राजेंद्र भट्ट*
शहीद भगत सिंह की जयन्ती (28 सितंबर) के उपलक्ष्य में एक लेख
भगत सिंह के वैचारिक पक्ष पर विपुल सामग्री उपलब्ध है। वह हर घटना, हर व्यक्ति को पूरी निष्पक्षता के साथ, वैज्ञानिक-विवेकपूर्ण प्रक्रिया से आँकते हैं। लेकिन उनके साथ अनूठी बात यह है कि बाहर के व्यक्तियों-घटनाओं के आकलन से पहले, वह उसी निर्ममता और निस्पृहता के साथ, खुद को भी रेशा-रेशा जांचते हैं, प्रखर आलोचना की कसौटी पर कसते हैं कि कहीं उनके निष्कर्ष अपने ही पूर्वाग्रह, भावुकता, अक्षमता या अहंकार से तो नहीं उपजे हैं। इस पक्ष पर खुद को और पाठक को संतुष्ट करने के बाद ही, वह किसी विश्लेषण पर आगे बढ़ते हैं। इस लेख में, भगत सिंह के इस अनुपम विचार-पक्ष से जुड़े कुछ प्रसंगों का जिक्र किया गया है।
मैं नास्तिक क्यों हूँ
सबसे पहले, भगत सिंह का लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ को देखें। यह लेख 5-6 अक्तूबर 1930 का लिखा माना जाता है, यानि शहादत से करीब 6 महीने पहले। आसन्न मृत्यु से पहले, बड़े-बड़े विचारक ‘परलोक’ के डर से ‘आस्तिक’ हो जाते हैं लेकिन भगत सिंह की वैचारिक दृढ़ता और कसे हुए तर्क-प्रवाह का यह लेख अनुपम उदाहरण है। ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हुए भगत सिंह यह प्रस्थापना देते हैं कि ईश्वर एक साथ – सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी और दयालु नहीं हो सकता। लेकिन जो बात तरुण भगत सिंह को अन्य विचारकों से अलग करती है, वह है अपने आपका निर्मम विश्लेषण कि कहीं वे अपने ‘घमंड’ की वजह से तो, ईश्वर के अस्तित्व को नहीं नकार रहे हैं। लेख के प्रारम्भ में ही, भगत सिंह की सरल-सहज लेकिन अकाट्य आत्मविश्लेषण-शैली देखिए –
“—-क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता? —-मेरे घमंड ने मुझे कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिए उकसाया है। जो हो, यह एक गंभीर समस्या है। मैं ऐसी कोई शेख़ी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ।… अहंकार मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कॉमरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्यक्ति कहा जाता था।…..मुझे निश्चित ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन वह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता।…. आत्माभिमान और अहंकार दो अलग-अलग बातें हैं।“
भगत सिंह तर्क को आगे बढ़ाते हैं कि यह कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अहंकार में ईश्वर पर विश्वास करना बंद कर दे। दो ही रास्ते संभव हैं कि या तो वह अपने को ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी मान ले या स्वयं को ईश्वर मान ले। दोनों ही स्थितियों में वह ‘’सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता” क्योंकि वह संसार को संचालित करने वाली शक्ति, यानी ईश्वर को मानता ही है। ईमानदार आत्म-विश्लेषण के इसी आधार पर आगे बढ़ते हुए, लेख में भगत सिंह की स्थापना है कि विश्व का संचालक ऐसा कोई ईश्वर है ही नहीं।
गहन ऐतिहासिक विश्लेषण, प्रवाहमयी तार्किकता और ओज से संपन्न इस खासे लंबे लेख का मार्मिक अंत कुछ इस तरह होता है-
“मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ”देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।“ मैंने कहा, “नहीं, प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।“ पाठको, मेरे दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।“
चरित्र की दृढ़ता, सचाई और गहरे मानवीय सरोकारों से भरी ऐसी ‘नास्तिकता’ के आगे बड़ी से बड़ी आस्था नतमस्तक होती है।

काव्य संग्रह ड्रीमलैंड की भूमिका
दूसरा प्रसंग ‘ड्रीमलैंड की भूमिका’ से है। ‘ड्रीमलैंड’ भगत सिंह के चाचा और प्रख्यात क्रांतिकारी अजीत सिंह के सहयोगी लाला रामसरन दास का काव्य-संग्रह था। रामसरन दास को उम्रक़ैद की सजा हुई और उसके बाद उन्हें लाहौर षड्यंत्र केस में भी पाँच साल की सजा हुई। उन्होंने अपनी पुस्तक की भूमिका लिखने का भगत सिंह से आग्रह किया। उल्लेखनीय है कि भगत सिंह ने लाहौर सेंट्रल जेल में 15 जनवरी 1931 को यह लेख लिखा, यानी अपनी शहादत से ढाई महीने पहले। निश्चित मृत्यु के इतने करीब होने पर भी, विचार और लेखन की ऐसी स्पष्टता अद्भुत-अनुपम है। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस लेख का हिन्दी अनुवाद भगत सिंह के क्रांतिकारी साथी शिव वर्मा ने किया है।
इस लेख में भी, भगत सिंह लेखक के प्रति भावनात्मक सम्मान और विचारों की निर्मम-निरपेक्ष अभिव्यक्ति में पूरे विवेक से ताल-मेल बनाए रखते हैं। आत्मीयता के लिहाज़ में अपने विचार व्यक्त करने में नहीं झिझकते। लेखक के दृष्टिकोण को पूरी सहानुभूति से समझते हुए, वह अपनी बेबाक असहमतियाँ भी दर्ज करते जाते हैं। लेख की शुरूआत ही, अपनी योग्यता के प्रति स्पष्ट ‘डिस्क्लेमर’ और भूमिका लिखना स्वीकार करने के तर्क से होती है –
“मैं न तो कवि हूँ, न साहित्यकार, न मैं पत्रकार हूँ और न ही आलोचक। …. लेकिन मैं जिन परिस्थितियों में हूँ, वे मुझे लेखक से इस मामले पर बहस अथवा तर्क-वितर्क करने की सुविधा प्रदान नहीं करती…मुझे छंद और तुक का बिल्कुल ज्ञान नहीं है…. एक राजनीतिक कार्यकर्ता होने के नाते मैं अधिक-से-अधिक इस पर उसी दृष्टिकोण से बात कर सकता हूँ।… मैं जो लिखने जा रहा हूँ, वह किसी भी हालत में पुस्तक की भूमिका नहीं होगी। वह बहुत कुछ उस की आलोचना हो सकती है और इसलिए उसका स्थान पुस्तक के अंत में होगा, आरंभ में नहीं।“
इसके बाद, इस ‘भूमिका’ के जो तर्क हैं, वे बेहद सधे तरीके से सभी पक्षों को समेटती सहृदय आलोचना और लेखक के उद्देश्य के प्रति पूरे अनुराग के साथ, बेबाक असहमति के अनुपम उदाहरण हैं –
…मैं अपने मित्र से सभी बातों में एकमत नहीं हूँ। वे इस बात को जानते थे…राजनीतिक क्षेत्र में ‘ड्रीमलैंड” का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है… (गदर पार्टी को छोड़ कर) अन्य सभी पार्टियों में जो लोग थे वे मात्र इतना जानते थे कि उन्हें विदेशी शासकों से लड़ना है। यह विचार अपने में बेहद सराहनीय है लेकिन उसे क्रांतिकारी विचार नहीं कहा जा सकता। … क्रांति का मतलब मात्र उथल-पुथल या एक खूनी संघर्ष नहीं होता…उसमें मौजूदा हालात (अर्थात सरकार) को पूरी तरह ध्वंस करने के बाद समाज के व्यवस्थित पुनर्गठन के कार्यक्रम की बात निहित है।“
