राहुल गांधी की चेतावनी

आज की बात

राहुल गांधी ने अपना इस्तीफा देते हुए अपना जो त्याग-पत्र जारी किया है, उसके कुछ हिस्से बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर चर्चा ज़रूरी है क्योंकि अगर राहुल द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं का कुछ भी आधार है तो फिर उनका हमारे लोकतन्त्र पर दूरगामी प्रभाव होगा। हम पक्के तौर पर तो नहीं कह सकते लेकिन इस बात की संभावना काफी कम है कि ‘गोदी मीडिया’ के तौर पर अपनी पहचान बना चुके हमारे टीवी चैनलों में से किसी ने भी राहुल गांधी के त्याग-पत्र के उस हिस्से की चर्चा अपने प्राइम-टाइम में की हो जिसे हम राहुल गांधी द्वारा दी गई चेतावनी के तौर पर देख रहे हैं।

त्यागपत्र के अंतिम हिस्से में आप यह पैरा पढ़ेंगे तो आपको अंदाज़ हो जाएगा कि राहुल आजकल की परिस्थितियों को एक सामान्य राजनीतिक परिस्थिति के तौर पर नहीं देख रहे। पहले अंग्रेज़ी में ही देखिये।

The stated objectives of the RSS, the capture of our country’s institutional structure, is now complete. Our democracy has been fundamentally weakened. There is a real danger that from now on, elections will go from being a determinant of India’s future to a mere ritual. 

राहुल इस त्यागपत्र में कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के लोकतान्त्रिक संस्थानों पर कब्जा करने की अपनी योजना पूरी कर ली है। इस तरह हमारा लोकतन्त्र अब जड़ से ही कमजोर कर दिया गया है। राहुल चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अब यह खतरा है कि अब जो चुनाव होंगे, वो देश के भविष्य को तय करने वाले नहीं बल्कि मात्र एक औपचारिकता होंगे।

त्यागपत्र में उपरोक्त बात के पहले वह यह भी कहते हैं कि देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष हों, इसके लिए ज़रूरी है कि देश के लोकतान्त्रिक संस्थान निष्पक्ष ढंग से काम करने की स्थिति में हों जैसे एक स्वतंत्र प्रेस, एक निष्पक्ष न्यायपालिका और एक ऐसा चुनाव आयोग जिसके निर्णय पारदर्शी हों। वैसे भी ऐसा चुनाव निष्पक्ष कैसे कहा जा सकता है जहां सारे आर्थिक संसाधनों पर एक ही राजनैतिक दल का कब्जा हो। राहुल कहते नहीं लेकिन ये स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें चुनाव के दौरान प्रेस, न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की तटस्थता पर भरोसा नहीं था।

राहुल आगे लिखते हैं, हमने 2019 में सिर्फ एक राजनैतिक दल के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ा बल्कि इस चुनाव में हमें सारी सरकारी मशीनरी, और राज्यतंत्र के हर संस्थान के खिलाफ लड़ना पड़ा क्योंकि उन्हें विरोधी दलों से लड़ने के लिए इकट्ठा कर लिया गया था। अब यह स्पष्ट हो गया है कि वह समय गया जब हमें अपने लोकतांत्रिक संस्थानों की तटस्थता पर गर्व था।  

आपको राहुल गांधी के त्यागपत्र के इन हिस्सों को पढ़वाने का तात्पर्य ये है कि जब देश के सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता ये कह रहा है कि हमारा लोकतन्त्र अब जड़ से ही कमजोर कर दिया गया है, या फिर वह इशारा कर रहा है कि हाल के चुनावों में विपक्षी दलों को सिर्फ भाजपा के खिलाफ नहीं बल्कि पूरे राज्यतंत्र के खिलाफ चुनाव लड़ना पड़ा तो फिर हम इसे एक हारे हुए असफल नेता का प्रलाप मानकर उपेक्षा नहीं कर सकते।राहुल गांधी द्वारा कही गई इन बातों को चेतावनी के तौर पर लेने की जरूरत है।

