।“
अर्थात मेरे द्वारा ही गुण और कर्मों के अनुरूप चार वर्णों की रचना हुई है, पर कर्ता भाव नहीं होने के कारण ही मैं इनके कर्मों में लिप्त नहीं हूँ, और इसीलिए मैं इनके कर्मों के बंधन से मुक्त हूँ। अगर मन में कर्ता भाव बना रहेगा तो “कर्मण्येवाधिरस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोअस्त्वकर्मणि” भी कहाँ संभव है। कर्ता भाव से अहं पुष्ट होता है। और अहं साथ में क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर (ईर्ष्या) भी लेकर आता है। ये जब संग हों तो ना तन स्वस्थ रहेगा ना मन। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है,
 “मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहू सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान  नेहरुआ।।
गोस्वामी जी इन मनोभावों को विभिन्न व्याधियों का मूल माना है और इन्हें मानस रोग कहा है।

बाबूजी की संकल्प यात्रा के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस के उद्धरणों को लाने का विशेष प्रयोजन है। हाई स्कूल के बाद परिस्थितजन्य समस्यायों के कारण नियमित उच्च शिक्षा और उच्च प्रशासनिक पद से वंचित होकर भी इन्होंने दूसरों में दोष नहीं ढूँढा। हरि इच्छा समझ उसे स्वीकार किया और कर्तव्य पथ पर बढ़ते रहे। उच्च प्रशासनिक पद से इतर नियति बाबूजी को शिक्षा सेवा से जोड़ती है। अहंकार रहित विनम्र व्यक्तित्व का सृजन ही निहितार्थ था। काम क्रोध मद मोह लोभ मत्सर आदि के संवरण का इससे बेहतर अवसर क्या ही होता। वैसे तो दुर्भाग्यवश कभी-कभी हममें से बहुत लोग अवसर मिलने पर भी अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या इत्यादि के त्याग के महत्व को नहीं समझ पाते और इन्हें ही जीने का साधन बना लेते हैं। सौभाग्यशाली रहे बाबूजी जिन पर उनके इष्ट और गुरु दोनों की कृपा रही  और इसलिए तो वह नियति के निहितार्थ को समझ पाए। जीवन में कई अवसर ऐसे भी आये जब बाबू जी के पौरुष के अर्जन और कृति का कर्ता कोई और लोग अपने को बताते रहे, तब भी इन्हें क्रोध नहीं आया बल्कि करुणा के सागर बाबूजी को ऐसे पात्रों के बढ़ते कर्ता भाव और अहं बोध पर चिंता ही हुई। आत्म मंथन की बजाय अपनी विफलताओं का दोष भी इनके मत्थे मढ़ने वाले कई हैं। क्रोध पर नियंत्रण और वाणी से भी किसी को आहत ना करने की इनकी साधना को लोगों ने इनकी दुर्बलता समझा है, यद्यपि शास्त्र यही कहते हैं कि क्रोध दुर्बल का अस्त्र है।

ईर्ष्या तो इन्हें छू तक नहीं पाई है। दूसरे की प्रगतिसे इन्हें वही सुख प्राप्त करते मैंने देखा है जो इन्हें अपनों की सफलता में मिलता है और या शायद उनके लिए कोई ‘दूसरा’ होता ही नहीं है जिसे हम ‘दूसरा’ सोच लेते हैं। ताउम्र बाबूजी का अनिष्ट सोचने और करने वालों की भलाई का जब भी सुयोग मिला, इन्होनें ईश्वर की कृपा समझ अनिष्ट करने वाले का भला ही किया। जिस हाल में रहे उसे हरि कृपा समझ सदैव कृतज्ञ रहे, ना कभी दोस्तों से शिकायत ना दुश्मनों से बैर। अधिक से अधिक पाने का ना कभी लोभ हुआ ना ही जो मिल गया उससे मोह। जंगल और पहाड़ों में साधना करनेवाले भी जल्दी इस मनोवस्था को नहीं पाते जो मैंने उनमें पाया है।  

102 वर्षों की इस लंबी संकल्प यात्रा की परिणति तभी तो एक चलायमान शरीर और शांत मन है। उम्र के इस पड़ाव पर भी कूल्हे की चोट के अतिरिक्त अन्य कोई शारीरिक रोग नहीं है।  मानस रोग से पूर्णतः मुक्त हैं तभी तो नियमित पूजा पाठ और मानस साधन आज भी बिना नागा चल पा रहा है। नमन है बाबूजी के इस संकल्प यात्रा को।

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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13 COMMENTS

  1. ऐसे सरल,सहज और सद्गृहस्थ चाचा जी का आशीर्वाद प्राप्त होता रहें, इसके लिए लम्बी उम्र की कामना करते हुए भगवान से प्रार्थना करता हूं।
    १०२वर्ष पश्चात संकल्प यात्रा लिखने हेतु धन्यवाद।

