नरेश जोशी*
किस्से कहानी सुनते आए थे, महाराज अचानक सोते उठते, कभी तो नाक पर मक्खी को उड़ाते प्रजा की चिंता कर बैठते थे। फिर क्या था, आनन-फानन महाराज खुद मुनादी कर देते कि प्रजा की भलाई के लिए उन्होँने एक नया सपना देखा है। उस सपने के मुताबिक नये हुक्मों की फेहरिस्त जारी हो जाती। फरमान हो जाता कि सभी को उन नए नियम-कायदों का तुरंत पालन शुरू कर देना होगा। महाराज की बात कोई भला कैसे काट सकता था, प्रजा की भलाई के लिये ही तो वो सिंहासन चढे थे। कुछ निकम्मे ज़रूर उंगली उठाते थे। भला हो सिपाहलदारों जो ऐसे गद्दारों को जल्द ही समझा देते थे कि “राजद्रोह” की जुर्रत उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी। महाराज की जय-जय होने लगती और सल्तनत आराम से चलती रहती थी।
प्रजा की भलाई का ख्याल इस कदर परेशान किए रहता था कि महाराज जागते हुए भी सपने देखते थे। अचानक उनको अगर लगा कि पहाड़ पर चढ़ा देने से प्रजा का स्तर आस- पास के राज्यों से ऊंचा हो जायेगा, तो हुक्म हो जाता कि सुबह तक सबको पहाड़ के ऊपर पहुंचना होगा। जान जोखिम में डाल कर प्रजा भागती। मान लेती कि महाराज का सोच है तो ठीक ही होगा और प्रजा की भलाई के लिये ही होगा। कभी एलान हो जाता कि आधी रात के बाद मौजूदा सिक्के चलन से बाहर हो जाएंगे और महाराज द्वारा डिज़ाइन किए गए नए सिक्के ही चलेंगे। पुराने सिक्कों को खजाने में जमा कराने के लिये लोग लाइनों में लग जाते। कुछ लोग मर-खप जाते थे, ऐसे कमज़ोर लोग राज्य के भला काम भी क्या आते? ढिंढोरा हो जाता कि महाराज के इस फैसले से राज्य अब समृद्ध और प्रजा सम्पन्न हो गयी है, लोग कोशिश करते कि किसी तरह वे भी अपना सोच बदलें।
महाराज ने वायदा किया था कि सिंहासन चढते ही हर आदमी को मालामाल कर देंगे। नासमझ लोग इसे समझ ही नहीं पायें। महाराज का मतलब जेब में पैसा डालने से नहीं था, बल्कि लोगों को सोच से धनी बनाने से था। महाराज तो लोगों को ऊपर उठाने का पूरा प्रयास कर रहे थे लेकिन लोगों का छोटा सोच ही आड़े आ रहा था। इसी तरह उन्होँने “नंगे पैर” चलने वालों को हवा में उड़ाने और लोगों को राज्य के एक कोने से दूसरे पर “गोली” (बुलेट) की रफ़तार से भेजने का वायदा किया था। प्रजा को दिखाये सपनों पर यकीन दिलाने में महाराज पूरी जी जान लगा देते थे । वे दिन-रात लोगों के लिये ही जीते थे, इसलिए उनकी सारी कारवाईयों की जानकारी हर पल, सचित्र सहित प्रजा को मिलती रहे, इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता। हर बार नये परिधान में सजे संवरे महाराज की आकर्षक छवि लोगों की बदहाली से मेल नहीं खाती थी पर उनको लगता था कि इससे वह शायद प्रजा को सजने-संवरने का कुछ तो सलीका तो सिखा पायेंगे।
महाराज के सपनों में खलल डालने अचानक एक बार राज्य में एक आपदा आ गयी। राज्य के संसाधन तो सपनों को आगे बढाने के लिए थे न कि आपदा से लड़ने के लिये। हुक्म हो गया कि लोग खुद को आपदा से बचाने के लिये घर में बंद हो जाएँ, बाहर निकलने पर कड़े दंड के भागी होंगे। घर में कैद की इस अवधि की अनिश्चितता से लोग बेसब्र हो गए और उनका पैसा-धेला और खाना भी खतम होने लगा। ऐसे में कुछ लोग बैठे-ठाले, दूर गाँव में छूटे बूढ़े माँ-बाप, बच्चों और अपनी स्त्री की चिंता करने लगे। इनमें से कुछ नासमझ तो शारीरिक प्रतारणा झेलते, छुपते-छुपाते कोसों मील गाँव-देहात की तरफ निकल पड़े। कुछ ने तो भूख और थकान से रास्ते में ही दम तोड़ दिया। महाराज को अपने आदेश के नापालन से जहां दुख हुआ वहीं आश्चर्य भी कि राज्य में ऐसे लोग भी थे जो भूख-प्यास का कुछ दिन मुक़ाबला नहीं कर सके तो फिर वे राज्य को आगे ले जाने में कैसे काम आते?
आपदा के कहर से परेशान लोग चिकित्सा के अभाव में भटकते रहे, दम तोड़ते रहे। ऊपर से धंधे –मजदूरी सब चौपट, लोग पूरी तरह टूट गये। राजसी सहायता कुछ को मिली, कुछ बाट जोहते रहे। खुद से जीने की आज़ादी कई तरह कि पाबंदियों में जकड़ गयीं। लगने लगा कि ज़िंदगी अब पूरी तरह राजसी फरमानों से ही चलेगी।
लेकिन महाराज को लगता था कि शायद प्रजा उनको अभी भी ठीक से समझ नहीं पा रही थी, इसलिए वे अक्सर अपने “दिल की बात” प्रजा को सुनाने लगे। प्रजा को क्या चाहिए, उसके मन में क्या है, वह तो महाराज बखूबी जानते ही थे । वैसे भी लोगों की बात तो वो ही रोजी-रोटी, और रोज़ के दुख-दर्द के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती। फिर महाराज जैसी समझ भला गाँव देहात के लोगों को कहाँ हो सकती थी। महाराज का सोच ठीक ही था कि चीजों को उनकी नजरों से ही देखने पर ही तो लोग खुद को ताकतवर और सम्पन्न महसूस कर पायेंगे। यह सोच जागा तो फिर राज्य खुद ही अगले सालों में दुनिया का सबसे ताकतवर राज्य बन जाएगा, जिसका वायदा वे रात-दिन करते थे। इसलिए ही ध्यान रखते थे कि “दिल की बात” के मसौदे में लोगों की तंगहाली, गाँव-खलिहानों के रोने का कतई जिक्र न हो, वह तो हमेशा चलता ही रहेगा। इन सबसे ऊपर उठ कर खुशहाल बनने का सपना तो देखना ही होगा, इसी को दिखाने में ही तो महाराज रात- दिन एक किए हुए थे। सो ऐसे ही सल्तनत चले जा रही थी। कहानी यहीं खतम नहीं होती। इसके अगले हिस्से कभी मौका मिला तो फिर सुनाएँगे। फिलहाल तो महाराज की जय हो!
??बहुत खूब,
बहुत सटीक। महाराज की विरुदावली जारी रहनी चाहिए। उनकी ‘दिल की बात’, आपकी ‘जन का राग’ -राग दिल्ली में।
क्या बात है नरेश जी! महाराज की जमकर खबर ली