टूर्नामेंट का वो आखिरी मैच

सत्येन्द्र प्रकाश*

टूर्नामेंट का आखिरी मैच, फाइनल! शामपुर की टीम कप की प्रबल दावेदार थी। उसकी भिड़ंत इस आखिरी मैच में रतनपुरा से थी। रतनपुरा की टीम का फाइनल में पहुँचना विश्वास से परे  था। शामपुर की टीम के सामने रतनपुरा कुछ वैसे ही था जैसे शेर से मुकाबले को मेमना खड़ा हो। मैच का परिणाम सबको पता था।

लग तो यही रहा था, मैच देखने के लिए शायद ही भीड़ इकट्ठी हो। एक तरफा मैच में क्या रोमांच होगा। एक टीम गोल पर गोल दागेगी। और दूसरी के पास गोल खाने के  अलावा कोई और विकल्प नहीं। इसमें क्या मजा आएगा।  

टूर्नामेंट किस खेल का था, ये तो बताया ही नहीं। पर गोल की  बात से भनक तो लग ही गई होगी। हॉकी या फुटबॉल होगा। जी हाँ टूर्नामेंट फुटबॉल का ही था। उन दिनों गांवों के लिए हॉकी भी महँगा खेल था। हॉकी स्टिक और गोलकीपर का ताम झाम गाँव की सोच के बाहर था। फुटबॉल में क्या चाहिए एक अदद बॉल, बस। बूट कौन पहनता है गाँव के फुटबॉल में। अगर एक दो खिलाड़ी एंकल कवर में दिख जाएं, वही बड़ी बात थी।

जर्सी उन गाँवों के खिलाड़ियों के पास होती जहाँ फुटबॉल नियमित खेला जाता था। रतनपुरा का तो यह पहला टूर्नामेंट था। रतनपुरा में होनेवाला यह पहला टूर्नामेंट था और रतनपुरा पहली बार किसी प्रतिस्पर्धात्मक खेल में भाग ले रहा था। तो रतनपुरा के खिलाड़ियों के पास जर्सी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए कहीं  कहीं से किसी तरह जर्सी का जुगाड़ किया गया। फिर ऐसी टीम के फाइनल में पहुँचने से लोगों का सकते में आना बिल्कुल स्वाभाविक था।

रतनपुरा में लोग फुटबॉल नहीं खेलते थे ऐसा नहीं था। खेलते थे, पर सिर्फ मनोरंजन के वास्ते। वैसे भी रतनपुरा में, “पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब” मुहावरे को ज्यादा तरजीह दी जाती थी। संभवतः इसलिए भी कि इस गाँव को पचास के दशक में ही एक आई आर एस अधिकारी पाने का सौभाग्य मिल चुका था। उससे पहले इनके चचरे भाई भी शिक्षा विभाग में अच्छे पदों पर सुशोभित थे। बाबू साहब के परिवार से भी पॉलीटेक्नीक कर एक सज्जन जूनियर इंजीनियर बन चुके थे।  इसका मतलब यह नहीं कि इस गाँव के सभी बच्चे पढ़ाई में कोई बड़ा तीर मार रहे हों। खेलने कूदने को प्रोत्साहन नहीं देना शायद उस समय का चलन ही था।

बहरहाल, कप के कई प्रबल दावेदारों को मात देकर रतनपुरा की टीम टूर्नामेंट के फाइनल में पहुँच चुकी थी। इस टीम की संरचना भी काफी मजेदार थी। एक सम-वयस्क टीम तैयार करना रतनपुरा के लिए टेढ़ी खीर से कम ना था। मनोरंजन के लिए खेलने में उम्र का कोई बंधन नहीं होता। अगर खिलाड़ी कम पड़े तो बच्चों को शामिल कर लो। वे तो हर समय मैदान के किनारे बैठे लालायित आँखों से खेल देखा करते। इस ताक में कि कभी भी उनकी जरूरत पड़ सकती है।  टीम पूरी करने के लिए। आखिर खेल तो तभी होगा जब ग्यारह ग्यारह की दो टीमें हों। टीम के अभाव में रतनपुरा भाग भी ना लेता। किन्तु टूर्नामेंट आयोजित करने के लिए उस गाँव का टूर्नामेंट में शामिल होना अनिवार्य था। और रतनपुरा के कुछ उत्साही युवकों ने ठान लिया था-अपने गाँव में टूर्नामेंट करा के ही दम लेंगे। तो टूर्नामेंट आयोजित करने के लिए इसमें भाग लेना आवश्यक था। और टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए टीम का बनना भी जरूरी।