  2. ऐसे सरल,सहज और सद्गृहस्थ चाचा जी का आशीर्वाद प्राप्त होता रहें, इसके लिए लम्बी उम्र की कामना करते हुए भगवान से प्रार्थना करता हूं।
    १०२वर्ष पश्चात संकल्प यात्रा लिखने हेतु धन्यवाद।

  3. हमारे आदरणीय नाना जी के पारिवारिक सदस्य के रूप में ,हम अपने जीवन में उनके आशीर्वाद और उपस्थिति के लिए अत्यंत आभारी हैं। उनका जीवन और व्यक्तित्व हमेशा हम लोगों को प्रेरित करेगा। प्रणाम आपकी लेखनी को जो आपने नानाजी के विराट व्यक्तित्व को संक्षिप्त पर बहुत ही असरदार शब्दो में पिरोया।🙏🙏

  4. परिवार ऐसे मूर्धन्य और चमत्कारिक सदस्यों से सुशोभित है यह सोचकर ही मन गदगद रहता है। बीज मंत्र वर्षों पूर्व आपके माध्यम से ही सुना था। बाबा का चरित्र और उनकी यात्रा प्रेरणा की धार बनकर सिक्त करती है।

    जीवन की गर्मागर्मी में बाबा की संकल्प यात्रा ठंडा सुकून भरा ठहराव लगती है जिसकी इतनी सुंदर पुनरावृत्ति बारम्बार पठन पाठन का सामर्थ्य रखती है।

  5. आदरणीय चाचा जी का बिराट ब्यक्तित्व् है, उनके मंगलमय चिरायु होने की कामना करता हूँ.

  6. What a life, full of adventures, hard work and focused goals achieved with grace and pride. Such life is a role model to the younger generation like myself and definitely many others. During my next visit, I would like to meet him with some help & support from you. 🙏

    • Thanks for the nice words. God wiling. we’ll arrange for your visit to meet him. kind regards🙏

  7. सत्व और तत्व, दोनों पर एक साथ ऐसे अद्भुत नियंत्रण का संकल्प ना ही अब तक देखने को मिला है हम लोगों को और ना ही आगे की पीढ़ी में ऐसा कोई भाव दिखता है। धैर्य और अनुशासन से अपने जीवन को एक तपस्या में तब्दील करने का ही प्रतिफल है कि आज इस वटवृक्ष की चौथी पीढ़ी भी इनके स्नेह और आशीर्वाद रूपी छाया में पल्लवित-पुष्पित हो रही है। इस विशाल वटवृक्ष की शाखाएं और टहनियां होने का गर्व हम सभी को है।
    नाना जी की संकल्प यात्रा को जिस खूबसूरती के साथ शब्दों में पिरोया गया है, वो वही व्यक्ति कर सकता है जिसने उनको आत्मसात किया हो या आत्मसात करने की दिशा में कुछ दूर चला हो। सिर्फ़ उनको जानने या समझने वाले नहीं।

    ईश्वर इस वटवृक्ष की छाया और आपकी लेखनी यूँ ही बनाए रखें, ऐसी कामना है।

  8. पिता को याद करना एक महती कार्य है, वो भी खास कर तब जब वो एक सुदीर्घ जीवन ले कर साथ हो, सतत आशीर्वाद दे रहे हों. यह लेख एक पुत्र का उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का एक साधारण प्रयास भर है. साधारण इसलिए कि इतने लंबे संघर्षमय जीवन को सभी अर्थों में, सभी आयामों को रेखांकित कर समेट पाने के लिए ऐसे ऐसे कई लेख लगेंगे. आपकी लेखनी इसी तरह प्रवाहमान बनी रहे ताकि हमें ऐसे विचारों से संवाद करने का मौका मिलता रहे यही कामना है..

  9. 102 वर्षों की लंबी संकल्प यात्रा का चित्रण जिस प्रकार इस रचना में किया गया है वह उस महान व्यक्तित्व की निश्छलता, प्रेम व उदार स्वभाव को दर्शाता है। इतने लंबे वर्षों का अपार अनुभव जिसमें संघर्ष के साथ-साथ जीवन के उतार-चढ़ाव का अनंत ज्ञान समायोजित है, वास्तव में सुखद रूप से अचंभित कर देने वाला है। इस विशाल अनुभव का कुछ पैराग्राफ में ही बड़े रोचक तरीके समेकित करने का प्रयास जिस प्रकार लेखक ने किया है वह अत्यंत ही प्रशंसनीय है। किन्तु मेरा अनुरोध यह रहेगा कि इस महान व्यक्तित्व पर कुछ और लिखा जाए ताकि आज की इस नई पीढ़ी को भी उन विशाल अनुभवों से ज्ञान रूपी कुछ ऊर्जा मिल सके।

  10. दुर्लभ चरित्र के देव पुरुष .
    इनके दर्शन मात्र से जीवन सार्थक हो जाता है.
    नमन -वंदन.
    आपका अत्यंत आभार.

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