भगत सिंह इन कविताओं को पूरा सम्मान देते हुए बताते हैं कि कैसे क्रांतिकारी कवि ने 14 साल अविचलित रह कर जेल की सजा काटी, कैसे वे माफी मांग कर घर-परिवार के साथ रहने के प्रलोभनों से ऊपर उठे। फिर कहते हैं –
“वह (कवि) आरंभ में दर्शन की बात करता है। यह दर्शन बंगाल तथा पंजाब के सभी क्रांतिकारी आंदोलनों की रीढ़ है। मेरा लेखक से इस प्वाईंट पर बहुत बड़ा मतभेद है। उसकी विश्व की व्याख्या हेतुवादी और पारलौकिक (मेटाफिजिकल) है, जबकि मैं एक भौतिकवादी हूँ। … ईश्वर पर विश्वास रहस्यवाद का परिणाम है और रहस्यवाद मानसिक अवसाद की स्वाभाविक उपज है। यह जगत माया है या मिथ्या है, एक स्वप्न या कल्पना है… भौतिकवादी दर्शन के अंतर्गत इस प्रकार की विचारधारा के लिए कोई स्थान नहीं है। फिर भी लेखक का यह रहस्यवाद किसी भी रूप में हीन, ओछा और खेदोत्पादक नहीं है। उसका अपना सौन्दर्य एवं आकर्षण है। उसके विचार उत्साहवर्धक हैं।“
भगत सिंह इस अर्थ में उक्त रहस्यवाद को उचित मानते हैं कि वह खतरों और निजी प्रलोभनों के बीच संबल प्रदान करता है। लेखक के सभी धर्मों में ताल-मेल पैदा करने के विचार को रद्द करते हुए भगत सिंह धर्म को जनता के लिए अफीम मानने के मार्क्स के विचार के कायल हैं। कवि के मानवता के लिए सुंदर भविष्य की कामना की सराहना करते हुए भी, भगत सिंह स्पष्ट करते हैं कि ‘ड्रीमलैंड’ मात्र एक स्वप्न-लोक ही है, हालांकि ‘स्वप्न–लोकों की निश्चित रूप से सामाजिक प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका है।“
अनेक अन्य मुद्दों पर भी भगत सिंह दृढ़ता से अपना मत रखते हैं, लेकिन कवि की ईमानदार निष्ठा को खारिज नहीं करते। लेख के अंत में भगत सिंह के विचार किसी भी अध्येता के लिए जैसे सोने की कसौटी हैं –
“मैं अपने नौजवानों के लिए खास तौर पर इस पुस्तक की सिफ़ारिश करता हूँ, लेकिन एक चेतावनी के साथ। कृपया आँख मूँद कर इस पर अमल करने के लिए या इसमें जो कुछ लिखा है, उसे वैसा ही मान लेने के लिए इसे न पढ़ें। इसे पढ़ें, इसकी आलोचना करें, इस पर सोचें और इसकी सहायता से अपनी समझदारी बनाएँ।“
फणीन्द्रनाथ घोष से बहस
भगत सिंह के स्वयं के निरंतर आकलन और विचार तथा कर्म की दृढ़ता से जुड़ा तीसरा प्रसंग, उनके साथी शिव वर्मा के संस्मरणों की मार्मिक पुस्तक ‘संस्मृतियां’ से लिया जा रहा है।
भगत सिंह के क्रांतिकारी दल में एक सदस्य था – फणीन्द्रनाथ घोष। शिव वर्मा के शब्दों में, ‘वह अपने आप को ईश्वरभक्त, धर्मपरायण और आदर्शवादी’ मानता था। एक बार अमृतसर में क्रांतिकारियों की चर्चा के दौरान वह घिसी-पिटी धार्मिक बातें कर रहा था जिसका सार था कि भारत को गुलामी धर्म-विमुख होने के पाप की वजह से मिली है। भगत सिंह ने सधे शब्दों में प्रतिवाद किया कि यह अकर्मण्य सोच है और “जो लोग इस जगत को मिथ्या समझते हैं, वे कभी दुनिया की भलाई और इस देश की आज़ादी के लिए ईमानदारी से नहीं लड़ सकते।… मेरे निकट हर कदम जो इंसान को सुखी बना सके, समता, समृद्धि और भाईचारे के मार्ग पर उसे एक कदम आगे ले जा सके, वही धर्म है।“

