सब सद्गुणों की नायक है निर्भयता

मुम्बई में एक गैर-सरकारी प्रतिष्ठान है ‘कवेस्ट फ़ाउंडेशन’ (Quest Foundation) – यह संस्था जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर द्वारा बताए गए मार्ग के अनुसार सेवा और साधना जैसे दो उदात्त आध्यात्मिक सिद्धांतों पर चलने का प्रयास करती है। प्रतिष्ठान की वैबसाइट के अनुसार पिछले सात वर्षों में इन्होंने 65 करोड़ रुपए सामाजिक उत्थान के विविध कार्यों में लगाए हैं। यह संस्था एक द्वैमासिक पत्रिका ‘प्रेरणा’ (पूरा नाम मा स्वामिनी प्रेरणा) का प्रकाशन भी करती है जिसमें किसी एक चुने गए विषय पर तीन भाषाओं (गुजराती-हिन्दी-इंगलिश) में लेख प्रकाशित होते हैं। पत्रिका के जुलाई-अगस्त अंक के लिए विषय था ‘निर्भरता और निडरता’! इस वेब पत्रिका के संयोजक का लेख भी इस विषय पर आमंत्रित था – वहाँ प्रकाशित होने के उपरांत उसी लेख को हम वेब-पत्रिका के पाठकों के लिए यहाँ भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘निडरता और निर्भयता’ – जब इस विषय पर लिखने का आदेश मुझे मिला तो सबसे पहले मुझे दशकों पहले पढ़ा संत विनोबा के एक लेख की याद आई जिसका मंतव्य कुछ इस प्रकार था – निर्भय कौन है? निर्भय वह नहीं जो किसी से नहीं डरता। यह तो निर्भय होने की केवल पहली शर्त हुई। वास्तव में तो निर्भय वह होता है जो ना किसी से डरे और ना ही किसी को वह डराए या भयभीत करे। उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए बताया कि शेर जंगल का सबसे शक्तिशाली जानवर होता है लेकिन वह निर्भय होने की दूसरी महत्वपूर्ण शर्त पूरी नहीं करता क्योंकि गाय (अर्थात अन्य जानवर) उससे डरती है। विनोबा जी की उस बात ने मेरे तरुण मन पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे यह हमेशा स्मरण रही। इस लेख को लिखने से पहले मैंने संदर्भ देने के आशय से अपने पास उपलब्ध विनोबा जी की पुस्तकों में इस कथन को ढूँढने का प्रयास किया किन्तु फिर इस प्रयास को बाद के लिए छोड़ दिया क्योंकि लेख भेजने की समय-सीमा समाप्त हो रही थी।

भगवान महावीर का अभय का सिद्धान्त भी यही था। उन्होंने अहिंसा का सिद्धान्त तो दिया ही किन्तु उससे भी आगे बढ़कर महावीर ने अभय का प्रतिपादन किया। उनका कहना था कि भयमुक्त रहो, अभय रहो क्योंकि जो अभय होगा, वही अहिंसा का पालन कर सकेगा। निर्भयता को साधे बिना अहिंसा को साधना संभव ही नहीं। यदि कोई व्यक्ति डरा हुआ हो तो उसके लिए अहिंसा का पालन करना संभव ही नहीं क्योंकि वह स्वयं अहिंसक है किन्तु उसे दूसरे द्वारा हिंसा का भय है। ऐसे में वह अहिंसा का पालन मन, कर्म और वाचन से नहीं कर सकता। भगवान महावीर का अहिंसा का सूत्र यही था कि डरो मत – किसी से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं – ना किसी व्यक्ति से और ना ही बुढ़ापा, बीमारी या मृत्यु जैसी किसी प्रवृत्ति से!

यदि कोई भयभीत है तो वह कभी भी उत्साह एवं संभावनाओं से परिपूर्ण नहीं हो सकता अर्थात सिर्फ एक व्यक्ति के नहीं बल्कि समाज की प्रगति के रास्ते बंद हो जाने की आशंका हो जाती है। भयभीत व्यक्ति तो विवेकहीन हो जाता है और अहिंसा तो क्या वह किसी भी सद्गुण को ठीक प्रकार से नहीं अपना सकता। यहाँ यह महत्वपूर्ण बात है कि भगवान महावीर और उनके बाद आने वाले भगवान बुद्ध के युग में भी इन दोनों ने निर्भीक होकर अपने उपदेश दिये और तब की राज्य-सत्‍ताओं से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली अपने उपदेशों का एक समानान्तर साम्राज्य खड़ा किया। जैन और बुद्ध धर्म कई मायनों में तत्कालीन राज्यों से अधिक प्रभावी थे और आमजन में उनकी मान्यता उस समय के सम्राटों और राजाओं से कहीं अधिक थी। यह उनकी निर्भयता का ही चमत्कार था कि भगवान महावीर और बुद्ध के नाम आज भी लोगों के हृदय-पटल पर इतने गहरे अंकित हैं कि उन्हें कभी भी मिटाया नहीं जा सकता।

