क्या गुल खिलाएगी मतदाताओं की खामोशी !

राजकेश्वर सिंह*

लोकसभा चुनाव के पहले चरण में हुआ फीका मतदान कुछ ज्यादा चौकाने वाला नहीं है। यह आशंका तो पहले से ही थी, क्योंकि चुनाव आयोग और सरकारी मशीनरी की सारी कोशिशों के बावजूद मतदाताओं में इस बार लोकसभा चुनाव को लेकर पिछले दो चुनावों 2014 और 2019 जैसा उत्साह नहीं दिख रहा है। जमीनी स्तर, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों पर नजर डालें तो मतदाताओं में किसी सरकार को हटाने या बनाने को लेकर खास उत्साह नहीं है और उसकी पहले चरण के मतदान में दिखी उसकी इसी खामोशी ने राजनीतिक दलों के माथे पर बल ला दिया है। राजनीतिक पंडित भी इन स्थितियों को देखकर आने वाले नतीजों को लेकर अपने-अपने तरीके से कयास लगा रहे हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि यदि पूरे चुनाव के दौरान मतदाताओं का रुख ऐसा ही बना रहा तो क्या यह केंद्र की मौजूदा सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है ? या फिर इस खामोशी और उदासीनता के बावजूद देश का मतदाता मौजूदा सत्ता को इस बार वाकई चार सौ (लोकसभा सीटें) पार करा देगा ?

दरअसल, इस स्थिति पर विचार करना इसलिए जरूरी लगता है कि चुनाव के पहले चरण में 21 राज्यों की जिन 102 लोकसभा सीटों पर चुनाव हुआ, उसमें से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, असम, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, पुद्दुचेरी और लक्षद्वीप में 2019 के मुक़ाबले में मतदान का प्रतिशत कम रहा है, जबकि तमिलनाडु की सभी 39 लोकसभा सीटों पर 69.45 प्रतिशत और मध्य प्रदेश की छह सीटों पर 67.8 प्रतिशत मतदान हुआ है। इन दोनों राज्यों में 2019 के लोकसभा चुनाव में पहले चरण में मतदान नहीं हुआ था, लिहाजा उनकी तुलना नहीं की जा सकती। बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश काफी अहम है और वहां भाजपा ज्यादा मजबूत है। 2019 में यूपी में भाजपा 80 में से 62 सीटें जीत गई थी और 49.56 प्रतिशत मत मिले थे। राज्य में इस बार पहले चरण में लोकसभा की आठ सीटों पर हुए चुनाव में मतदान का प्रतिशत 60.25 रहा है, जबकि 2019 में यह 63.88 प्रतिशत था।

इसी तरह भाजपा 2019 में उत्तराखंड की सभी पांच लोकसभा पर जीत दर्ज की थी। पिछली बार वहां 63.88 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो इस बार घटकर 60.25 प्रतिशत पर आ गया है। गौर करने की बात है कि आखिर मतदाताओं का यह रुख क्यों बना ? वह भी तब, जब इस चुनाव के लिए भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ पूरी कोशिश के बाद भी विपक्ष बहुत चाहकर उस तरह एकजुट नहीं हो पाया, जैसा वह चाहता था। स्थिति यहां तक पहुंची कि मोदी ने विपक्षी एकता के सूत्रधार नीतीश कुमार ही नहीं, बल्कि दूसरे दलों के ढेर सारे नेताओं को भी तोड़कर अपने पाले में कर लिया। चुनाव के मौके पर ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को शराब घोटाले के आरोप में जेल जाना पड़ा, जबकि उससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी जेल जा चुके हैं।

इस बीच, राजनीतिक दलों को इलेक्ट्रोरल बॉण्ड के जरिए मिलने वाला चुनावी चंदे का मामला भी सामने आ चुका है। सर्वोच्च अदालत उसे असंवैधानिक घोषित कर चुकी है और एसबीआई की आनाकानी के बाद भी उसकी सच्चाई सामने आ चुकी है कि किन कंपनियों ने राजनीतिक दलों को कितना चुनावी चंदा दिया। उसको लेकर एक बड़ा सवाल अब भी अनुत्तरित है कि केंद्रीय जांच एजेंसियों ने जिन कंपनियों में गड़बड़ी की शिकायतों पर छापेमारी की, उनमें से ज़्यादातर कंपनियों ने उन कार्रवाइयों के बाद इलेक्ट्रोरल बॉण्ड के जरिए भाजपा को चुनावी चंदा दिया और किसी न किसी रूप में राहत की सांस ली। बीते वर्षों में ऐसे ही कई मामले घपले-घोटालों में शामिल रहे दागदार दामन कई नेताओं को लेकर भी सामने आए हैं। भाजपा जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही, वहीं नेता बाद में भाजपा में शामिल हो गए। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से उन मामलों में भी कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।

