आरक्षण संवैधानिक व्यवस्था है – उसकी अभी ज़रूरत है

आज की बात

आरएसएस के प्रमुख (संघ की शब्दावली में जिन्हें सरसंघचालक कहा जाता है) श्री मोहन भागवत ने फिर एक बार आरक्षण के मुद्दे पर “समाज में सद्भावनापूर्वक  परस्पर बातचीत के आधार पर सब प्रश्नों के समाधान का महत्व बताते हुए आरक्षण जैसे संवेदनशील विषय पर विचार करने का आह्वान किया”। इस ‘आह्वान’ के साथ ही ये स्पष्टीकरण भी आ गया कि आरएसएस आरक्षण का हिमायती है।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगर आरएसएस सचमुच आरक्षण का हिमायती है तो फिर अचानक ये मुद्दा कैसे आ गया कि ‘इस संवेदनशील मुद्दे पर सौहार्दपूर्ण वातावरण’ में बातचीत होनी चाहिए। क्यों बातचीत होनी चाहिए? क्या अचानक कोई नई बात पता चली है? सिवाय इसके कि हाल ही में एक सवाल के जवाब में कार्मिक मंत्रालय के मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद में ये माना कि भारत सरकार में अफसरों के लिए सबसे बड़ा पद सचिव या सेक्रेटरी का होता है और आजकल इस पद पर 89 अफसर आसीन हैं। इनमें से केवल एक अनुसूचित जाति और तीन जनजाति से हैं। और ओबीसी कितने हैं? एक भी नहीं!

उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में ही आगे ये जानकारी मिली कि दूसरे नंबर के अधिकारी अपर सचिव (AS) के पद पर भी कमोबेश यही स्थिति है। फिर तीसरे नंबर का पद होता है जाइंट सेक्रेटरी (JS) या संयुक्त सचिव का। महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों की विचार-प्रक्रिया और उनके लिखे जाने में इनकी भूमिका अहम होती है। इनकी संख्या आजकल 275 है जिनमें से केवल 13 अर्थात 4.73 प्रतिशत अनुसूचित जाति के, नौ अर्थात 3.27 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के हैं।

यह सब हमारे बहुत से जागरूक पाठकों के लिए दोहराव भर होगा लेकिन इसका दोहराया जाना दो वजहों से ज़रूरी है। पहली वजह तो यही कि आरक्षण होने के बावजूद निर्णायक पदों पर उच्च-जातियों का शिकंजा कायम है और संवैधानिक व्यवस्था होने के बावजूद यथास्थितिवादियों ने ये सुनिश्चित किया हुआ है कि इन पदों पर हज़ारों साल से चला आ रहा ब्राह्मणवाद कायम रहे।

इस तथ्य को दोहराते रहने की दूसरी ज़रूरत ये है कि जो लोग अपने भोलेपन में ये मानते हैं कि यदि भारत में आरक्षण की व्यवस्था ना होती और केवल (तथाकथित) मेरिट के आधार पर नौकरियाँ मिलतीं तो पता नहीं देश कितना आगे पहुँच जाता! इन आंकड़ों से ये तो पता चलता ही है कि निर्णायक जगहों पर केवल और केवल उच्च जातियों का कब्ज़ा है। इससे ये भी पता चलता है कि उन्हीं की बनाई नीतियों के कारण हम जहां हैं वहाँ हैं यानि तथाकथित ‘ग्रोथ’ के बावजूद हम लगभग सभी मानकों पर दुनिया के फिसड्डी देशों में से हैं।

ये तो गनीमत है कि भारत की राजनीति के बहुत सारे कारकों ने दलितों-पिछड़ों को कुछ राजनीतिक ताकत दे दी जिससे उनके जीवन-स्तर में मामूली सुधार आने में मदद मिल सकी। भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था की यह एक बड़ी उपलब्धि है कि इससे दलितों के उत्थान में कुछ मदद मिली। अन्यथा अगर सिर्फ तथाकथित ‘मेरिट’ के भरोसे रहता तो आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि हजारों साल से चली आ रही ‘व्यवस्था’ को ज़रा भी ना छुआ जाता।  

इस आलेख में हम इस बहस में तो जाना ही नहीं चाहते कि आरक्षण उचित है या नहीं क्योंकि हमारी राय में अभी भी आरक्षण इतना अनिवार्य है कि उस पर बात नहीं हो सकती। हम तो सिर्फ इस पर कुछ विचार करना चाहते हैं कि आरएसएस आखिर इस विषय पर बार-बार बात क्यों करना चाहता है? यह एक संवैधानिक व्यवस्था है जिसने अपना उद्देश्य अभी तक पूरा नहीं किया तो फिर आखिर ऐसी क्या मजबूरी हो जाती है कि संघ-परिवार किसी ना किसी रूप में आरक्षण की व्यवस्था पर हमला करता रहता है?