फणीन्द्र दल का वरिष्ठ सदस्य था। भगत सिंह के सामने जब उसका अहंकार ढहने लगा तो वह कुतर्क करने लगा, “इस धरती को स्वर्ग बनाने न जाने कितने मसीहा आए और मुंह की खाकर चले गए। अब तुम आए हो, सो दो-चार दिन में तुम्हारे हौसलों का भी पता चल जाएगा। अंत में, होई है सोई जो राम रचि राखा।“
भगत सिंह का उत्तर था, ”हो सकता है, मेरी जिंदगी चार ही दिन की हो, लेकिन मेरे हौसले आखिरी सांस तक मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे, इसका मुझे विश्वास है। और कल यदि मैं न भी रहा, तो भी मेरे हौसले देश के हौसले बन कर साम्राज्यवादी शोषकों का अंत तक पीछा करते रहेंगे। —मुझे मनुष्य के पराक्रम और उसके बाहुबल पर विश्वास है। इसलिए मैं आशावादी हूँ। आप हर बात के लिए भगवान की ओर ताकते हैं। इसलिए आप भाग्यवादी हैं, निराशावादी हैं। भाग्यवाद कर्म से भागने का एक रास्ता है, निर्बल, कायर एवं पलायनवादी व्यक्तियों की अंतिम पनाह है। —-मसीहाओं ने धरती की बजाय आकाश में स्वर्ग बनाया, इसीलिए वे कारगर नहीं हो सके। आज का नया इंसान हवा में महल खड़े करना नहीं चाहता। इसने अपने स्वर्ग की बुनियाद इसी धरती की ठोस जमीन पर खोदनी शुरू कर दी है। आज का हर इंसान मसीहा है और इसीलिए मुझे उस पर विश्वास है।“
इस प्रसंग में दिलचस्प ‘पोइटिक जस्टिस’ यह हुआ कि कथित ‘ईश्वर-भक्त, धर्मपरायण, आदर्शवादी’ फणीन्द्र मुखबिर बन गया। ब्रिटिश सरकार को उसने जो जानकारियां दीं, उन्हीं की वजह से पूरा क्रांतिकारी आंदोलन बिखर गया। सच्चे देशभक्तों ने यातनाएँ झेलीं, शहादत दीं। उसी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ गवाही भी दी। वैसे आध्यात्मिकता का बाना पहन सत्ता का धूर्त मुखबिर बनकर, फणीन्द्र भी ‘राम रचि राखा’ से बच नहीं सका। क्रांतिकारी दल के वैकुंठ शुक्ल ने 1932 में उसकी हत्या कर दी। शुक्ल को 1934 में फांसी की सजा हुई।
दूसरी ओर, इंसान के प्रति आस्थावान भगत सिंह ने, अपने वादे और संकल्प निभाते हुए देश और मानवता के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।
निष्कर्ष
ये तीनों प्रसंग बताते हैं कि वैज्ञानिक-विवेकपूर्ण ‘विचार’ की कसौटी पर किसी भी तथ्य को आंकने से पहले, भगत सिंह स्वयं को भी, पूरी निरपेक्षता के साथ कसते थे। अपनी मानवीय कमजोरियों के वे बेबाक आलोचक थे। व्यक्तिगत मित्रता और लिहाज भी न तो उन्हें सत्य से विचलित कर पाता था, लेकिन मानवीय भावनाओं के प्रति असंवेद्नशील भी नहीं बनाता था।
भगत सिंह ने अपने जीवन और कर्मों से अपने विचारों के खरेपन को प्रमाणित किया। उनकी शहादत उनकी वैचारिक प्रखरता का सर्वोच्च बिन्दु बनी। तभी तो वह शहीदे-आजम हैं – मानवता को राह दिखाते तेजस्वी विचार-पुंज – जो किसी भी देश-काल के क्रांतिकारियों के पथ को निरंतर प्रकाशित रखेंगे।
(इस लेख में संदर्भ प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित और प्रो. चमन लाल द्वारा संकलित सरदार भगत सिंह के सम्पूर्ण साहित्य के दूसरे भाग तथा शिव वर्मा की नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘संस्मृतियाँ’ से लिए गए हैं। )

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँ, यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।
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Shaandar.