पाँच छह को छोड़कर स्तरीय टीम के लिए गाँव में युवकों का सर्वथा अभाव था। छुट्टियों में गाँव आए कुछ को जोड़ लें तब भी संख्या नौ तक ही पहुँच रही थी। कम से कम दो और खिलाड़ियों की जरूरत थी। चोटिल खिलाड़ियों के विकल्प की बात तो खैर बाद की है। काफी सोच विचार के पश्चात तय हुआ कि गाँव के टोला टपड़ी से भी कुछ को शामिल किया जाए। टोला टपड़ी के युवक गाँव की मुख्य गतिविधियों से मुश्किल ही जुड़ पाते थे। पर गाँव द्वारा टूर्नामेंट के आयोजन से हर तरफ एक अलग ही उत्साह था।

टोला के युवक भी टीम में शामिल होने के लिए लालायित थे। मुख्य धारा से अलग रहने से उत्पन्न द्वेष से टोला मुक्त थे। सामाजिक समरसता का यह माहौल गाँवों में कतिपय दुर्लभ होता है। सम्पूर्ण गाँव की मति एक होना। सुयोग का ये संयोग बिरले ही दिखता है। पर इस टूर्नामेंट की वजह से रतनपुरा को ये मयस्सर था।  गुणवत्ता और उपलब्धता ही  टीम चयन का एकमात्र आधार था। गँवई राजनीति या आपसी वैमनस्य का टीम चयन में कोई दखल नहीं था।

आखिरी मैच की दस्तक के साथ टीम चयन की विस्तृत चर्चा अटपटा सा लगता है। फाइनल तक का सफर रतनपुरा ने टीम बना कर ही पूरी की थी। आधी अधूरी टीम से तो टूर्नामेंट नहीं खेला जाता। टूर्नामेंट के शुरुआती मैच जीतने पर भी रतनपुरा की टीम की संरचना पर   किसी का ध्यान नहीं गया। क्वाटर फाइनल तक की यात्रा का श्रेय काबलियत और जज्बा से ज्यादा भाग्य को मिला। या यूं कहें इसे अंधे के हाथ बटेर लगना ही माना जाता रहा। क्वाटर फाइनल की जीत से इस टीम के खिलाड़ियों को उनके नाम से जाना जाने लगा। एक-एक की ताकत और कमजोरी का विश्लेषण भी गाहे-बेगाहे किया जाने लगा।  राजेन्द्र और केदारिया से इस टीम की रक्षा पंक्ति काफी सुदृढ़ थी। आनंदी को कमजोर गोलकीपर माना जाता था पर लगभग निश्चित गोलों से बचाकर आनंदी ने स्पष्ट संदेश दे दिया था, उसे हल्के में लेने की गलती न किया जाए।  रामाशीष और रामचंदर लेफ्ट और राइट से फॉरवर्ड के अच्छे प्लेयर साबित हो रहे थे। अब तक जीत सुनिश्चित करने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। इनकी  फुर्ती और रण कौशल ने सबका ध्यान आकर्षित किया था।