इसका एक ही जवाब हो सकता है कि संघ उसी परंपरावादी दक़ियानूसी सोच का पोषण करना चाहता है जिसके कारण भारत हमेशा गुलामी में जकड़ा रहा है। हमारी भौगोलिक इकाई आजकल भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता है, हज़ारों साल से जातियों में बंटा रहा है और अपने को श्रेष्ठ मानने वाली कुछ जातियों ने देश की बहुसंख्यक जनता को हमेशा अलग-थलग और वंचित ही रखा है। समाजशास्त्रियों ने देश की ग़ुलामी का इसे ही सबसे बड़ा कारण माना है।

सच बात ये है कि संघ ने राजनैतिक ताकत तो पूरी तरह हथिया ली है किन्तु आज़ादी के बाद धीरे-धीरे ही सही और अस्सी के दशक से तो तेज़ी से भी, जिस तरह से ओबीसी और दलितों की राजनीतिक ताकत बढ़ी है, उससे संघ कभी भी सहज महसूस नहीं कर सकता। उसका कारण ये है कि उनका पूरा दर्शन इस व्यवस्था के खिलाफ है। संघ के सबसे बड़े दार्शनिक और पूर्व-सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी जिन्हें संघ के लोग परमपूजनीय गुरु जी के नाम से पुकारते हैं, आरक्षण के धुर विरोधी हैं। वह अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Bunch of Thoughts लिखते हैं:

“Separatist consciousness breeding jealousy and conflict is being fostered in sections of our people by naming them Harijans, SCs, STs and so on by parading the gift of special concessions to them in a bid to make them all their slaves with the lure of money.”

अगर संघ को उपरोक्त उद्धृत किए गए कथन से सहमति है और उन्हें लगता है कि संविधान ने अनुसूचित जाति और जन-जाति की व्यवस्था करके जातिवाद को बढ़ावा दिया है तो उनसे सबसे पहली मांग क्या होनी चाहिए? उनसे कहिए कि चूंकि आप तो देशभक्त हैं, इसलिए आप देश को ग़ुलाम बनाने वाली जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए कानून बनाएँ और किसी भी नागरिक द्वारा जातिगत नामों के इस्तेमाल को अपराध घोषित करें।

उसी तर्ज़ पर दूसरी मांगे भी रखी जानी चाहियेँ जिनसे जाति प्रथा तोड़ने में मदद मिले मसलन सरकारी नौकरियों में खासतौर पर अफसर की नौकरी में उन्हीं युवक-युवतियों को प्राथमिकता दी जाये जिन्होंने जाति तोड़ने के लिए कोई उल्लेखनीय काम किया हो – जैसे ऐसे युवक-युवतियाँ जो अंतरजातीय विवाह करें – ऐसे अंतरजातीय विवाह जो सवर्ण और अवर्ण के बीच हुए हों। उन्हें किसी भी नाम से पुकार लें लेकिन उनके आर्थिक-शैक्षिक विकास के लिए वही सब व्यवस्थाएँ कर दें तो ब्राह्मण के लिए होती हैं, उदाहरण के तौर पर  मंदिरों में पुजारी के तौर पर दलितों की नियुक्ति होनी चाहिए।

आप जानते हैं कि ये सब नहीं होना और संघ इसी तरह  बीच-बीच में ‘सौहार्दपूर्ण’ ढंग से आरक्षण पर बहस करते रहना चाहेगा क्योंकि देर-सवेर उनके एजेंडा पर तो ये मुद्दा है ही कि आरक्षण हटाना है। वह यह काम कम से कम राजनीतिक नुकसान उठाकर करना चाहेंगे। जब उनको ये भरोसा हो जाएगा कि वह अब बिना ज़्यादा राजनीतिक नुकसान उठाए आरक्षण को कमज़ोर कर सकते हैं तो करेंगे ही। और क्या मालूम कि कोई ऐसी व्यवस्था हो जाये कि उन्हें किसी राजनीतिक नुकसान की भी चिंता ना रहे, तब तो वो बिना सांस लिए इसे कर डालेंगे।

दलितों और पिछड़ो को आरक्षण बचाने के लिए रणनीति बनाने पर सोचना चाहिए और एक लंबी लड़ाई के लिए कमर कस लेनी चाहिए। अगर आप में से कुछ हिंदुत्व के मोह में भाजपा और संघ के साथ हैं तो तय कीजिये कि आपको सच्ची देशभक्ति चाहिए जो इस देश को एक रख सके और भविष्य में हमें ग़ुलामी से बचा सके या फिर एक ऐसा समाज जिसने हज़ारों सालों से अपने बहुसंख्यक हिस्से को किसी भी प्रकार की प्रगति से वंचित रखा हुआ था और जिसके परिणामस्वरूप ये देश बार-बार ग़ुलाम होता रहा?

विद्या भूषण अरोड़ा

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