उन्होंने अपने त्यागपत्र में ये चेतावनी भी दी है कि आने वाले दिन देश के लिए बहुत ही कठिन रहने वाले हैं, खास तौर पर देश के किसानों के लिए, बेरोजगार युवकों के लिए, दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए! इस स्तंभकार की दुआ है कि राहुल गांधी की ये आशंका गलत साबित हो लेकिन फिर जब पिछले पाँच वर्षों में हुई राजनीतिक घटनाओं पर ध्यान जाता है और जब आजकल रोजाना ये खबरें पढ़ने को मिल रही हैं कि देश में इकनॉमिक स्लो-डाउन शुरू हो चुका है और अभी जल्द ही अर्थव्यवस्था में सुधार की ज़्यादा गुंजाइश नहीं है तो एकबारगी ये लगने लगता है कि कहीं ये सब सच होने तो नहीं जा रहा!

हालांकि इस स्तंभकार को ये स्पष्ट नहीं है कि क्या राहुल गांधी और उनका परिवार इन खतरों से निपटने के लिए कुछ सक्रिय तौर पर करेगा या एक किनारे खड़े होकर चुपचाप इंतज़ार करेगा कि कॉंग्रेस कब अपने को पुनरसंगठित करके इन चुनौतियों का मुक़ाबला करेगी। जैसा कि हमने पहले भी इस वैबसाइट पर लिखा है, जरूरत है कि कॉंग्रेस कुछ ऐसा करे कि सत्ता का मोह छोडकर सीधे सीधे जनता से जुडने के कार्यक्रम बनाए जैसे कि स्वतन्त्रता संग्राम में गांधी जी रचनात्मक कार्यक्रम चलाया करते थे।

अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि देश का विपक्ष आखिर क्या सोच रहा है? फिलहाल तो हताश और किंकर्तव्यमूढ़ नज़र आ रहा है जिसे कुछ भी सूझ नहीं रहा है। कुछ लोगों को तो राहुल गांधी का इस्तीफा भी इसी हताशा का नतीजा नज़र आ रहा है और उनका मानना है कि इस इस्तीफे से कुछ बदलने वाला नहीं है। क्या योगेन्द्र यादव सही कह रहे हैं कि कॉंग्रेस को अब मर जाना चाहिए ताकि वैकल्पिक विपक्ष की राजनीति का निर्माण हो सके? इस स्तंभकार ने तो इस वैबसाइट पर एक लेख लिख कर उनकी इस प्रस्थापना का कड़ा विरोध किया था लेकिन क्या अब वैकल्पिक राजनीति ही एकमात्र उपाय है? देश भर में चल रहे आंदोलन समूहों की ऊर्जा का इस्तेमाल कभी भी चुनावों के दौरान नहीं हुआ। विपक्ष के निकम्मेपन के चलते शायद अब गैर-राजनीतिक आंदोलन समूहों की सक्रियता पर ज़्यादा भरोसा करना होगा।

कॉंग्रेस और विपक्षी दलों को यदि देश में वापिस लोकतान्त्रिक मूल्यों की वापसी करनी है, अगर उन्हें ये सुनिश्चित करना है कि देश बहुसंख्यकवाद का वर्चस्व स्थापित करने के लालच में पाकिस्तान की तरह हिंसा से भरा हुआ समाज ना हो जाए तो उन्हें कौमी एकता के काम में लगना होगा। फिलहाल उन्हें ये चिंता छोडनी होगी कि कहीं बहुसंख्यक समाज उनसे नाराज़ ना हो जाये। उन्हें अल्पसंख्यकों और दलितों के खिलाफ यदि कहीं अन्याय या ज़्यादती होती दिखती है तो उन्हें अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी।

ऐसा लगता है कि देश के राजनीतिज्ञों (जिनसे अब लगातार उम्मीद कम होती जा रही है) के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने और पढ़ाने वाले छात्रों और प्रोफेसरों, साहित्य, कला और सामाजिक कार्यों से जुड़े सक्रियकर्मियों को आगे आना चाहिए और उन्हें खुलकर ये आवाज़ उठानी होगी कि संविधान सर्वोपरि है और हमें देश संविधान की मूल भावना के अनुरूप चलाना चाहिए।

विद्या भूषण अरोरा

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