इस टीम के सदस्यों में जाहिर तौर पर एक अलग ही जोश और जज्बा दिख रहा था। पर शामपुर की टीम का खौफ एक एक सदस्य के मन में घर किये हुए था। उनका गोलकीपर सिर्फ गोल बचाने में ही दक्ष नहीं था। एक किक में बॉल को दूसरे खेमे की तरफ खड़े अपने किसी भी खिलाड़ी तक पहुंचा सकता था। उसके स्ट्राइकर मैदान के किसी भाग से बॉल को दुश्मन के गोलपोस्ट के अंदर डाल सकते थे। सेमी-फाइनल में बिशम्भरपुर  की मजबूत टीम को मात देकर वे अपना करतब दिखा चुके थे। दूसरे सेमी-फाइनल में रतनपुरा ने तिवारीखरेया को शिकस्त दी थी। तिवारीखरेया, शामपुर और बिशम्भरपुर – ये तीनों गाँव टूर्नामेंट पर कब्जा जमाने की होड में थे। रतनपुरा तो कप की दौड़ में कहीं था ही नहीं।

इस आखिरी मैच को लेकर शामपुर की टीम पूरी आश्वस्त थी। वे भी यही मानते थे कि रतनपुरा तो बस तुक्के से फाइनल में पहुँच गई है। शामपुर वाले तो ये कहते सुने जा रहे थे, “कप तो उन्हीं का है”। उन्हें तो बस गोलों की गिनती करनी है। रतनपुरा के राजेन्द्र और रामाशीष भी शायद ऐसा ही सोच रहे थे कि जीतेगी तो शामपुर ही और फाइनल में हार कर हम क्या ही मज़े करेंगे, तो अच्छा है कि फाइनल मैच के पहले ही अब तक की जीत का जश्न मना लिया जाए। बस क्या था, समापन कार्यक्रम की व्यवस्था का बहाना कर ये दोनों गाँव के नजदीक के बाजार पहुँच गए।

फाइनल मैच साढ़े चार शुरू होना था। ढाई बज गए। राजेन्द्र और रामाशीष का कहीं पता नहीं। इन दोनों की गैर-मौजूदगी में रतनपुरा मैच कैसे खेलेगा। शामपुर को क्या वॉक ओवर मिल जाएगा? बिन खेले ही कप शामपुर का हो जाएगा। रतनपुरा के लिए ये कितनी बड़ी शर्म की बात होगी। शामपुर से हार के डर से रतनपुरा मैच छोड़कर भाग गया।

कुछ लोग राजेन्द्र और रामाशीष की खोज में जुट गए। लेकिन खोजबीन होने से तेज हवा की तरह ये बात रतनपुरा और आस-पास के गाँवों में फैल गई। इस मैच के लिए अब लोगों के मन में अलग उत्सुकता थी। रतनपुरा क्या वाकई मैच नहीं खेल पाएगा। शुरू में जिस मैच को दर्शकों के लाले पड़े थे, उसे देखने अब भीड़ उमड़ने लगी। मनोरंजन से वंचित गाँवों के लिए मनोरंजन के ऐसे अवसर भाग्य से मिलते थे। देखते देखते मैदान के पास खासी भीड़ जमा हो गई। जहां भीड़ होगी वहाँ बातें तो होंगी ही। राजेन्द्र और रामाशीष के लिए तरह तरह की बात करने लगे लोग। कोई उन्हे कोस रहा था, तो कोई किसी अनहोनी की आशंका व्यक्त कर रहा।

    इतने में गाँव की ओर से एक छोटा बच्चा दौड़ता हाँफता मैदान के पास पहुँचा। उसने बताया कि राजेन्दर और रामशीष काका की साइकिल आपस में भीड़ गई। दोनों वहाँ गिरे पड़े है। पता चला खा पी मस्ती में दोनों तेज रफ्तार साइकिल दौड़ा रहे थे। मैच शुरू होने से पहले पहुंचना जो था। खेल के मैदान से दो फ़र्लांग पहले ही दोनों की साइकिलें आपस में ही भीड़ गई। साइकिल रफ्तार में थी। भिड़ते ही दोनों साइकिल-सवार पलटियाँ खाते हुए बगल के खड्डे में धराशायी। हाथ पाँव तो नहीं टूटे, पर चोटें काफी आईं। अब ये दोनों तो मैच खेलने से रहे।