इसी तरह देश में मुख्यधारा का मीडिया भी इस बात को लेकर सवालों के घेरे में है कि वह बीते वर्षों में सरकार के बजाय विपक्ष से ही सारे सवाल क्यों पूछ रहा है? कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया की भूमिका को लेकर भी जनता के बीच एक तरह का गलत संदेश गया है, फिर भी वह अपनी ही चाल-ढाल पर डटा हुआ है। चुनाव के ऐन मौके पर भी न्यूज चैनलों पर ज़्यादातर सतारुढ़ दलों के नेताओं के इंटरव्यू चल रहे हैं, उसमें भी विपक्षी नेताओं के लिए बमुश्किल ही गुंजाइश दिखती है, लेकिन देश की इन राजनीतिक स्थितियों के देखने-समझने के बावजूद आम जनता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है, अलबता वह सब कुछ खामोशी से देख रही है। हां, इससे इतर अपवाद स्वरूप जमीन पर कहीं-कहीं कुछ पत्रकारों और नेताओं को जनता के कोपभजन का शिकार होने की छुटपुट घटनाएं जरूर हुई हैं।

इसके अलावा एक और पहलू गौरतलब है। चुनाव के इस मौके पर 2013 और 2014 की उस स्थिति को याद किया जा सकता है, जब केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संप्रग सरकार थी। उस सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन बहुत प्रभावी ढंग से चला था। मनमोहन सरकार पर टू-जी, कोल और कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे आरोप इस तरह चस्पा थे कि मानों वह सरकार सिर्फ घोटाले ही करती थी। तब उस माहौल में मोदी की अगुवाई में मुख्य विपक्षी भाजपा ने ऐसा माहौल बनाया था कि मोदी के आने से सब कुछ ठीक होगा। जनता ने उस पर भरोसा किया और भाजपा की अगुवाई वाला राजग सत्ता में आ गया। इसी तरह 2019 के चुनाव के पहले केंद्र सरकार के पाकिस्तान से निपटने की कोशिशों ने उसको और बुलंदी पर पहुंचा दिया। तब 26 फरवरी 2019 को पाकिस्तान में घुसकर बलकोट एयर स्ट्राइक की थी और पुलवामा में शहीद हुए अपने 40 जवानों की शहादत का बदला लिया था। उसके बाद हुए चुनाव में भाजपा ने 2014 से भी बड़ी जीत हासिल की। इसके साथ ही सरकार ने कोरोना में 80 करोड़ गरीब लोगों को हर महीने पांच किलो मुफ्त राशन दिया, जिसकी मियाद अब पांच साल के लिए और बढ़ा दी गई है। इस तरह देखें तो बीते दस वर्षों में भाजपा अपनी राजनीति और किसे हद तक कामकाज की वजह से सफल रही है, लेकिन अब उसके सामने फिर परीक्षा की घड़ी है।

भाजपा को इस बात का जवाब देना होगा कि सरकार की ओर से हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देने के वादे का क्या हुआ? वह भी तब, जब बीते 48 साल में बेरोजगारी चरम है। रोजगार के अवसर कम हुए हैं। मैन्यूफैक्चररिंग सेक्टर में सुधार के बाद भी वहां अब भी रोजगार कम पैदा हो रहे हैं। सरकार की ओर से किसानों की आय दोगुनी करने के वादे का क्या हुआ ? क्या किसानों को उनकी फसल पर एमएसपी की गारंटी मिल गई? क्या सरकार ने डॉलर के मुक़ाबले रुपये की स्थिति को सुधार दिया ? सांप्रदायिक सौहार्द्र पहले से ज्यादा बिगड़ा है या उसमें सुधार हुआ है? महंगाई की स्थिति पहले से बदतर हुई या उसमें सुधार हुआ है। पेट्रोल-डीजल की कीमतें पहले से कम हुई हैं। हालत पर नजर डालें तो नहीं लगता कि चीजें बेहतर हुई हैं। ऐसे में हो सकता है कि जनता भले ही मुखर न हो, लेकिन ये सवाल उसे मथ रहे हों और चुनाव में उसकी खामोशी मत प्रतिशत में गिरावट के रूप में सामने आ रही हो। चुनावी  नतीजे जो भी हों, लेकिन सत्ता पर काबिज दलों के लिए संकेत तो अच्छे नहीं ही दिख रहे हैं।

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से कुछ  आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

बैनर इमेज : चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाईट से साभार

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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