अपनी शिक्षाओं में संत पुरुष बार-बार ये ज़ोर देते रहे हैं कि अहिंसा किसी असहाय या कमजोर व्यक्ति का रणनीतिक औज़ार नहीं है बल्कि वह तो निर्भीक व्यक्ति का सहज स्वभाव है। अब अगर पश्चिमी दुनिया के दो युग पुरुषों के नाम लें तो आप पाएंगे कि सुकरात और ईसा मसीह दोनों ने अपने प्राण त्यागने में एक क्षण की भी देरी नहीं की और मृत्यु दंड को स्वीकार कर लिया। दोनों के पास यह विकल्प था कि वह सच्चाई का रास्ता त्याग कर अपने प्रताड़णा देने वालों की बात मान जाते तो उन्हें ना केवल प्राण-दान मिलता बल्कि सत्ता की ओर से मिलने वाली तमाम सुख-सुविधाएं मिलतीं किन्तु दोनों निर्भीकता से अपने अपने सत्य पर डटे रहे।

महात्मा गांधी भी यह ज़ोर देते थे कि अहिंसक सत्याग्रह में केवल वही शामिल हों जो अपने स्वभाव और कर्म में अहिंसा को पूर्णरूपेण साध चुके हों। पूर्व में मिले ज्ञान के आधार पर ही गांधी बार-बार यह दोहराते रहे कि अहिंसा को व्यवहार में लाने वाले को अपनी सोच में भी पूरी तरह से इसको समरस करना होता है।

गीता में इस विषय को बहुत सुंदर ढंग से समझाया गया है और विद्वानों का मानना है कि यदि गीता को समझना हो तो विनोबा से बेहतर आचार्य कम ही मिलेंगे।

अपनी पुस्तक ‘गीता-प्रवचन’ में विनोबा अभय या निर्भयता की चर्चा गीता का सोलहवां अध्याय समझाते हुए करते हैं। वैसे तो इस अध्याय की विषयवस्तु काफी विस्तृत है किन्तु हम अपने को निर्भयता तक सीमित करते हैं। यहाँ अभय की चर्चा कुछ इस प्रकार है – “हमारे अंत:-करण में एक ओर सद्गुण, तो दूसरी ओर दुर्गुण खड़े हैं। यहाँ सद्गुणों ने अपना एक सेनापति बना रखा है। उसका नाम है ‘अभय’! इस अध्याय में अभय को पहला स्थान दिया गया है। यह कोई आकस्मिक बात नहीं है। जान-बूझ कर ही इस ‘अभय’ शब्द को पहला स्थान दिया गया होगा।“ इसी अध्याय की सुगम शब्दों में व्याख्या करते हुए विनोबा ज़ोर देकर लिखते हैं कि बिना अभय के तो कोई गुण पनप नहीं सकता। वह लिखते हैं, “सच्चाई के बिना सद्गुण का कोई मूल्य नहीं है और सच्चाई के लिए अनिवार्य है निर्भयता। भयभीत वातावरण में सद्गुण फैल नहीं सकते, बल्कि ऐसे में तो सद्गुण भी दुर्गुण बन जाएंगे, सत्य प्रवृत्तियाँ भी कमजोर पड़ जाएंगी। निर्भयत्व सब सदगुणों का नायक है।“

अब हम निर्भयत्व को अगर आज की परिस्थितियों पर आरोपित करें तो हम पाएंगे कि आज तो ऐसा लगता है मानो पूरी दुनिया एक दूसरे से डरी हुई भाग रही है। चारों ओर नफरत और विद्वेष का साम्राज्य पूरे विश्व में जैसे बढ़ता जा रहा है। विभिन्न धर्मावलम्बी एक दूसरे के खिलाफ जहर उगल रहे हैं। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है। यदि निर्भीक की सही परिभाषा (जो हमने इस लेख में पढ़ी है) के अनुसार ढूंढा जाये तो हमें पूरी दुनिया में निर्भीक नेता मिलना मुश्किल हो जाएगा। सिर्फ इतना ही नहीं, हम ये भी जानते हैं कि विश्व की बहुसंख्य जनता के सामने शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव जैसे जटिल प्रश्नों के अलावा आने वाले कुछ ही वर्षों में जलवायु परिवर्तन से होने वाले दूरगामी परिवर्तनों से निपटने के लिए कोई ऐसी कार्य-योजना नहीं बनी है, जिसके सहारे मानवता आश्वस्त महसूस कर सके। कहाँ से आएंगे ऐसे ‘निर्भीक’ नायक जो समाज, देश और विश्व को दिशा दे सकेंगे? इस प्रश्न पर गहन विचार की आवश्यकता है।

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….. विद्या भूषण


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