रतनपुरा की टीम में इनकी जगह लेगा कौन। सबसे पहले पास के अहीरटोला के युवकों पर ध्यान गया। जोगिंदर चोंधरी और रामचंदर राऊत को आनन फानन में तैयार किया गया। एक रामचंदर तो रतनपुरा के टीम में पहले से ही था। हाँ दूसरे ने राजेन्द्र की जगह ली बैक के रूप में। और जोगिंदर का रामाशीष के स्थान पर लेफ्ट आउट से खेलना तय हुआ। रतनपुरा शामपुर को वाक ओवर नहीं देगा। टूर्नामेंट के आखिरी मैच से मुहँ नहीं मोड़ेगा। “गिरते हैं शहसवार ही मैदान ए जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटने के बल चले”, तो रतनपुरा को मैदान जंग में शिकस्त मंजूर था। मैदान से पीठ दिखा कर भागना नहीं।

कुछ ही पल में दोनों टीमें आमने सामने थीं। दोनों तरफ के प्लेयर्स ने अपनी पोजिशन ली। और रेफरी के व्हिसल के साथ खेल शुरू। शामपुर ने आक्रामक खेल शुरू किया। आशा के अनुरूप रतनपुरा ने रक्षात्मक रणनीति अपनाई। पर मैच के पाँचवे मिनट में ही रतनपुरा की रक्षा पंक्ति ध्वस्त। शामपुर के हाफ बैक जवाहर ने अद्भुत ड्रिबलिंग दिखाई। रतनपुरा के अगली पंक्ति के खिलाड़ियों को चकमा देते हुए जवाहर आगे बढ़ता गया। राजेंद्र की अनुपस्थिति में रतनपुरा की रक्षा पंक्ति का आत्मबल वैसे ही कमजोर था। जवाहर ने तेजी और चतुराई से उसे भेदते हुए बॉल को रतनपुरा के गोलपोस्ट के भीतर दाग दिया। आनंदी इस गोल को बचाने में नाकामयाब। इतनी जल्दी गोल खाकर रतनपुरा का बचा खुचा आत्मविश्वास भी समाप्त हो जाना चाहिए। पर फाइनल तक के सफर ने रतनपुरा को हिम्मत नहीं हारने की सीख तो दे ही दी थी।

रतनपुरा ने हिम्मत दिखाते हुए अपने खेल को चुस्त किया। एक गोल से हारे या पाँच से, हारना तो हारना ही है। फिर डर कर क्यों खेलना। इस भावना से खेलते हुए मध्यावधि तक रतनपुरा ने और कोई गोल नहीं होने दिया। शामपुर ने मूव तो कई बनाए, गोलपोस्ट के नजदीक भी पहुंचे किन्तु गोल कर नहीं पाए। मध्यावधि के बाद के खेल में रतनपुरा ने आक्रामक खेलने का निर्णय लिया। मध्यावधि तक एक के बाद दूसरा गोल नहीं होने देना अपने आप में रतनपुरा की उपलब्धि थी। तो फिर जीत की एक कोशिश क्यों नहीं।

महेश्वरी बाबू को रतनपुरा ने अगली पंक्ति से आक्रामक खेल के लिए मैदान में उतारा। महेश्वरी बाबू रतनपुरा प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। रतनपुरा के निवासी नहीं। माट साब फुटबॉल भी खेलते हैं उनके विद्यार्थी तो नहीं ही जानते थे। पर कोई तो था जो उनके खेल की शैली से परिचित था। माट साब ने अपनी धोती छोटी करते हुए घुटने तक की। माट साब धोती ही पहनते थे, पायजामा इत्यादि नहीं। अगली पंक्ति के एक खिलाड़ी ने अपनी जर्सी माट साब को दी। धोती के ऊपर जर्सी डाल माट साब का मैदान में उतरना गंभीरता से ज्यादे उपहास का मुद्दा था। लोगों ने यही सोचा रतनपुरा वालों की शायद मति मारी गई है। तभी तो इस जोकर को मैदान में उतारा है। लेकिन माट साब के मैदान में उतरते ही रतनपुरा के खेल की धार तेज हो गई। छोटे पास और ड्रिबलिंग के अद्भुत मिश्रण से माट साब ने शामपुर के गोलपोस्ट को भेद कर हिसाब बराबर कर दिया। उन्हे मैदान में उतरे अभी पंद्रह मिनट भी नहीं हुआ था।

पूरे खेल में शामपुर पहली बार रक्षात्मक दिखा। और गोल ना हो शामपुर की प्राथमिकता हो गई। जीत के लिए गोल मारना नहीं। रतनपुरा के खिलाड़ियों के तेवर ही बदल गए। जीत की  खशबू उनके नाक को गुदगुदाने लगी। दर्शकों की उत्तेजना अब चरम पर थी। माट साब अब जोकर की जगह हीरो लगने लगे। दर्शकों ने उनका जोश बढ़ाना शुरू कर दिया। और मैच समाप्त होने के दस मिनट पहले माट साब ने एक और गोल ठोक दिया। शामपुर के तो होश ही उड़ गए। गोल उतारने और जीत के लिए गोल दागने की कोशिश तेज हो गई। पर माट साब के दूसरे गोल से शामपुर की जैसे कमर ही टूट गई थी। उनका हर प्रयास बेजान लगने लगा। आखिरी पलों के खेल की दशा और दिशा दोनों बदल गए थे। शामपुर के हर प्रयास को रतनपुरा ने विफल कर दिया।

टूर्नामेंट के इस आखिरी मैच के साथ खेल के क्षेत्रीय नक्शे पर रतनपुरा का नाम मोटे अक्षरों में अंकित हो गया। महेश्वरी बाबू, अपने विद्यार्थियों के प्रिय माट साब, अब उनके हीरो थे। 

********

*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

9 COMMENTS

  1. वाह, इसको पढ़ते हुए प्रकाश झा की फाइल हिप हिप हुर्रे की याद आती रही. घटनाक्रम में नाटकीयता और उत्सुकता जगती ही रही…मुख्य धारा और टोले टपरी के बीच के संबंध को थोड़ा और गहराई से समझने की उत्सुकता रह गई…पर एक उभरते हुए लेखक को पढ़ना बड़ा सुखद अनुभव है…और लिखेंगे इस उम्मीद में…

  2. रोमांच हर शब्द में छलक रहा है। रतनपुरा की सरल पृष्ठभूमि पाठकों को बारम्बार बुलाती रही।
    बहुत मज़ा आया पढ़ कर।

  3. रोमांच से हर शब्द छलक रहा है। मज़ा आ गया पढ़ कर। रतनपुरा की सरल पृष्ठभूमि बुलाती है पाठकों को।

  4. हर बार की तरह ही इस बार भी अति सुंदर। कहानी को बिल्ड-अप करते हुए अंत तक रोमांच बनाए रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है। इस कहानी के जरिए पाठकों को महेश्वरी मास्टर साहब के नये पहलू का पता चला।

  5. पढ़ने के बाद क्रमवार सारी बातें याद आ रही है। महेश्वरी मास्टर साहब बहुत फुर्तीला थे। शिक्षक के रूप में भी कर्तव्य निष्ठ थे।

  6. कहानी अच्छी लगी। लेखक के कहन का अंदाज बांधे रखता है।
    आपकी इस विधा से परिचित होकर बहुत अच्छा लगा। इसलिए कि हमारा समाज साहित्य से विरत होता जा रहा है।

  7. Khel aur jivan ke bich ke sambandh ka adhbhut udaharan hai ye Katha, kyoki such ko svikarne ke pashchat ek alag hi sahas ka parichay hota hai. is kahani ke patro ke dvara yahi samjhane ka prayas apne Kiya hai jo bahut hud tuk jhalkta hai.

  8. आप सभी के उत्साहवर्धक शब्दों से और लिखने का साहस कर पाया, सभी का आभार। भविष्य में भी आप सभी जा साथ रहेगा ऐसी आशा करता हूँ।
    आप सभी से लेखन को और समृद्ध और रुचिकर बनाने हेतु सुझाव की अपेक्षा भी है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here